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Mesam Naqvi

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Mesam Naqvi


नाम व अलक़ाब (उपाधियाँ)

हज़रत इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम का नाम अली व आपकी मुख्य उपाधियाँ हादी व नक़ी हैं।

माता पिता

आपके पिता हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत समाना थीं।

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 212 हिजरी क़मरी मे ज़िल- हिज्जाह मास की (15) वी तिथि को पवित्र शहर मदीने मे हुआ था।

इमामत

जब वर्ष २२० में उनके पिता इमाम जवाद अलैहिस्सलाम की शहादत हुई तो इमामत अर्थात ईश्वरीय मार्गदर्शन जैसे महान कार्य का दायित्व उनके कांधों पर आ गया।

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के कथन

१. ख़ुदपसन्दी इन्सान की बदबख़्ती और हलाकत का सबब है।

२. जो शख़्स नेमाते इलाही (ईश्वरीय ईनाम) का शुक्रगुज़ार करता है उस पर नेमाते इलाही का इज़ाफ़ होता (बढ़ जाता) है।

३. मैं तुम लोगों को वसियत करता हूँ के हमेशा रास्त गो रहना अहद को वफ़ा करना अमानत (धरोहर) को अदा करना और यतीमों ( जिसका पिता न हो) की सरपरस्ती करना।

४. नेक काम मर्गे मफ़ाजात से बचाते हैं।

५. दूसरो के अमवाल (माल का बहु वचन) में लालच न करो ताकि लोग तुम्हें पसन्द करें।

६. नादानी से ज़्यादा कोई फ़ख़्र नहीं और अक़्ल (बुध्दि) से ज़्यादा फ़ायदा रसाँ (लाभ पहुँचाने वाला) कोई माल नहीं।

७. अल्लाह से डरो ताकि दूसरों से भी अमान (सुरक्षा) में रहो।

८. तीन चीज़ें मोहब्बत पैदा करती हैं- 1.मुआशेरत (समाज) में इन्साफ़ ,2.सख़्तियों में हमदर्दी और 3.खुले दिल से लोगों से मोहब्बत ।

९. ख़्वाहिशे नफ़्स (आत्म इच्छा) पर क़ाबू पा लेना दीनदारी की अलामत (चिन्ह) है।

१०. दो रूई (दोहरी बातें) और चुग़लख़ोरी से परहेज़ करो क्योंकि उसी से लोगों के दिलों में किना (द्वेष) पैदा होता है और तुम्हारी शख़्सियत (व्यक्तित्व) घटती जाती है।

११. कभी भी अपने बरादरे दीनि से इन्तेक़ाम (बदला) लेने की कोशिश (प्रयास) न करो अगरचे उसने बदी की हो।

१२. जो शख़्स (मनुष्य) सिर्फ़ अपनी अक़्ल पर भरोसा करे और मशविरा (परामर्श) न करे उससे लग़्ज़िश (त्रुटि) हो सकती है।

१३. जो सच्चा मुसलमान हो परहेज़गार (बुराई से बचने वाला) रहेगा।

१४. ख़ुदा की रहमत है उस पर जिसे जब नेक काम की दावत दी जाये तो क़बूल (स्वीकार) कर ले।

१५. जब तुम से कोई मशविरा (राय) करे तो उसे सही रहनुमाई (उचित मार्गदर्शन) करो।

१६. बेहतरीन सदक़ा यह है कि जो दोस्त जुदाई (प्रथकता) का शिकार हो गये हैं उनमें इस्लाह (शुध्दि) कर दो।

१७. अक़्लमन्दों (बुध्दिमानों) से रहनुमाई हासिल करो और उनके मशविरे से सरताबी न करो वरना पशेमान होना पड़ेगा।

१८. लोगों से इज़्हारे मोहब्बत (प्रेम प्रकट) करो ताकि तुमको भी दोस्त रखें।

१९. क्या कहना उस शख़्स का जो अक़्लमन्दों और दानिशमन्दों (बुध्दिमानों) का हमनशीं (साथी) है।

२०. जो ज़माने से तजुर्बा हासिल करता है वह दुनिया वालों के फ़रेब (धोके) में नहीं आता।

२१. ख़ुशख़ल्की (अच्छा तरीक़ा) और कुशादा रूई (सत्य व्यवहार) दोस्ती का बायस (कारण) और मोहब्बत हासिल करने का ज़रिया है।

२२. जो चीज़ें यहाँ हलाल ज़रिये से हासिल की गईं उसका भी वहाँ हिसाब होगा।

२३. हर चीज़ का एक सुतून (खम्भा) होता है दीन का सुतून इल्म व दानिश (बुध्दि) है।

२४. जो शख़्स ख़ुदपसन्दी और ख़ुदखाँ (अपनी प्रशंसा चाहने वाला) होता है उस पर ग़ुस्सा करने वाले भी ज़्यादा होगें।

२५. छुप कर गुनाह करने से डरो क्योंकि उस वक़्त का देखने वाला ही फ़ैसला करने वाला है।

२६. दूर अन्देश वह है जो फ़ुज़ूल ख़र्ची से बचे और इसराफ़ (दुरूपयोग) से दूर रहे।

२७. जिसके पास अमानत हो वह उसके मालिक तक पहुँचायें।

२८. इलाही नेमात पर ग़ौर करना एक अच्छी इबादत है।

२९. सख़ावत मोहब्बत पैदा करती है और अख़लाक (शिष्टाचार) इन्सान को भी आरास्ता करती है।

३०. कीना परवरी (मन में शत्रुता) पस्ती की अलामत है और इन्सान की अज़मत (बड़ापन) कम करती है।

३१. औलाद जब अपने माँ बाप को मोहब्बत की नज़रों से देखे तो यह इबादत है।

३२. इज़्ज़त के बाद ज़िल्लत उतनी सख़्त है जितना इक़्तेदार मसर्रत आवर।

३३. गुनाहगारों (पापियों) के लिये तौबा (प्रायश्चित) कर लो।

३४. जिसकी निगाहें दूसरे के माल की तरफ़ होती हैं उसका ग़म ज़्यादा और अफ़सोस फ़रावां रहता है।

३५. जब दो मुसलमान आपस में मुलाक़ात करके मुसाफ़ेहा (हाथ मिलाना) करते हैं तो उनके गुनाह ख़ुश्क पत्तों की तरह गिरते है।

३६. हमेशा दूसरोंक की कामयाबी (सफ़लता) और आक़बत ब-ख़ैर होने की दुआ करो ताकि वह चीज़ें तुम अपने में पाओ।

३७. मेज़ाह (मज़ाक़) वेक़ार (सम्मान) व हैयबत को कम कर देता है जबकि सुकूत (ख़ामोशी) वेक़ार (सम्मान) में इज़ाफ़े (बढ़ाने) का बायस (कारण) है।

३८. जवानों में से जो क़ुदरत रखता हो अज़्दवाज (विवाह) करे क्योंकि अज़्दवाज पाकदामनी का मोजिब (कारण) है।

३९. मालियात (माल का बहु वचन) के ज़मन में हमेशा अपने से नीचे लोगों से मवाज़ना (मुक़ाबला) करो न के बलन्द लोगों से।

४०. आख़ेरत (परलोक) का महसूल अमले सालेह (अच्छा कार्य) हैं और दुनिया का महसूल माल व औलाद।

शहादत (स्वर्गवास)

तत्कालीन अब्बासी शासक मोतज़ के आदेश पर एक षडयंत्र के अन्तर्गत ३ रजब २५४ हिजरी क़मरी को इमाम को शहीद कर दिया गया। इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की शहादत के समाचार ने अत्याचारग्रस्त जनता को बहुत दुखी किया।

उनकी शहादत का समाचार मिलते ही बड़ी संख्या में लोग उनके घर पर एकत्रित हुए और पूरा नगर उनकी शहादत के शोक में डूब गया।

समाधि

हज़रत इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम की समाधि बग़दाद के समीप सामर्रा नामक स्थान पर है। जहाँ लाखो श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन कर आपको सलाम करते हैं।

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद।।

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Mesam Naqvi


नाम व अलक़ाब

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का नाम हज़रत पैगम्बर(स.) के नाम पर है। तथा आपकी मुख्य़ उपाधियाँ महदी मऊद ,इमामे अस्र ,साहिबुज़्ज़मान ,बक़ियातुल्लाह व क़ाइम हैं।

जन्म व जन्म स्थान

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 255हिजरी क़मरी मे शाबान मास की 15वी तिथि को सामर्रा नामक स्थान पर हुआ था। यह शहर वर्तमान समय मे इराक़ देश की राजधानी बग़दाद के पास स्थित है।

माता पिता

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम अस्करी अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत नरजिस खातून हैं।

पालन पोषण

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का पालन पोषण 5वर्ष की आयु तक आपके पिता की देख रेख मे हुआ। तथा इस आयु सीमा तक आप को सब लोगों से छुपा कर रखा गया। केवल मुख्य विश्वसनीय मित्रों को ही आप से परिचित कराया गया था।

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की इमामत

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की इमामत का समय सन् 260 हिजरी क़मरी से आरम्भ होता है। और इस समय आपकी आयु केवल 5वर्ष थी। हज़रत इमाम अस्करी अलैहिस्सलाम ने अपनी शहादत से कुछ दिन पहले एक सभा मे जिसमे आपके चालीस विश्वसनीय मित्र उपस्थित थे ,कहा कि मेरी शहादत के बाद वह (हज़रत महदी) आपके खलीफ़ा हैं। वह क़ियाम करने वाले हैं तथा संसार उनका इनतेज़ार करेगा। जबकि पृथ्वी पर चारों ओर अत्याचार व्याप्त होगा वह उस समय कियाम करेंगें व समस्त संसार को न्याय व शांति प्रदान करेंगें।

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की ग़ैबत(परोक्ष हो जाना)

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की ग़ैबत दो भागों मे विभाजित है।

(1)ग़ैबते सुग़रा

अर्थात कम समय की ग़ैबत यह ग़ैबत सन् 260 हिजरी क़मरी मे आरम्भ हुई और329 हिजरी मे समाप्त हुई। इस ग़ैबत की समय सीमा मे इमाम केवल मुख्य व्यक्तियों से भेंट करते थे।

(2)ग़ैबत कुबरा

अर्थात दीर्घ समय की ग़ैबत यह ग़ैबत सन् 329 हिजरी मे आरम्भ हुई व जब तक अल्लाह चाहेगा यह ग़ैबत चलती रहेगी। जब अल्लाह का आदेश होगा उस समय आप ज़ाहिर(प्रत्यक्ष) होंगे वह संसार मे न्याय व शांति स्थापित करेंगें।

नुव्वाबे अरबा

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम ने अपनी 69 वर्षीय ग़ैबते सुग़रा के समय मे आम जनता से सम्बन्ध स्थापित करने लिए बारी बारी चार व्यक्तियों को अपना प्रतिनिधि बनाया। यह प्रतिनिधि इमाम व जनता की मध्यस्था करते थे। यह प्रतिनिधि जनता के प्रश्नो को इमाम तक पहुँचाते व इमाम से उत्तर प्राप्त करके उनको जनता को वापस करते थे। इन चारों प्रतिनिधियो को इतिहास मे “नुव्वाबे अरबा ” कहा जाता है। यह चारों क्रमशः इस प्रकार हैं।

(1)उस्मान पुत्र सईद ऊमरी यह पाँच वर्षों तक इमाम की सेवा मे रहे।

(2)मुहम्मद पुत्र उस्मान ऊमरी यह चालीस वर्ष तक इमाम की सेवा मे रहे।

(3)हुसैन पुत्र रूह नो बखती यह इक्कीस वर्षों तक इमाम की सेवा मे रहे।

(4)अली पुत्र मुहम्मद समरी यह तीन वर्षों तक इमाम की सेवा मे रहे। इसके बाद से ग़ैबते सुग़रा समाप्त हो गई व इमाम ग़ैबते कुबरा मे चले गये।

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम सुन्नी विद्वानों की दृष्टि मे

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम मे केवल शिया सम्प्रदाय ही आस्था नही रखता है। अपितु सुन्नी सम्प्रदाय के विद्वान भी हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम को स्वीकार करते है। परन्तु हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के सम्बन्ध मे उनके विचारों मे विभिन्नता पाई जाती है। कुछ विद्वानो का विचार यह है कि हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम अभी पैदा नही हुए है व कुछ विद्वानो का विचार है कि वह पैदा हो चुके हैं और ग़ैबत मे(परोक्ष रूप से) जीवन यापन कर रहे हैं।

सुन्नी सम्प्रदाय के विभिन्न विद्वान अपने मतों को इस प्रकार प्रकट करते है।

(1)शबरावी शाफ़ाई अपनी किताब अल इत्तेहाफ़ मे इस प्रकार लिखते हैं कि शिया महदी मऊद के बारे मे विश्वास रखते हैं वह (हज़रत इमाम) हसन अस्करी के पुत्र हैं और अन्तिम समय मे प्रकट होगे। उनके सम्बन्ध मे सही हादीसे मिलती है। परन्तु सही यह है कि वह अभी पैदा नही हुए हैं और भविषय मे पैदा होगें तथा वह अहलेबैत मे से होंगें।

(2)इब्ने अबिल हदीद मोताज़ली शरहे नहजुल बलाग़ा मे इस प्रकार लिखते हैं कि अधिकतर मोहद्देसीन का विश्वास है कि महदी मऊद हज़रत फ़ातिमा के वंश से हैं।मोतेज़ला समप्रदाय के बुज़ुरगों ने उनको स्वीकार किया है तथा अपनी किताबों मे उनके नाम की व्याख्या की है। परन्तु हमारा विश्वास यह है कि वह अभी पैदा नही हुए हैं और बाद मे पैदा होंगें।

(3)इज़्ज़ुद्दीन पुत्र असीर 260 हिजरी क़मरी की घटनाओ का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि अबु मुहम्मदअस्करी (इमामे अस्करी) 232 हिजरी क़मरी मे पैदा हुए और 260 हिजरी क़मरी मे स्वर्गवासी हुए। वह मुहम्मद के पिता हैं जिनको शिया मुनतज़र कहते हैं।

(4)इमादुद्दीन अबुल फ़िदा इस्माईल पुत्र नूरूद्दीन शाफ़ई कहते है इमाम हादी का सन् 254 हिजरी क़मरी मे स्वर्गवास हुआ। वह इमाम हसन अस्करी के पिता थे। इमाम अस्करी बारह इमामों मे से ग्यारहवे इमाम हैं वह उन इमामे मुन्तज़र के पिता हैं जो 255 हिजरी क़मरी मे पैदा हुए।

(5)इब्ने हजरे हीतमी मक्की शाफ़ई अपनी किताब अस्सवाइक़ुल मोहर्रेक़ाह मे लिखते हैं कि इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम सामर्रा मे स्वर्गवासी हुए उनकी आयु 28 वर्ष थी। कहा जाता है कि उनको विष दिया गया। उन्होने केवल एक पुत्र छोड़ा जिनको अबुलक़ासिम मुहम्मद व हुज्जत कहा जाता है। पिता के स्वर्ग वास के समय उनकी आयु पाँच वर्ष थी । लेकिन अल्लाह ने उनको इस अल्पायु मे ही इमामत प्रदान की वह क़ाइमे मुन्तज़र कहलाये जाते हैं।

(6)नूरूद्दीन अली पुत्र मुहम्मद पुत्र सब्बाग़ मालकी अपनी किताब मे लिखते है कि इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम की इमामत दो वर्ष दो वर्ष थी ।उन्होने अपने बाद हुज्जत क़ाइम नामक एक बेटे को छोड़ा। जिनका सत्य पर आधारित शासन की स्थापना के लिए इंतिज़ार( प्रतीक्षा) किया जायेगा। उनके पिता ने लोगों से गुप्त रख कर उनका पालन पोषण किया। तथा ऐसा अब्बासी शासक के अत्याचार से बचने के लिए किया गया था। ,,

(7)अबुल अब्बास अहम पुत्र यूसुफ़ दमिश्क़ी क़रमानी अपनी किताब अखबारूद्दुवल वा आसारूल उवल की ग्यारहवी फ़स्ल मे लिखते हैं कि खलफ़े सालेह इमाम अबुल क़ासिम मुहम्मद इमाम अस्करी के बेटे हैं। जिनकी आयु उनके पिता के स्वर्गवास के समय केवल पाँच वर्ष थी। परन्तु अल्लाह ने उनको हज़रत याहिय की तरह बचपन मे ही हिकमत प्रदान की। वह मध्य क़द सुन्दर बाल सुन्दर नाक व चोड़े माथे वाले हैं।

इस से ज्ञात होता है कि इस सुन्नी विद्वान को हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के जन्म पर पूर्ण विश्वास था यहाँ तक कि उन्होने आपके शारीरिक विवरण का भी उल्लेख किया है। और खलफ़े सालेह की उपाधि के साथ उनका वर्णन किया है।

(8)हाफ़िज़ अबु अब्दुल्लाह मुहम्मद पुत्र य़ूसुफ़ कन्जी शाफ़ई अपनी किताब किफ़ायातुत तालिब के अन्तिम भाग मे लिखते हैं कि इमाम अस्करी सन् 260 हिजरी मे रबी उल अव्वल मास की आठवी तिथि को स्वर्गवासी हुए व उन्होने एक पुत्र छोड़ा जो इमामे मुन्तज़र हैं। ,,

(9)ख़वाजा पारसा हनफ़ी अपनी किताब फ़ज़लुल ख़िताब मे इस प्रकार लिखते हैं कि “अबु मुहम्द हसन अस्करी ने अबुल क़ासिम मुहम्मद मुँतज़र नामक केवल एक बेटे को अपने बाद इस संसार मे छोड़ा जो हुज्जत क़ाइम व साहिबुज़्ज़मान से प्रसिद्ध हैं। वह 255 हिजरी क़मरी मे शाबान मास की 15 वी तिथि को पैदा हुए व उनकी माता नरजिस थीं। ,,

(10)इब्ने तलहा कमालुद्दीन शाफ़ई अपनी किताब मतालिबुस्सऊल फ़ी मनाक़िबिर रसूल मे लिखते हैं कि “अबु मुहम्मद अस्करी के मनाक़िब (स्तुति या प्रशंसा) के बारे इतना कहना ही अधिक है कि अल्लाह ने उनको महदी मऊद का पिता बनाकर सबसे बड़ी श्रेष्ठता प्रदान की हैं। वह आगे लिखते हैं कि महदी मऊद का नाम मुहम्मद व उनकी माता का नाम सैक़ल है। महदी मऊद की अन्य उपाधियाँ हुज्जत खलफ़े सालेह व मुँतज़र हैं। ,,

(11)शम्सुद्दीन अबुल मुज़फ़्फ़र सिब्ते इब्ने जोज़ी अपनी प्रसिद्ध किताब तज़किरातुल ख़वास मे लिखते हैं “कि मुहम्मद पुत्र हसन पुत्र अली पुत्र मुहम्मद पुत्र अली पुत्र मूसा पुत्र जाअफ़र पुत्र मुहम्मद पुत्र अली पुत्र हुसैन पुत्र अली इब्ने अबी तालिब की कुन्नियत अबुल क़ासिम व अबु अबदुल्लाह है। वह खलफ़े सालेह ,हुज्जत ,साहिबुज्जमान ,क़ाइम ,मुन्तज़र व अन्तिम इमाम हैं।अब्दुल अज़ीज़ पुत्र महमूद पुत्र बज़्ज़ाज़ ने हमको सूचना दी है कि इब्ने उमर ने कहा कि हज़रत पैगम्बर ने कहा कि अन्तिम समय मे मेरे वंश से एक पुरूष आयेगा जिसका नाम मेरे नाम के समान होगा व उसकी कुन्नियत मेरी कुन्नियत के समान होगी। वह संसार से अत्याचार समाप्त करके न्याय व शाँति की स्थापना करेगा। यही वह महदी हैं। ,,

(12)अबदुल वहाब शेरानी शाफ़ई मिस्री अपनी प्रसिद्ध किताब अल यवाक़ीत वल जवाहिर मे हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के सम्बन्ध मे लिखते हैं कि वह इमाम हसन की संतान है उनका जन्म सन् 255 हिजरी क़मरी मे शाबान मास की 15वी तिथि को हुआ। वह ईसा पुत्र मरीयम से भेँट करेगें व जीवित रहेगें। हमारे समय (किताब लिखने का समय) मे कि अब 958 हिजरी क़मरी है उनकी आयु 706 वर्ष हो चुकी है।

हज़रत हुज्जत (अ.स.) के कथन

१. मेरा वुजूद (अस्तित्व) ग़ैबत में भी लोगों के लिए ऐसा ही मुफ़ीद (लाभकारी) है जैसे आफ़ताब (सूर्य) बादलों के ओट (पीछे) से।

२. मैं ही महदी हूँ मैं ही क़ायमे ज़माना हूँ।

३. मैं ज़मीन को अद्ल (न्याय) व इन्साफ़ से इस तरह भर दूँगा जिस तरह वह ज़ुल्म व जौरर से भर गई है।

४. जो चीज़ तुम्हारे लिये मुफ़िद (लाभकारी) न हो उसके लिये सवाल (प्रशन) मत करो।

५. ज़ुहूर (प्रकटता) में ताजील (शिघ्रता) के लिये दुआ (प्रथना) माँगों क्योंकि उसी में तुम्हारी भलाई है।

६. जो लोग हमारे अमवाल (अमल का बहु वचन) को मुशतबा और मख़लूत (मिलाये हुए) किये हुए हैं जो कोई भी उसमें से ज़र्रा बराबर बिला इस्तहक़ाक (बग़ैर हक़ के) खोयेगा गोया उसने आग से अपना शिकम पुर किया ( पेट भर लिया) ।

७. मैं अहले ज़मीन (धरती पर रहने वालों) के लिये उसी तरह बायसे अमान (शान्ति का कारण) हूँ जिस तरह सितारे अहले आसमान (आसमान पर रहने वालों) के लिये।

८. हमारा इल्म तुम्हारे सारे हालात पर मोहीत (घेरे हुए) है और तुम्हारी कोई चीज़ हम से पोशीदा (छीपी) हुई नहीं।

९. हम तुम्हारी ख़बरगीरी (देखरेख) से ग़ाफ़िल (बेपरवाह) नहीं और न तुम्हारी याद को अपने दिल से निकाल सकते हैं।

१०. हर वह काम करो जो तुम्हें हम से नज़दीक (क़रीब) करे और हर उस अमल से परहेज़ करो (बचो) जो हमारे लिये बारे ख़ातिर और नाराज़गी का सबब हो।

११. तुममे से जो कोई तक़वा ए इलाही (ईशवर का भय) इख़्तेयार (अपनायेगा) करेगा और मुस्तहक़ (हक़दार) तक उसके हुक़ूक़ (हक़ का बहु वचन) पहुँचायेगा वह आने वाले फ़ित्नों (झगड़ों) से महफ़ूज़ रहेगा (बचा रहेगा) ।

१२. अगर हमारे चाहने वाले अपने अहद व पैमान की वफ़ा करते तो हमारी मुलाक़ात में ताख़ीर (देर) न होती और हमारी ज़ियारत उन्हें जल्द नसीब होती.

१३. हमें तुमसे कोई चीज़ दूर नहीं करती मगर वह जो हमें नागवार और नापसन्द है।

१४. हम तुम्हारे अमवाल (माल का बहु वचन ,यह ख़ुम्स की ओर इशारा है) को सिर्फ़ इसलिए क़ुबूल (स्वीकार) करते हैं के तुम पाक हो जाओ हमें जिसका जो चाहे अदा करे जो चाहे अदा न करे क्योंकि जो कुछ ख़ुदावन्दे आलम ने हमें अता फ़रमाया (दिया) है वह उससे बेहतर है जो तुम्हें दिया है।

१५. नमाज़ शैतान को रूसवा (निंदित) कर देती है। नमाज़ पढ़ो और शैतान को रूसवा करो।

१६. जो मेरा इन्कार करे वह मुझसे नहीं और उसका अन्जाम पिसरे नूह (नूह जो नबी थे उनका पुत्र) का अन्जाम है।

१७. मसाएल में हमारे रावियों की तरफ़ रूजु करो क्योंकि वह मेरी तरफ़ से तुम पर हुज्जत (तर्क ,दलील) हैं।

१८. ताज्जुब है उन लोगों की नमाज़ कैसे क़ुबूल होती है जो इन्ना अन्ज़ल्ना की तिलावत नहीं करते (नहीं पढ़ते)।

१९. नमाज़ के लिये जिन सूरतों के फ़ज़ाएल बयान किये गये हैं वह अपनी जगह पर अलबत्ता अगर कोई शख़्स सूरा ए इन्ना अन्ज़लना और सुरा ए क़ुल हो वल्लाह की तिलावत करे तो उसे इन सूरतों का सवाब भी मिलेगा और जिन सूरतों के बदले पढ़ेगा उसका भी।

२०. मलऊन है मलऊन है वह शख़्स जो नमाज़े मग़रिब में इतनी ताख़ीर (देर) करे के तारे ख़ूब खिल जायें।

२१. हमारे अलावा जिसने अपनी हक़्क़ानियत (सच्चाई) का दावा किया वह झूठा है।

२२. क्या लोग यह बात नहीं जानते के नबी (अ.स.) के बाद उनकी हिदायत (मार्ग दर्शन) के लिये आइम्मा (अ.स.) का इन्तेज़ाम (प्रबन्ध) किया गया है।

२३. यह लोग कैसे फ़ित्ने (झगड़े) में घिर गये हैं क्या उन्होंने अपने दीन को छोड़ दिया है।

२४. यह लोग हक़ से क्यों अनाद (दुश्मनी) रखते हैं क्या हक़ को पहचानने के बाद उसे भुला दिया है।

२५. क्या तुम नहीं जानते के ज़मीन कभी हुज्जते ख़ुदा (ईशवरीय तर्क ,दलील) से ख़ाली नहीं रहती।

२६. तमाम (सभी) लोग यह बात समझ लें के हक़ हमारे साथ है और हम में है।

२७. मैं रूए ज़मीन पर बक़िय्यतुल्लाह (ईशवरीय चिन्ह) हूँ और दुश्मनाने ख़ुदा (ईशवर के शत्रु) से इन्तेक़ाम (बदला) लूँगा।

२८. जो लोग मेरे ज़ुहूर (प्रकटता) के लिये वक़्त (समय) मोअय्यन (निर्धारित) करते हैं वह झूठे हैं.

२९. छींक का आना मौत से कम से कम 3दिन की ज़मानत है।

३०. मैं ख़ातिमुल औलिया हूँ और मेरे ज़रिये ख़ुदावन्दे आलम मेरे चाहने वालों को बलाओं से निजात (मुक्ति) देगा।

३१. ख़ुदावन्दे आलम ने यह दुनिया बेकार नहीं पैदा की है।

३२. ख़ुदावन्दे आलम ने जिन्हें हिदायत (निर्देश) का ज़रिया बनाया है उनको फ़ज़ीलत भी दी है।

३३. ख़ालिके कायनात (संसार को पैदा करने वाला) ने अपने औलिया (वली का बहु वचन) के ज़रिये दीन को ज़िन्दा किया।

३४. आइम्मा (अ.स.) को हर गुनाह (प्रत्येक पाप) से पाक और हर बुराई से दूर रखा है।

३५. औलिया इल्म के ख़ज़ाने और हिकमत (दानाई) का मअदन (खान) हैं।

३६. जो इमामत के झूठे दावेदार होंगे उनका नक़्स (कीना) बहुत जल्द मालूम हो जायेगा।

३७. जब हुक्मे ख़ुदा होगा हक़ ज़ाहिर होगा और बातिल मिट जायेगा।

३८. (दादी) फ़ातिमा ज़हरा (स 0)की ज़िन्दगी हमारे लिये नमूना है।

३९. ख़ुदा हम सब का वली (सहायक) है।

४०. जिसने हमारे नुमायन्दे को रद किया उसने गोया मुझे रद्द किया।

।।अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद व अज्जिल फ़राजहुम।।

۰ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 02 March 16 ، 13:30
Mesam Naqvi


नाम व लक़ब (उपाधी)

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम का नाम अली व आपकी मुख्य उपाधि रिज़ा है।

 

माता पिता

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत नजमा थीं। आपकी माता को समाना, तुकतम, व ताहिराह भी कहा जाता था।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 148 हिजरी क़मरी मे ज़ीक़ादाह मास की ग्यारहवी तिथि को पवित्र शहर मदीने मे हुआ था।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ज़माने के राजनीतिक हालात का वर्णन

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की इमामत वाला जीवन बीस साल का था जिसको हम तीन भागों में बांट सकते हैं।

1. पहले दस साल हारून के ज़माने में

 

2. दूसरे पाँच साल अमीन की ख़िलाफ़त के ज़माने में

 

3. आपकी इमामत के अन्तिम पाँच साल मामून की ख़िलाफ़त के साथ थे।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का कुछ जीवन हारून रशीद की ख़िलाफ़त के साथ था, इसी ज़माने में अपकी पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत हुई, इस ज़माने में हारून शहीद को बहुत अधिक भड़काया गया ताकि इमाम रज़ा को वह क़त्ल कर दे और अन्त में उसने आपको क़त्ल करने का मन बना लिया, लेकिन वह अपने जीवन में यह कार्य नहीं कर सका, हारून शरीद के निधन के बाद उसका बेटा अमीन ख़लीफ़ा हुआ, लेकिन चूँकि हारून की अभी अभी मौत हुई थी और अमीन स्वंय सदैव शराब और शबाब में लगा रहता था इसलिए हुकुमत अस्थिर हो गई थी और इसीलिए वह और सरकारी अमला इमाम पर अधिक ध्यान नहीं दे सका, इसी कारण हम यह कह सकते हैं कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन का यह दौर काफ़ी हद तक शांतिपूर्ण था।

लेकिन अन्तः मामून ने अपने भाई अमीन की हत्या कर दी और स्वंय ख़लीफ़ा बन बैठा और उसने विद्रोहियों का दमन करके इस्लामी देशों के कोने कोने में अपना अदेश चला दिया, उसने इराक़ की हुकूमत को अपने एक गवर्नर के हवाले की और स्वंय मर्व में आकर रहने लगा, और राजनीति में दक्ष फ़ज़्ल बिन सहल को अपना वज़ीर और सलाहकार बनाया।

लेकिन अलवी शिया उसकी हुकूमत के लिए एक बहुत बड़ा ख़तरा थे क्योंकि वह अहलेबैत के परिवार वालों को ख़िलाफ़त का वास्तविक हक़दार मसझते थे और, सालों यातना, हत्या पीड़ा सहने के बाद अब हुकूमत की कमज़ोरी के कारण इस स्थिति में थे कि वह हुकूमत के विरुद्ध उठ खड़े हों और अब्बासी हुकूमत का तख़्ता पलट दें और यह इसमें काफ़ी हद तक कामियाब भी रहे थे, और इसकी सबसे बड़ी दलील यह है कि जिस भी स्थान से अलवी विद्रोह करते थे वहां की जनता उनका साथ देती थी और वह भी हुकूमत के विरुद्ध उठ खड़ी होती थी।  और यह दिखा रहा था कि उस समय की जनता हुकूमत के अत्याचारों से कितनी त्रस्त थी।

और चूँकि मामून ने इस ख़तरे को भांप लिया था इसलिए उसने अलवियों के इस ख़तरे से निपटने के लिए और हुकूमत को कमज़ोर करने वालों कारणों से निपटने के लिये कदम उठाने का संकल्प लिया उसने सोच लिया था कि अपनी हुकूमत को शक्तिशाली करेगा और इसीलिये उसने अवी वज़ीर फ़ज़्ल से सलाह ली और फ़ैसला किया कि अब धोखे बाज़ी से काम लेगा, उसने तै किया कि ख़िलाफ़ को इमाम रज़ा को देने का आहवान करेगा और ख़ुद ख़िलाफ़त से अलग हो जाएगा।

उसको पता था कि ख़िलाफ़ इमाम रज़ा के दिये जाने का आहवान का दो में से कोई एक नतीजा अवश्य निकलेगा, या इमाम ख़िलाफ़त स्वीकार कर लेंगे, या स्वीकार नहीं करेंगे, और दोनों सूरतों में उसकी और अब्बासियों की ख़िलाफ़त की जीत होगी।

क्योंकि अगर इमाम ने स्वीकार कर लिया तो मामून की शर्त के अनुसार वह इमाम का वलीअह्द या उत्तराधिकारी होता, और यह उसकी ख़िलाफ़त की वैधता की निशानी होता और इमाम के बाद उसकी ख़िलाफ़त को सभी को स्वीकार करना होता। और यह स्पष्ट है कि जब वह इमाम का उत्तराधिकारी हो जाता तो वह इमाम को रास्ते से हटा देता और शरई एवं क़ानूनी तौर पर हुकूमत फिर उसको मिल जाती, और इस सूरत में अलवी और शिया लोग उसकी हुकूमत को शरई एवं क़ानूनी समझते और उसको इमाम के ख़लीफ़ा के तौर पर स्वीकार कर लेते, और दूसरी तरफ़ चूँकि लोग यह देखते कि यह हुकूमत इमाम की तरफ़ से वैध है इसलिये जो भी इसके विरुद्ध उठता उसकी वैधता समाप्त हो जाती।

उसने सोंच लिया था (और उसको पता था कि इमाम को उसकी चालों के बारे में पता होगा) कि अगर इमाम ने ख़िलाफ़त के स्वीकार नहीं किया तो वह इमाम को अपना उत्तराधिकारी बनने पर विवश कर देगा, और इस सूरत में भी यह कार्य शियों की नज़रों में उसकी हुकूमत के लिए औचित्य बन जाएगा, और फ़िर अब्बासियों द्वारा ख़िलाफ़त को छीनने के बहाने से होने वाले एतेराज़ और विद्रोह समाप्त हो जाएगे, और फिर किसी विद्रोही का लोग साथ नहीं देंगे।

और दूसरी तरफ़ उत्तराधिकारी बनाने के बाद वह इमाम को अपनी नज़रों के सामने रख सकता था और इमाम या उनके शियों की तरफ़ से होने वाले किसी भी विद्रोह का दमन कर सकता था, और उसने यह भी सोंच रखा थी कि जब इमाम ख़िलाफ़त को लेने से इन्कार कर देंगे तो शिया और उसने दूसरे अनुयायी उनके इस कार्य की निंदा करेंगे और इस प्रकार दोस्तों और शियों के बीच उनका सम्मान कम हो जाएगा।

मामून ने सारे कार्य किये ताकि अपनी हुकूमत को वैध दर्शा सके और लोगों के विद्रोहों का दमन कर सके, और लोगों के बीच इमाम और इमामत के स्थान को नीचा कर सके लेकिन कहते हैं न कि अगर इन्सान सूरज की तरफ़ थूकने का प्रयत्न करता है तो वह स्वंय उसके मुंह पर ही गिरता है और यही मामून के साथ हुआ, इमाम ने विवशता में उत्तराधिकारी बनना स्वीकार तो कर लिया लेकिन यह कह दिया कि मैं हुकूमत के किसी कार्य में दख़ल नहीं दूँगा, और इस प्रकार लोगों को बता दिया कि मैं उत्तराधिकारी मजबूरी में बना हूँ वरना अगर मैं सच्चा उत्तराधिकारी होता तो हुकूमत के कार्यों में हस्तक्षेप भी अवश्य करता। और इस प्रकार मामून की सारी चालें धरी की धरी रह गईं

 

हज़रत इमाम रिज़ा की ईरान यात्रा

अब्बासी खलीफ़ा हारून रशीद के समय मे उसका बेटा मामून रशीद खुरासान(ईरान) नामक प्रान्त का गवर्नर था। अपने पिता की मृत्यु के बाद उसने अपने भाई अमीन से खिलाफ़त पद हेतु युद्ध किया जिसमे अमीन की मृत्यु हो गयी। अतः मामून ने खिलाफ़त पद प्राप्त किया व अपनी राजधीनी को बग़दाद से मरू (ईरान का एक पुराना शहर) मे स्थान्तरित किया। खिलाफ़त पद पर आसीन होने के बाद मामून के सम्मुख दो समस्याऐं थी। एक तो यह कि उसके दरबार मे कोई उच्च कोटी का आध्यात्मिक विद्वान न था। दूसरी समस्या यह थी कि मुख्य रूप से हज़रत अली के अनुयायी शासन की बाग डोर इमाम के हाथों मे सौंपने का प्रयास कर रहे थे, जिनको रोकना उसके लिए आवश्यक था। अतः उसने इन दोनो समस्याओं के समाधान हेतू बल पूर्वक हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम को मदीने से मरू (ईरान ) बुला लिया। तथा घोषणा की कि मेरे बाद हज़रत इमाम रिज़ा मेरे उत्तरा धिकारी के रूप मे शासक होंगे। इससे मामून का अभिप्राय यह था कि हज़रत इमाम रिज़ा के रूप मे संसार के सर्व श्रेष्ठ विद्वान के अस्तित्व से उसका दरबार शुशोभित होगा। तथा दूसरे यह कि इमाम के उत्तराधिकारी होने की घोषणा से शियों का खिलाफ़त आन्दोलन लगभग समाप्त हो जायेगा या धीमा पड़ जायेगा।

 

इमाम रज़ा अ.स. ने मामून की वली अहदी क्यु क़ुबूल की?

अकसर लोगों के दरमियान सवाल उठता है कि अगर अब्बासी खि़लाफ़त एक ग़ासिब हुकूमत थी तो आखि़र हमारे आठवें इमाम ने इस हुकूमत में मामून रशीद ख़लिफ़ा की वली अहदी या या उत्तरधिकारिता क्यूं कु़बूल की?

इस सवाल के जवाब में हम यहां चन्द बातें पेश करतें हैं कि जिनके पढ़ने के बाद हमारे सामने यह बातें इस तरह साफ़ हो जायेगी जैसे हाथ की पांच उंगलियों की गिनती ।

जनाब मेहदी पेशवाई अपनी किताब सीमाये पीशवायान में इमाम रज़ा के मामून के उत्तराधिकारी बनने के कारण इस तरह लिखते हैः

1. इमाम रज़ा ने मामून के उत्तराधिकारी बनने को उस समय कु़बूल किया कि जब देखा कि अगर आप मामून की बात न मानेंगे तो ख़ुद अपनी जान से भी हाथ धो बैठेगें और साथ ही साथ शियों की जान भी ख़तरे में पड़ जायेगी अब इमाम ने अपने उपर लाज़िम समझा कि ख़तरे को ख़ुद और अपने शियों से दूर करे।

2. इमाम रज़ा का उत्तराधिकारी बनाया जाना भी एक तरह से अब्बासियों का यह मानना भी था कि अलवी (शिया) भी हुकूमत में एक बड़ा हिस्सा रखते हैं।

3. उत्तराधिकारीता क़ुबूल करने की दलीलों में से एक यह भी है लोग ख़ानदाने पैग़म्बर को सियासत के मैदान में हाज़िर समझे और यह गुमान न करे कि ख़ानदानें पैग़म्बर सिर्फ़ उलेमा व फ़ोक़हा है और यह लोग सियासत के मैदान में बिल्कुल नहीं है।

शायद इमाम रज़ा ने इब्ने अरफ़ा के सवाल के जवाब में इसी मतलब की तरफ़ इशारा किया है कि जब इब्ने अरफ़ा ने इमाम से पूछा कि ऐ रसूले ख़ुदा के बेटे आप किस कारण से मामून के उत्तराधिकारी बनें?

तो इमाम ने जवाब दियाः उसी कारण से कि जिसने मेरे जद अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को शूरा में दाखि़ल किया था।

4. इमाम ने अपने उत्तराधिकारीता के दिनों में मामून का असली चेहरा तमाम लोगों के सामने बेनक़ाब कर दिया था और उसकी नियत व मक़सद को उन कामों से कि जिन्हें वो अन्जाम दे रहा था, सब के सामने ला कर लोगों के दिलों से हर शक व शुब्हे को निकाल दिया था। (सीमाये पीशवायान)

 

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम और ईद की नमाज़

मामून ने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से ईद की नमाज़ पढ़ाने के लिए कहा। इसके पीछे मामून का लक्ष्य यह था कि लोग इमाम रज़ा के महत्व को पहचानें और उनके दिल शांत हो जायें परंतु आरंभ में इमाम ने ईद की नमाज़ पढ़ाने हेतु मामून की बात स्वीकार नहीं की पंरतु जब मामून ने बहुत अधिक आग्रह किया तो इमाम ने उसकी बात एक शर्त के साथ स्वीकार कर ली। इमाम की शर्त यह थी कि वह पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शैली में ईद की नमाज़ पढ़ायेंगे। मामून ने भी इमाम के उत्तर में कहा कि आप स्वतंत्र हैं आप जिस तरह से चाहें नमाज़ पढ़ा सकते हैं।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे इस्लाम की भांति नंगे पैर घर से बाहर निकले और उनके हाथ में छड़ी थी। जब मामून के सैनिकों एवं प्रमुखों ने देखा कि इमाम नंगे पैर पूरी विनम्रता के साथ घर से बाहर निकले हैं तो वे भी घोड़े से उतर गये और जूतों को उतार कर वे भी नंगे पैर हो गये और इमाम के पीछे पीछे चलने लगे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम हर १० क़दम पर रुक कर तीन बार अल्लाहो अकबर कहते थे। इमाम के साथ दूसरे लोग भी तीन बार अल्लाहो अकबर की तकबीर कहते थे। मामून इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के इस रोब व वैभव को देखकर डर गया और उसने इमाम को ईद की नमाज़ पढ़ाने से रोक दिया। इस प्रकार वह स्वयं अपमानित हो गया।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का ज्ञान

मामून जो कि इमाम की तरफ़ लोगो की बढ़ती हुई मोहब्बत और लोगों के बीच आपके सम्मान को देख रहा था और आपके इस सम्मान को कम करने और लोगों के प्रेम में ख़लल डालने के लिए उसने बहुत से कार्य किये और उन्हीं कार्यों में से एक इमाम रज़ा और विभिन्न विषयों के ज्ञानियों के बीच मुनाज़ेरा और इल्मी बहसों की बैठकों का जायोजन है, ताकि यह लोग इमाम से बहस करें और अगर वह किसी भी प्रकार से इमाम को अपनी बातों से हरा दें तो यह मामून की बहुत बड़ी जीत होगी और इस प्रकार लोगों के बीच आपकी बढ़ती हुई लोकप्रियता को कम किया जा सकता था, इस लेख में हम आपके सामने इन्हीं बैठकों में से एक के बारे में बयान करेंगे और इमाम रज़ा (अ) के उच्च कोटि के ज्ञान को आपके सामने प्रस्तुत करेंगे।

मामून ने एक मुनाज़रे के लिए अपने वज़ीर फ़ज़्ल बिन सहल को आदेश दिया कि संसार के कोने कोने से कलाम और हिकमत के विद्वानों को एकत्र किया जाए ताकि वह इमाम से बहस करें।

फ़ज़्ल ने यहूदियों के सबसे बड़े विद्वान उसक़ुफ़ आज़मे नसारी, सबईयों ज़रतुश्तियों के विद्वान और दूसरे मुतकल्लिमों को निमंत्रण भेजा, मामून ने इस सबको अपने दरबार में बुलाया और उनसे कहाः मैं चाहता हूँ कि आप लोग मेरे चचा ज़ाद (मामून पैग़म्बरे इस्लाम के चचा अब्बास की नस्ल से था जिस कारण वह इमाम रज़ा (अ) को अपना चचाज़ाद कहता था) से जो मदीने आया है बहस करो।

दूसरे दिन बैठक आयोजित की गई और एक व्यक्ति को इमाम रज़ा (अ) को बुलाने के लिये भेजा, आपने उसके निमंत्रण को स्वीकार कर लिया और उस व्यक्ति से कहाः क्या जानना चाहते को कि मामून अपने इस कार्य पर कब लज्जित होगा? उसने कहाः हाँ। इमाम ने फ़रमायाः जब मैं तौरैत के मानने वालों को तौरैत से इंजील के मानने वालों को इंजील से ज़बूर के मानने वालों को ज़बूर से साबईयों को उनकी भाषा में ज़रतुश्तियों को फ़ारसी भाषा में और रूमियों को उनकी भाषा में उत्तर दूँगा, और जब वह देखेगा कि मैं हर एक की बात को ग़लत साबित करूंगा और सब मेरी बात मान लेंगे उस समय मामून को समझ में आएगा कि वह जो कार्य करना चाहता है वह उसके बस की बात नहीं है और वह लज्जित होगा

फिर आप मामून की बैठक में पहुँचे, मामून ने आपका सबसे परिचय कराया और फिर कहने लगाः मैं चाहता हूँ कि आप लोग इनसे इल्मी बहस करें, आपने भी उस तमाम लोगों को उनकी ही किताबों से उत्तर दिया, फिर आपने फ़रमायाः अगर तुम में से कोई इस्लाम का विरोधी है तो वह बिना झिझक प्रश्न कर सकता है। इमरान साबी जो कि एक मुतकल्लिम था उसने इमाम से बहुत से प्रश्न किये और आपने उसे हर प्रश्न का उत्तर दिया और उसको लाजवाब कर दिया, उसने जब इमाम से अपने प्रश्नों का उत्तर सुना तो वह कलमा पढ़ने लगा और इस्लाम स्वीकार कर लिया, और इस प्रकार इमाम की जीत के साथ बैठक समाप्त हुई।

रजा इब्ने ज़हाक जो मामून की तरफ़ से इमाम को मदीने से मर्व की तरफ़ जाने के लिये नियुक्त था कहता हैः इमाम किसी भी शहर में प्रवेश नहीं करते थे मगर यह कि लोग हर तरफ़ से आपकी तरफ़ दौड़ते थे और अपने दीनी मसअलों को इमाम से पूछते थे, आप भी लोगों को उत्तर देते थे, और पैग़म्बर की बहुत सी हदीसों को बयान फ़रमाते थे। वह कहता है कि जब मैं इस यात्रा से वापस आया और मामून के पास पहुंचा तो उसने इस यात्रा में इमाम के व्यवहार के बारे में प्रश्न किया मैंने जो कुछ देखा था उसको बता दिया। तो मामून कहता हैः हां हे ज़हाक के बेटे, आप (इमाम रज़ा) ज़मीन पर बसने वाले लोगों में सबसे बेहतरीन, सबसे ज्ञानी और इबादत करने वाले हैं

 

हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के कथन

१. जब लोग नये नये गुनाहों का इरतेकाब (करना) शुरू कर देंगे तो ख़ुदावन्दे आलम (ईशवर) भी उन्हें नई नई बलाओं (आपत्तियों) में मुबतला करेगा (डालेगा) ।

२. माँ बाप को मोहब्बत भरी निगाहों से देखना इबादत (तपस्या) है।

३. ख़ुशबख़्त वह शख़्स है जो दूसरों की सरगुज़श्त (गुज़रा हुआ) से इब्रत (वह मानसिक खेद जो किसी आदमी को बुरी अवस्था में देखकर होता है) हासिल करे।

४. तुम्हारे अच्छे काम वह हैं जो आख़ेरत (परलोक) को सँवारें।

५. बेहतरीन कारे ख़ैर (अच्छा कार्य) वह है जो दाएमी (हमेशा) हो अगरचे कम हो।

६. जो किसी हाजत मन्द (माँगने वालों) की हाजत रवा (पूरा) करे ख़ुदावन्दे आलम उसके दुनिया व आख़ेरत (परलोक) दोनों आसान करेगा।

७. नेक ओमूर (अच्छे काम) में जल्दी करो ताकि कामयाब रहो (याद रखो) नेक कामों से उम्र (आयु) में बरकत होती है।

८. जो बुज़ुर्गों का एहतेराम (आदर) और ख़ुर्दों (छोटो) पर रहम न करे वह मुझ से नहीं।

९. बख़ील (कंजूस) लोगों की हमनशीनी (संगत) मत इख़्तेयार (ग्रहण) करो क्योंकि जब तुम उनके मोहताज होगे (तो) वह तुम से दूर भागेगा।

१०. जो तकब्बुर (घमण्ड) करेगा वह बेतुका फ़ख़्र करेगा उसे ज़िल्लत के सिवा कुछ और हासिल न होगा।

११. अपने राज़ को सिर्फ़ क़ाबिले ऐतमाद (भरोसेमन्द) लोगों से बताओ।

१२. इल्म से बेहतर कोई ख़ज़ाना नहीं और बुर्दबारी से बेहतर कोई इज़्ज़त नहीं।

१३. अपने दोस्तों और दुश्मनों सबके मामेलात में इन्साफ़ (न्याय) का ख़्याल ज़रूर रखना।

१४. नेक काम अन्जाम दो ताकि क़यामत के दिन नेक जज़ा (इनाम) मिले ।

१५. दुनिया की गुज़रगाह से अपने दाएमी घर (आख़ेरत)के लिए तोशा (सामग्री) लेते चलो ।

१६. किसी भी काम के लिए अव्वले वक़्त नमाज़ तर्क ना करो।

१७. जो अक़्लमन्दों से मश्विरा (परामर्श) करता है गुमराह (ईश्वरीय मार्ग से भटकना) नहीं होता।

१८. ख़ुदावन्दे आलम (ईश्वर) नें गुनाहों (पापों) और बुराईयों पर क़ुफ़्ल (तालें) लगा दिये हैं और उनकी कुँजी शराब और झूट उससे भी बदतर है ।

१९. ख़ानदान वालों से राब्ता (सम्बन्ध) हमेशा (सदैव) ताज़ा रख़ो अगरचे सिर्फ़ सलाम ही से हो ।

२०. माँ बाप को नाराज़ करने से उम्र (आयु) कोताह (कम) हो जाती है ।

२१. कभी अपने दीनी भाई से जेदाल (लड़ाई) या (हद से ज़्यादा) मेज़ाह (मज़ाक़) न करो और उनसे झूठे वादे मत करो ।

२२. नियाज़ मन्दी और हाजत (ऐसी बला है कि) होशियार से होशियार आदमी को भी दलील व बुर्हान (सुबूत) से रोक देती है ।

२३. अमानत (धरोहर) को अपने मालिक की तरफ़ वापिस करो चाहे वो नेक हो या बद ।

२४. हमेंशा अपनी ज़बान और अपनें हाथों से अम्र बिल मारूफ़ (अच्छाई का आदेश) व नहीं अनिल मुन्कर (बुराई से रोकना) करते रहो और अपने छोटे से छोटे गुनाह (पाप) कम ना समझो ।

२५. आज जबकि तुम्हारा क़द व क़ामत सलामत ,ख़ून गर्म और दिल बेदार हे तो आने वाली सख़्तियों के लिए ख़ूब फ़िक्र (सोच विचार) कर लो ।

२६. अच्छे अख़्लाक़ वाला इन्सान वह है जिससे किसी का दिल न दुखा हो ।

२७. हर शख़्स का दोस्त उसका इल्म (ज्ञान) है दुश्मन उसकी जेहालत (अज्ञानता) ।

२८. मुझे वह दस्तरख़्वान पसन्द नहीं जिस पर सब्ज़ी न हो ।

२९. जो ज़ुबान से अस्तग़फ़ार (प्रायश्चित) करे और दिल से अपने गुनाहों से पशेमान (शर्मिन्दगी) न हो वह गोया अपने साथ मज़ाक़ कर रहा है ।

३०. ज़रुरी है कि तुम हमेशा मोहज़्जब (सभ्य) लोगों से इरतेबात (सम्बन्ध) रखो ।

३१. ज़माना तुम्हारी ज़िन्दगी की डायरी है इसलिए इसमें नेक आमाल (अच्छे कार्य) दर्ज करो (लिखो)।

३२. आलिम (ज्ञानी) मरने के बाद (म्रत्यु पश्चात) भी ज़िन्दा (जिवित) रहता है जाहिल (अज्ञानी) ज़िन्दगी ही में मुर्दा है।

३३. बुरे कामों से बचना नेक कामों की अन्जाम देही (के करने) से बेहतर है।

३४. जब तक भूक न हो दस्तरख़ान पर मत बैठो और शिकम (पेट) सेर होने (भरने) से पहले दस्तरख़ान छोड़ दो।

३५. बीमारों को जब उनका दिल माएल (मन न चाहे) न हो ज़बर्दस्ती ग़िज़ा (खाना) मत दो।

३६. मसर्रत (ख़ुशी) व शादमानी तीन चीज़ों से हासिल होती है , 1.मुवाफ़िक़ शरीके हयात (अपने मिजाज़ की पत्नि) , 2.नेक औलाद , 3.अच्छे दोस्त।

३७. आरज़ू (इच्छा) ख़त्म होने वाली चीज़ नहीं और मौत को भी भुलाये रखती है।

३८. सूद बदतरीन महसूल (जो प्राप्त हुआ हो) है और माले यतीम (जिसके पिता न हों) खाना बदतरीन ग़िज़ा है।

३९. ख़ुदावन्दे आलम सख़ी (बाँटने वाला) है और सख़ी (ईशवरीय इच्छा हेतु बाँटना) को पसन्द करता है।

४०. वाजेबात (जो कार्य ईशवर हेतु अवश्य करना होता है) के बाद ख़ुदावन्दे आलम के नज़दीक़ बेहतरीन काम लोगों को मसर्रत (ख़ुश करना) पहुँचाना है।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 203 हिजरी क़मरी मे सफर मास की अन्तिम तिथि को हुई। जिस दिन इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम शहीद होने वाले थे उस दिन उन्होंने सुबह की नमाज़ नए वस्त्र पहन कर पढ़ी और उसी स्थान पर बैठे रहे मानो उन्हे किसी अप्रिय घटना के होने का आभास हो गया था। उस दिन उनका चेहरा हर दिन से अधिक दमक रहा था। उनकी आंखे ईश्वर के प्रति अथाह श्रृद्धा का पता दे रही थीं कि अचानक मामून का संदेशवाहक घर के द्वार पर पहुंचा और उसने कहा कि मामून ख़लीफ़ा ने अबुल हसन को बुलाया है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उसके साथ चल पड़े। मामून इमाम के स्वागत के लिए निकला और इमाम को अपने विशेष स्थान की ओर ले गया और दोनों लोग आमने सामने बैठ गए किन्तु मामून की आंखें कुछ और ही कह रहीं थीं। उसकी दुस्साहस भरी दृष्टि इस बात का पता दे रही थी कि वह इस समय क्या करना चाह रहा है। मामून जानता था कि उसके समस्त हत्कण्डे, इमाम के प्रति लोगों की श्रृद्धा को न कम कर सके और न ही उसकी सरकार के लिए लाभदायक सिद्ध हुए। वह इस बात से भलिभांति अवगत था कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम, अत्याचार और आत्महित को स्वीकार नहीं करेंगे और जब तक सूर्य की भांति इमाम का अस्तित्व अपनी ज्योति बिखेरता रहेगा उस समय तक ख़लीफ़ा के रूप में लोगों के निकट उसका कोई महत्व नहीं होगा। अपने आपसे कहने लगा, सबसे अच्छा समाधान यह है कि अबल हसन को अपने मार्ग से हटा दें। मामून बिना कुछ कहे आगे बढ़ा और एक बड़े से बर्तन से उसने अंगूर का एक गुच्छा उठाया और उसमें से अंगूर का कुछ दाना खाया और फिर आगे बढ़कर उसने इमाम के माथे को चूमा और अंगूर का एक गुच्छा इमाम की ओर बढ़ाते हुए बोला हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र इनसे अच्छे अंगूर मैंने आज तक नहीं देखे। इमाम ने अपनी बोलती हुई आंखों स उत्तर दिया कि स्वर्ग का अंगूर इससे भी अच्छा है। मामून ने फिर कहा अंगूर खाइये।

इमाम ने मना कर दिया, लेकिन मामून ने अत्यधिक आग्रह करते हुए विषाक्त अंगूर इमाम को दिए। इमाम रज़ा के चेहरे पर कड़वी मुस्कुराहट की एक झलक उभरी। अचानक उनके चेहरे का रंग बदलने लगा और उनकी स्थिति बिगड़ने लगी। इमाम, गुच्छे को ज़मीन पर फेंक कर उसी पीड़ा के साथ चल पड़े। इमाम रज़ा के एक अच्छे साथी अबा सल्त ने जब इमाम को देखा तो उनके साथ हो लिए। वह इस महान हस्ती के प्रकाशमयी अस्तित्व से लाभ उठा रहे थे। वह इस बात पर प्रसन्न थे कि इस समय वह पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार की सबसे महत्वपूर्ण हस्ती के साथ चल रहे हैं। उनकी दृष्टि में इमाम, आतुर हृदय को प्रकाश तथा उन्हें जीवन प्रदान करने वाला है। उन्हें इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का वह कथन याद आ गया जिसमें इमाम ने कहा थाः इमाम धरती पर ईश्वर के अमानतदार उत्तराधिकारी हैं तथा उसके बंदों पर इमाम उसकी हुज्जत व प्रमाण होते हैं। ईश्वर के मार्ग पर चलने का निमंत्रण देने वाले और उसकी ओर से निर्धारित सीमा के रक्षक हैं। वह पापों से दूर और उनका व्यक्तिव दोष रहित है। वह ज्ञान से संपन्न तथा सहिष्णुता के लिए जाने जाते हैं। इमाम के अस्तित्व से धर्म में स्थिरता और मुसलमानों का गौरव व सम्मान है। अबा सल्त इसी विचार में लीन थे कि अचानक उनकी दृष्टि इमाम पर पड़ी, समझ गए कि मामून ने अपना अंतिम हत्कण्डा अपनाया। आह भरी और फूट फूट कर रोने लगे लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता था अधिक समय नही बीता कि इमाम शहीद हो गए। वह काला दिवस सफ़र महीने का अंतिम दिन वर्ष 203 हिजरी क़मरी था।

उच्च नैतिक मूल्य, व्यापक ज्ञान, ईश्वर पर अथाह व अटूट विश्वास तथा लोगों के साथ सहानुभूति वे विशेषताएं थीं जो इमाम को दूसरों से विशिष्ट करती थीं। वह आध्यात्मिक तथा उपासना सम्बन्धी मामलों पर विशेष ध्यान देते थे। मुसलमानों के मामलों की निरंतर देख रेख करते तथा लोगों की समस्याओं के निदान के लिए बहुत प्रयास करते थे। रोगियों से कुशल क्षेम पूछने तुरंत पहुंचते और बड़ी विनम्रता से आतिथ्य सत्कार करते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ज्ञान के अथाह सागर थे। इस्लामी जगत के दूर दूर से विद्वान व बुद्धिजीवी इमाम के पास पहुंच कर अपने ज्ञान की प्यास बुझाते थे। इमाम रज़ा ने अपनी इमामत के काल में बहुत से बुद्धिजीवियों के प्रशिक्षित किया और आज भी क़ुरआन की व्याख्या, हदीस, शिष्टाचार तथा इस्लामी चिकित्सा पद्धति पर इमाम की महत्वपूर्ण रचनाएं मौजूद हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम लोगों के सामने इस्लाम की मूल्यवान शिक्षा की व्याख्या करते किन्तु उनके व्यक्तिव का दूसरा आयाम उनका राजनैतिक संघर्ष था।

प्रथम हिजरी शताब्दी के दूसरे अर्ध में इस्लामी शासन ने राजशाही व्यवस्था तथा कुलीन वर्ग का रूप धारण कर लिया और अत्याचारी शासक सत्तासीन हो गए। इमामों ने जो पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों में से हैं, उसी समय से शासकों के भ्रष्टाचार के विरद्ध अपना संघर्ष आरंभ कर दिया था। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने भी अपने काल में अत्याचार से संघर्ष किया। इसके साथ ही उनके काल की परिस्थितियां कुछ सीमा तक भिन्न थीं। इमाम को एक बड़े एतिहासिक अनुभव तथा एक गुप्त राजनैतिक द्वद्वं का सामना था जिसमें सफलता या विफलता दोनों ही मुसलमानों के भविष्य के लिए निर्णायक थी। इस खींचतान में अब्बासी शासक मामून षड्यंत्र रच मैदान में आ गया। वह एक दिन इमाम रज़ा के निकट आया और उसने इमाम से कहाः हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र मैं आपके ज्ञान, नैतिक गुण और सच्चरित्रता से भलिभांति अवगत हूं और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आप इस्लामी नेतृत्व के लिए मुझसे अधिक योग्य हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ईश्वर की अराधना मेरे लिए गौरव की बात है, ईश्वर के प्रति भय द्वारा ईश्वरीय अनुकंपाओं तथा मोक्ष की आशा करता हूं तथा संसार में विनम्रता द्वारा ईश्वर के निकट उच्च स्थान की प्राप्ति चाहता हूं।

मामून ने कहाः मैंने सत्ता को छोड़ने और इसे आपके हवाले करने का निर्णय किया है।

इमाम रज़ा ने उसके उत्तर में कहाः अगर इस पर तेरा अधिकार है तो वह वस्त्र जिसे ईश्वर ने तुझे पहनाया है उसे उतार कर, तू दूसरे के हवाले करे यह तेरे लिए उचित नहीं है। लेकिन अगर यह ख़िलाफ़त अर्थात इस्लामी सरकार की बागडोर संभालना तेरा अधिकार नहीं है तो तुझे उस चीज़ के बारे में निर्णय करने का अधिकार नहीं है जिससे तेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। तू बेहतर जानता है कि कौन अधिक योग्य है। इमाम का यह दो टूक जवाब मामून के लिए कठोर था किन्तु उसने अपने क्रोध को छिपाने का प्रयास करते हुए कहाः तो फिर हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र आपको उत्तराधिकारी अवश्य बनना पड़ेगा।

इमाम रज़ा ने उत्तर दियाः मैं इसे स्वेच्छा से स्वीकार नहीं करूंगा।

मामून ने कहाः हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र आप उत्तराधिकारी बनने से इसलिए बचना चाह रहे हैं ताकि लोग आपके बारे में यह कहें कि आप को संसारिक मोह नहीं है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उत्तर दियाः मैं जानता हूं कि तुम्हारे यह कहने के पीछे यह उद्देश्य है कि लोग यह कहने लगें कि अलि बिन मूसर्रिज़ा संसारिक मोह माया से बचे नहीं और ख़िलाफ़त की लालच में उन्होंने अत्तराधिकारी बनना स्वीकार कर लिया।

अंततः मामून ने इमाम रज़ा को उत्तराधिकारी बनने के लिए विवश कर दिया किन्तु इमाम ने यह शर्त रखी कि वह सरकारी मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इस प्रकार इमाम रज़ा ने अपनी सूझ बूझ से लोगों को यह समझा दिया कि मामून की राजनैतिक कार्यवाहियों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है और सरकारी मामलों में उनकी कोई भूमिका नहीं है। इसके साथ ही इमाम की नई स्थिति से उनके सम्मान में और वृद्धि हो गई। इमाम रज़ा ने खुले राजनैतिक वातावरण में इतनी समझदारी से कार्य किया कि उनके उत्तराधिकार का काल शीया इतिहास के स्वर्णिम युगों का एक भाग बन गया तथा मुसलमानों की संघर्ष प्रक्रिया के लिए नया अवसर उपलब्ध हो गया। बहुत से लोग जिन्होंने केवल इमाम रज़ा का केवल नाम सुन रखा था उन्हें समाज के योग्य मार्गदर्शक के रूप में पहचानने तथा उनका सम्मान करने लगे कि जो ज्ञान, नैतिक गुणों, लोगों से सहानुभूति रखने तथा पैग़म्बर से निकट होने की दृष्टि से सबसे योग्य व श्रेष्ठ हैं।

अंततः मामून को यह ज्ञात हो गया कि जिस तीर से उसने इमाम की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने का लक्ष्य साधा था वह उसी की ओर पलट आया है इसलिए उसने भी वही शैली अपनाई जो उसके पूर्वज अपना चुके थे। उसने भी अपने काल के इमाम को विष देकर शहीद कर दिया।

 

समाधि

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की समाधि पवित्र शहर मशहद मे है। जहाँ पर हर समय लाखो श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन व सलाम हेतू एकत्रित रहते हैं। यह शहर वर्तमान समय मे ईरान मे स्थित है।

 

।।अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद।।


۰ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 23 February 16 ، 18:38
Mesam Naqvi

नाम व लक़ब (उपाधि)

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम का नाम मूसा व आपकी मुख्य उपाधियां काज़िम, बाबुल हवाइज व अब्दे सालेह हैं।

 

माता पिता

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत हमीदा खातून हैं।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम का जन्म सफ़र मास की सतवी (7) तिथि को सन् 128 हिजरी मे मक्के व मदीने के मध्य स्थित अबवा नामक एक गाँव मे हुआ था।

 

तशकीले हुकूमते इस्लामी का अरमान

 

तारीख़ी और रिवाई हक़ायक़ इस पर शाहिद हैं कि सरकारे मुरसले आज़म (स) और मौला ए कायनात (अ) की अज़ीमुश शान इलाही व इस्लामी हुकूमत के वुक़ू पज़ीर होने के बाद, इसी तरह इलाही अहकाम व हुदूद (दीन व शरीयत) के मुकम्मल निफ़ाज़ व इजरा की ख़ातिर इस्लामी हुकूमत की तशकील का अरमान हमारे हर इमामे मासूम (अ) के दिल में करवटें लेता रहा है। जिस के कसीर नमूने हमें आईम्म ए अतहार (अ) के बयानात व फ़रामीन में जा बजा नज़र आते हैं।

 

मसलन इमाम हसन (अ) अपने सुस्त व बे हौसला साथियों से ख़िताब करते हुए फ़रमाते हैं कि अगर मुझे ऐसे नासिर व मददगार मिल जाते जो दुश्मनाने ख़ुदा से मेरे हम रकाब हो कर जंग करते तो मैं हरगिज़ ख़िलाफ़त मुआविया के पास न रहने देता क्यो कि ख़िलाफ़त बनी उमय्या पर हराम है। [1]

 

इमाम हुसैन (अ) ने भी मुहम्मद हनफ़िया के नाम अपने वसीयत नामे में इसी अज़ीम अरमान का इज़हार यह कह कर फ़रमाया है:

 

ओरिदो अन आमोरा बिल मारूफ़ व अनहा अनिल मुन्कर......। [2]

 

इस्लाहे उम्मत, अम्र बिल मारुफ़, नही अनिल मुन्कर और सीरते रसूल (स) व अमीरुल मोमनीन (अ) का इत्तेबाअ, यह सब दर हक़ीक़त बनी उमय्या की ग़ैर इस्लामी और ज़ालेमाना हुकूमत की नाबूदी और इलाही व इस्लामी हूकूमत के क़याम ही की तरफ़ एक बलीग़ इशारा है।

 

इमाम सादिक़ (अ) ने सदीरे सैरफ़ी के ऐतेराज़ के जवाब में जो कुछ फ़रमाया है उस से भी यह ज़ाहिर होता है कि इस्लामी हुकूमत की तशकील व तासीस आप की दिली तमन्ना व आरजू़ थी।

 

सुदीर कहते हैं कि एक दिन मैं इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) की ख़िदमत में हाज़िर हो कर कहने लगा कि आख़िर आप क्यों बैठे हैं? (हुकूमत के लिये क्यों क़याम नही फ़रमाते) आप ने फ़रमाया: ऐ सुदीर, हुआ क्या?

 

मैं ने कहा कि आप अपने दोस्तों और शियों की कसरत तो देखिये। आप ने फ़रमाया कि तुम्हारी नज़र में उन की तादाद कितनी है?

 

मैं ने कहाः एक लाख।

 

आप ने ताअज्जुब से फ़रमायाः एक लाख।

 

मैं ने कहाः जी बल्कि दो लाख।

 

मैं ने अर्ज़ किया जी हाँ.... बल्कि शायद आधी दुनिया।

 

मौला सुदीर के साथ यही गुफ़तुगू करते करते जब मक़ामे यनबअ में पहुचे तो वहाँ आप ने बकरियों के एक गल्ले (रेवड़) को देख कर सुदीर से फ़रमाया: अगर हमारे दोस्तों और शियों की तादाद इस गल्ले के बराबर भी होती तो हम ज़रूर क़याम करते। [3]

 

इस रिवायत से यह अंदाज़ा लगामा मुश्किल नही है कि इस्लामी हुकूमत के क़याम व तासीस की दिली तमन्ना व आरज़ू, असबाब व हालात की ना फ़राहमी की वजह से एक आह और तड़प में बदल कर रह गई थी।

 

अलावा अज़ इन तक़रीबन सारे ही आईम्म ए मासूमीन (अलैहिमुस सलाम) के यहाँ यह अहम और अज़ीम अरमान बुनियादी मक़सद व हदफ़ के तौर पर नुमायां अंदाज़ में नज़र आता है। लेकिन अब हम अपने मौज़ू की मुनासेबत से उस की झलकियां सिर्फ़ इमाम मूसा काज़िम (अ) की हयाते पुर बरकत में देखना चाहते हैं।

 

तारीख़ व सेयर का मुतालआ करने वाले बेहतर जानते हैं कि इस्लामी हुकूमत के क़याम व तशकील के लिये बा क़ायदा जिद्दो जहद इमाम मूसा काज़िम (अ) की ज़िन्दगी में आप से पहले आईम्मा की ब निस्बत, ज़ाहिरन इंतेहाई दुश्वार बल्कि ना मुम्किन मालूम होती है। चूं कि आप का अहदे इमामत, अब्बासी हुकूमत शदायद व मज़ालिम के लिहाज़ से इंतेहाई बहरानी, हस्सास और ख़तरनाक दौर था। ऐसा ख़तरनाक कि आप की हर नक़्ल व हरकत पर हुकूमत की कड़ी नज़र रहती थी, लेकिन क्या कहना ऐसे संगीन और कड़े हालात पर भी यही नही कि इमाम काज़िम ने सिर्फ़ अपने पिदरे बुज़ुर्गवार इमाम सादिक़ (अ) के हौज़ ए इल्म व दानिश की शान व शौकत को बाक़ी रखा। [4] बल्कि इस्लामी हुकूमत के क़याम व तहक़्क़ुक़ के लिये भी आप हमा तन कोशां और फ़आल रहे और आप ने इस की तासीस व तशकील के लिये किसी भी मुमकिना जिद्दो जिहद से दरेग़ नही फ़रमाया। यहाँ तक कि अब्बासी ख़लीफ़ा हारून रशीद भी यह समझने लगा कि इमाम मूसा काज़िम (अ) और उन के शिया जिस दिन भी ज़रूरी क़ुदरत व ताक़त हासिल कर लेंगें उस दिन उस की ग़ासिब हुकूमत को नाबूद करने में देर नही लगायेगें। [5]

 

हुकूमते इस्लामी की तशकील के सिलसिले में इमाम काज़िम (अ) के बुलंद अहदाफ़ व मक़ासिद का अंदाज़ा, इस मुकालमे से भी ब ख़ूबी लगाया जा सकता है जो मौला और हारून के दरमियान पेश आया है। जिस की तफ़सील कुछइस तरह है कि एक दिन हारून ने (शायद आप को आज़माने और आप के अज़ीम अरमान को परखने के लिये) इस आमादगी का इज़हार किया कि वह फ़िदक आप के हवाले करना चाहता है। आप ने इस पेशकश के जवाब में फ़रमाया कि मैं फिदक लेने को तैयार हूँ मगर शर्त यह है कि उस के तमाम हुदूद के साथ वापस किया जाये।

 

हारून ने पूछा उस के हुदूद क्या हैं? आप ने फ़रमाया कि अगर उस के हुदूद बता दूँ तो हरगिज़ वापस नही करोगे।

 

हारून ने इसरार किया और क़सम खाई कि मैं उसे ज़रूर वापस करूगा, आप हुदूद तो बयान करें, (यह सुन कर) मौला ने हुदूदे फिदक़ इस तरह बयान फ़रमा दें।

 

उस की पहली हद अदन है।

 

दूसरी हद समरकंद है।

 

तीसरी हद अफ़रीक़ा है।

 

चौथी हद अलाक़ाजाते अरमेनिया व बहरे ख़ज़र हैं।

 

यह सुनते ही हारून के होश उड़ गये बहुत बे चैन व परेशान हुआ, ख़ुद को कंट्रोल न कर सका और ग़ुस्से से बोला तो हमारे पास क्या बचेगा? इमाम (अ) ने फ़रमाया: मैं जानता था कि तुम क़बूल नही करोगे इसी लिये बताने से इंकार कर रहा था। [6] इमाम (अ) ने हारून को ख़ूब समझा दिया कि फ़िदक सिर्फ़ एक बाग़ नही है बल्कि इस्लामी हुकूमत के वसीअ व अरीज़ क़लमरौ का एक रमज़ो राज़ है।

 

असहाबे सकीफ़ा ने दुख़्तरे व दामादे रसूल (स) से फिदक छीन कर दर हक़ीक़त अहले बैत (अ)का हक़्क़े हुकूमत व हाकेमियत ग़ज़ब व सल्ब किया था लिहाज़ा अब अगर अहले बैत (अ) को उनका हक़ दे दिया जाये तो इंसाफ़ यह है कि पूरे क़लमरौ ए हुकूमते इस्लामी को उन के सुपुर्द किया जाये।

 

हैरत की बात तो यह है कि सारी इस्लामी दुनिया पर अब्बासी हुकूमत का तसल्लुत व तसर्रुफ़ होने के बावजूद दूर व नज़दीक हर तरफ़ से अमवाले ख़ुम्स और दीगर शरई वुजूहात इमाम की ख़िदमत में पेश किये जाते थे और ऐसा लगता था कि जैसे आप ने संदूक़े बैतुल माल तशकील दे रखा है। [7] जो यक़ीनन इस बात की दलील है कि इस्लामी हुकूमत तशकील देने के लिये आप ने ऐसे इलाही, इस्लामी और अख़लाक़ी किरदार व असबाब अपना रखे थे जो इस्लामी दुनिया के समझदार और हक़ शिनास, हक़ीक़त निगर तबक़ा आप की तरफ़ मुतवज्जे किये हुए थे बल्कि उसे आप का मुतीअ व फ़रमां बरदार बनाये हुए थे। यब और बात है कि हुकूमती पावर उस अज़ीम तबक़े को बा क़ायदा खुलने और उभरने नही दे रहा था।

 

बीबी शतीता

 

इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम के ज़माने मे नेशापुर के शियो ने मौहम्मद बिन अली नेशापुरी नामी शख़्स कि जो अबुजाफर खुरासानी के नाम से मशहूर था, को कुछ शरई रकम और तोहफे साँतवे इमाम काज़िम (अ.स) की खिदमत मे मदीने पहुँचाने के लिऐ दी।

 

उन्होंने तीस हज़ार दीनार, पचास हज़ार दिरहम, कुछ लिबास और कुछ कपड़े दिये और साथ ही साथ एक कापी भी दी कि जिस पर सील लगी हुई थी और उसके हर पेज पर एक मसला लिखा हुआ था और उस से कहा था कि जब भी इमाम की खिदमत मे पहुँचो सवालो की कापी इमाम को दे देना और अगले दिन उस कापी को उनसे वापस ले लेना अगर इस कापी की सील नही टूटी तो खुद इस की सील को तोड़ लेना और देख कि इमाम ने बग़ैर सील तोड़े हमारे सवालो के जवाब दिये है या नही? अगर सील तोड़े बग़ैर इन सवालो के जवाब लिख दिये गऐ है तो समझ लेना कि यही इमामे बर हक़ हैं और हमारे माल को लेने के लायक़ है वरना हमारे माल को वापस पलटा लाना।

 

इस तरह खुरासान के शिया ये चाहते थे कि हक़ीकी इमाम को पहचाने और उन पर यक़ीन करे और इसके ज़रीऐ से इमामत का झूठा दावा करने वालो के फरेब और धोके से बचे और जिस वक्त नेशापुर के रहने वालो का ये नुमाइंदा मौहम्मद बिन अली नेशापुरी अपने सफर के लिऐ चलने लगा तो एक बुज़ुर्ग खातून कि जिनका नाम शतीता था और वो अपने ज़माने के नेक और पारसा लोगो से एक थी, मौहम्मद बिन अली नेशापुरी के पास आई एक दिरहम और एक कपड़े का टुकड़ा उसे दिया और कहाः ऐ अबुजाफर मेरे माल मे से ये मिक़दार हक़्क़े इमाम है इसे इमाम की खिदमत मे पहुचां दे।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी ने उनसे कहाः मुझे शर्म आती है कि इतने थोड़े से माल को इमाम को दूँ।

 

जनाबे शतीता ने उस से कहाः खुदा वंदे आलम किसी के हक़ से शरमाता नही है (यानी ये कि इमाम के हक़ को देना ज़रूरी है चाहे वो कम ही क्यूं न हो) बस यही माल मेरे ज़िम्मे है और चाहती हूँ कि इस हाल मे परवरदिगार से मुलाक़ात करूँ कि हक़्क़े इमाम मे से कुछ भी मेरी गर्दन पर न हो।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी ने जनाबे शतीता की वो ज़रा सी रकम ली और मदीने चला गया और मदीने पहुँच कर अब्दुल्लाह अफतह1 का इम्तेहान लेकर ये समझ गया कि अब्दुल्लाह अफतह इमामत के क़ाबिल नही है और नाउम्मीदी की हालत मे उसके घर से निकला उसके बाद एक बच्चे ने उसे इमाम काज़िम के घर की तरफ हिदायत की।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी ने जब इमाम काज़िम (अ.स) की खिदमत मे पहुँचा तो इमाम (अ.स) ने उस से फरमाया कि ऐ अबुजाफर नाउम्मीद क्यो हो रहे हो?? मेरे पास आओ मैं वलीऐ खुदा और उसकी हुज्जत हुँ। मैने कल ही तुम्हारे सवालो के जवाब दे दिये है उन सवालो के मेरे पास लाओ और शतीता की दी हुई एक दिरहम को भी मुझे दो।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी कहता है कि मैं इमाम काज़िम (अ.स) की बातो और आपकी बताई हुई सही निशानीयो से हैरान हो गया और उनके हुक्म पर अमल किया।

 

इमाम काज़िम (अ.स) ने शतीता के एक दिरहम और कपड़े के टुकड़े को ले लिया और फरमायाः बेशक अल्लाह हक़ से शरमाता नही है और ऐ अबुजाफर शतीता को मेरा सलाम कहना और ये पैसो की थैली कि इसमे चालिस दिरहम हैं, और ये कपड़े का टुकड़ा कि जो मेरे कफन का टुकड़ा है, को भी शतीता को दे देना और उस से कहना कि इस कपड़े को अपने कफन मे रख ले कि ये हमारे ही खेत की रूई से बना हुआ है और मेरी बहन ने इस कपड़े को बनाया है और साथ ही साथ शतीता से कहना कि जिस दिन ये चीज़े हासिल करोगी उसके बाद से उन्नीस दिन से ज़्यादा ज़िन्दा नही रहोगी। मेरे तोहफे के दिये हुऐ चालिस दिरहम मे से सोलह दिरहम खर्च कर लो और चौबीस दिरहम को सदक़े और अपने कफन दफन के लिऐ रख लेना।

 

फिर इमाम काज़िम (अ.स) ने फरमाया कि उस से कहना कि उसकी नमाज़े जनाज़ा मैं खुद पढ़ाऊँगा।

 

और उसके बाद इमाम (अ.स) ने फरमाया कि बाक़ी माल को उनके मालिको को वापस दे देना और सवालो की कापी की सील को तोड़ कर देख कि मैंने उनके जवाबो को बग़ैर देखे दिया है या नही??

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी कहता है कि मैने कापी की सील को देखा उसे हाथ भी नही लगाया गया था और सील तोड़ने के बाद मैंने देखा सब सवालो के जवाब दिये जा चुके है।

 

जिस वक्त मौहम्मद बिन अली नेशापुरी खुरासान पलटा तो ताज्जुब के आलम मे देखता है कि इमाम काज़िम (अ.स) ने जिन लोगो के माल वापस पलटाऐ है उन सब ने अब्दुल्लाह अफतह को इमाम मान लिया है लेकिन जनाबे शतीता अब भी अपने मज़हब पर बाक़ी है।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी कहता है कि मैने इमाम काज़िम (अ.स) के सलाम को शतीता को पहुँचाया और वो कपड़ा और माल भी उसे दिया और जिस तरह इमाम काज़िम (अ.स) ने फरमाया था शतीता उन्नीस दिन बाद इस दुनिया से रूखसत हो गई।

 

और जब जनाबे शतीता इंतेक़ाल कर गई तो इमाम (अ.स) ऊँट पर सवार हो कर नेशापुर आऐ और जनाबे शतीता की नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई।

 

आज भी लोग इस मौहतरम खातून को बीबी शतीता के नाम से याद करते है और आपका मज़ारे मुक़द्दस नेशापुर (ईरान) मे मौजूद है कि जहाँ रोज़ाना हज़ारो चाहने वाले आपकी क़ब्र की ज़ियारत के लिऐ आते है।

 

 1.   अब्दुल्लाह अफतह इमाम सादिक का एक बेटा था कि जिसने इमामत का दावा किया था।

 

हज़रत इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) के कथन

१. ग़ाफ़िल तरीन (बेपरवाह) शख़्स वह है जो ज़माने (समय) की गर्दिश और हादसात से इबरत हासिल न करे।

२. जो शख़्स बद अख़लाक़ है (गोया) उसने अपने एक दाएमी (सदैव) अज़ाब में मुबतला कर रखा है।

३. बहादुर वह है जो ग़ुस्से के वक़्त भी बुर्दबार रहे।

४. इल्म तमाम ख़ूबियों का बायस (कारण) और जेहेल (जिहालत) तमाम बुराईयों का मोजिब (कारण) है।

५. माल ख़ुदावन्दे आलम की एक नेमत है और माल से बेहतर बदन की सलामती है और उससे बेहतर तक़्वा ए क़ल्ब है।

६. ज़कात के ज़रिये अपने माल की हिफ़ाज़त (रक्षा) करो सदक़े (ईश्वर के मार्ग में कुछ देना) के ज़रिये बीमारी का इलाज।

७. बुरे लोगों से भी नेकी करो ताकि उनकी बदी (बुराई) से महफ़ूज़ (बचे) रहो (क्योंकि) नेकी से आज़ाद भी बन्दाए बे दाम हो जाता है।

८. दुनिया ख़्वाब है और आख़ेरत (परलोक) बेदारी और उस दरमियान (बीच) ज़िन्दगी एक ख़्वाबे परेशां।

९. बहादुर इन्सान हमेशा ख़ुश व मसरूर रहता है और अपना ज़ेहेन और आसाब पर आक़ेलाना क़ाबू रखता है।

१०. कभी किसी को धोका मत दो क्योंकि यह काम बहुत पस्त लोगों का है।

११. झूठ बदतरीन बीमारी है।

१२. हमेशा हक़ बात कहो और परहेज़गारों (बुराई से बचने वाला) के नासिर व मददगार (सहायक) बनो।

१३. अहमक़ (बेवकूफ़) लोगों से दोस्ती मत करो क्योंकि वह ग़ैरे शऊरी तौर (बेवकूफ़ी से) से तुमको नुक़सान पहुँचायेंगे।

१४. जो अल्लाह से डरता है वह किसी पर ज़ुल्म नहीं करता।

१५. अल्लाह की राह (मार्ग) में अपने जान व माल से जेहाद करो और दुनिया में (आख़ेरत के लिये) ज़ख़ीरा (जमा) कर लो।

१६. सितमगर पर सख़्ती करके मज़लूम के हक़ को उससे दिलवाओ।

१७. दोस्त की लग़्ज़िशों (त्रुटियों) से चश्म पोशी करो और उसे दुश्मनों के हमलों के वक़्त के लिए महफ़ूज़ (बचाये) रखो।

१८. जिसका ईमान अल्लाह पर है वह उस दस्तरख़ान पर नहीं बैठता जहाँ शराब हो।

१९. अगर तुम में से कोई बरादरे मोमिन को दोस्त रखे तो उसे आगाह कर दो।

२०. कारे ख़ैर में जल्दी करो (वरना) किसी दूसरे काम में लग जाओगे।

२१. क्या कहना उस शख़्स का जो अपने हलाल माल से बख़्शिश व इन्फ़ाक़ (व्यय करे) करे।

२२. लोगों से बदगोई (अपशब्द) मत करो (वरना) इस तरह तुम अपने लिये अदावत को दावत दोगे।

२३. जो शख़्स मौक़ा बे मौक़ा अपनी परेशानियों को लोगों से सुनाता है वह अपने को ज़लील करता है।

२४. हरग़िज़ अपने अज़ीज़ों से चश्मपोशी न करो और बेगाने (जिससे जान पहचान न हो) को आश्ना (जानने वाले) पर तरजीह मत दो।

२५. जिसने मियाना रवी और क़नाअत (आत्मसंतोष) को अपनाया उसके लिये नेमत हमेशा बाक़ी रहती है।

२६. हमेशा हक़ गो (सच बोलो) रहो और हक़ को सरीह अन्दाज़ से बयान करो और ख़ुदावन्दे आलम के सिवा किसी और की ख़ुशनूदी के तलबगार न हो।

२७. ख़ुदावन्दे आलम काहिल और सुस्त बन्दे को पसन्द नहीं करता।

२८. सब्र (सहनशीलता) करोगे तो फ़ायदे में रहोगे।

२९. जो इसराफ़ और फ़ुज़ूल ख़र्ची करता है उसके यहाँ नेमत पर ज़वाल आ जाता है।

३०. परहेज़ हर मुसीबत का इलाज है।

३१. सात साल की उम्र के बच्चों को नमाज़ के लिये तैयार करो और उनके बिस्तर जुदा (अलग- अलग) कर दो।

३२. अज़ीम इन्सान (अच्छा मनुष्य) क़ुदरत पाकर अफ़ो (क्षमा) कर देता है अपनी ज़बान को नासज़ा (अपशब्द) कहने से रोकता है और इन्साफ़ (न्याय) का रास्ता इख़्तेयार (ग्रहण) करता है।

३३. कुशादा रवी (अच्छा अख़लाक़) ऐसा नेक काम है जिसमें न कोई ख़र्च है न कोई ज़हमत।

३४. अच्छे दोस्त हासिल करने से इन्सान की इज़्ज़त बढ़ जाती है।

३५. नेकी वह चीज़ है जो सिवाय शुक्राने और ऐवज़ देने के ख़त्म नहीं होती।

३६. वह इज़्ज़त जो तकब्बुर (घमण्ड) से हासिल हो वह ज़िल्लत है।

३७. लोगों से हाजत तलब करना (माँगना) बे-इज़्ज़ती भी है और रिज़्क़ में कमी का बायस (कारण) भी।

३८. जब बाद करो तो झूठ मत बोलो और जब वायदा करो तो वायदा ख़िलाफ़ी न करो।

३९. जब तुम किसी दूसरे के ऐब का ज़िक्र करना चाहो तो पहले अपने ऐब को सोच लो।

४०. मौत आने से पहले उसके लिये तैयार हो जाओ।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम को हारून रशीद ने 14 वर्षों तक अपने बन्दीगृह मे बन्दी बनाकर रखा। जहाँ पर आप ने अत्याधिक यातनाऐं सहन की।और अन्त मे रजब मास की 25 वी तिथि को सन्183 हिजरी क़मरी मे बग़दाद नामक शहर मे हारून रशीद के बन्दी गृह मे सन्दी पुत्र शाहिक नामक व्यक्ति ने हारून रशीद के आदेश पर आपको विष मिला भोजन खिला कर आपके संसारिक जीवन को समाप्त कर दिया। शहादत के समय आपकी आयु 55 वर्ष थी।

 

समाधि

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम की समाधि बग़दाद के समीप काज़मैन नामक स्थान पर है। प्रति वर्ष लाखों श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन कर आप को सलाम करते हैं।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद।।

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Mesam Naqvi

नाम व उपाधियाँ

हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम का नाम अली व आपकी मुख्य उपाधियां सज्जाद व ज़ैनुल आबेदीन हैं। सज्जाद अर्थात अत्यअधिक सजदे करने वाला।  ज़ैनुल आबेदीन अर्थात इबादत की शोभा।

 

माता पिता

हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के पिता  हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हैं जो हज़रत इमाम अली के दूसरे पुत्र थे। तथा आपकी माता हज़रत शहरबानो हैं। कुछ इतिहासकारों ने आपकी माता का नाम ग़िज़ाला भी लिखा है।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 38 हिजरी मे जमादुल ऊला मास की पनद्रहवी (15) तारीख को मदीना नामक पवित्र शहर मे हुआ था।

 

तारीख़ के सफ़हात पर ऐसे सरफ़रोशों की कमी नहीं जिन के जिस्म को तो वक्त के ज़ालिमों और जल्लादों ने क़ैदी तो कर दिया लेकिन उन की अज़ीम रुह, उन के ज़मीर को वह क़ैदी बनाने से आजिज़ रहे, ऐसे फ़ौलादी इन्सान जो ज़ंजीरों में जकड़े हुए भी अपनी आज़ाद रुह की वजह से वक्त के फ़िरऔन व शद्दाद को ललकारते रहे, तलवारों ने उन के सर जिस्म से जुदा तो कर दिये लेकिन एक लम्हे के लिये भी उन की रुह को तस्ख़ीर न कर सके, ऐसे इन्सान जिन की आज़ाद रुह, आज़ाद ज़मीर, और आज़ाद फ़िक्र के सामने तेज़ो तुन्द असलहे भी नाकारा साबित हुए.....जब उन की ज़बाने काटी गईं तो उन लोगों ने नोके क़लम से मुक़ाबला किया और जब हाथ हाट दिये गए तो अपने ख़ून के क़तरों से बातिल को ललकारा जब वक़्त के फ़िरऔन जिन की हर ज़माने में शक्लें बदलती होती हैं और मक़्सद एक होता है उन को यूँ डराते हैं कि (हमारी सरपरस्ती क़ुबूल न करने के तौर पर तुम्हारे हाथ पैर काटे जांएगे और फ़ाँसी का फ़न्दा तुम्हारे लिया आमादा है) तो तारीख़ के तसल्सुल में उन सरफ़रोशों का जवाब एक ही रहा है कि (तुम वक्त के फ़िरऔन जो कुछ करना चाहो करो, लेकिन हमारी रुह को क़ैद करना तुम्हारे बस की बात नहीं) तुम मौत की धमकी देते हो और हम उसी मौत को अपनी कामयाबी तुम्हारी शिकस्त समझते हैं।

 

काटी ज़बां तो ज़ख़्मे गुलू बोलने लगा

चुप हो गया क़लम तो लहू बोलने लगा

शहादते हुसैन के बाद भी खानदाने नबी को असीर कर के कूफ़े ले जाया गया तो यज़ीद ने इमामे सज्जाद और दीगर अफ़राद को ज़ंजीरों और हथकड़ियों में ज़रूर जकड़ा, उन पर मसाइब के पहाड़ तोड़े लेकिन यज़ीद और यज़ीदियत के सामने सरे तसलीम ख़म न कर सके, उन की रुह और ज़मीर को क़ैद न कर सके, यज़ीद असीरों से यह तवक़्क़ो रखता था कि अब इन में अहसासे निदामत होगा वह शहीदों की तरह बैअत ठुकरायेंगे नहीं बल्कि मअफ़ी तलब कर के बैअत पर आमादा होंगे लेकिन जूँ जूँ ज़ंजीरों में जकड़े हुए आज़ाद इन्सानों का यह क़ाफ़िला आगे बढ़ता गया यज़ीद की शिकस्त व हुसैन की कामयाबी के आसार रौशन होते गए हालात यज़ीद की मंशा के मुताबिक़ नहीं इमाम हुसैन की तरफ़ से तरतीब दिये गए प्रोग्राम के मुताबिक़ आगे बढ़ रहे थे, क़ाफ़ले की बाग़ डोर इब्ने ज़ियाद के हाथ में नहीं, इमामे सज्जाद के हाथों में थी, हुसैन की असीर बहन और बेटे का हालात पर पूरा क़ाबू था वह अपनी रूहानी ताक़त व शुजाअत की बुनियाद पर अपनी रूहानी आज़ादी व हुर्रियत की बुनियाद पर यज़ीदियत का दायर ए हयात तंग करते जा रहे थे।

 

फ़तहे यज़ीद कैसे शिकस्त में तबदील हुई !

यह कूफ़ा है, यज़ीद की मंन्फ़ी तबलीग़ात की वजह से लोग इस इन्तेज़ार में बैठे हैं कि मअज़ल्ला, दुश्मनाने इस्लाम के बचे खुचे अफ़राद को असीर कर के लाया जा रहा है, लोग यह समझ रहे थे कि दुश्मन को करबला में फ़ौजे यज़ीद ने क़त्ल कर दिया है, खुशी का समा है, इब्ने ज़ियाद ने अपनी ज़ाहिरी फ़तह की खुशी में दरबार को सजा रखा है, इब्ने ज़ियाद का ख़्याल यह था कि इन के सामने वह लोग हैं जिन के सामने सरे तसलीम ख़म करने के अलावा कुछ बाक़ी नहीं बचा है, लेकिन कूफ़े के बाज़ार में जब हुसैन की बहन और बेटे ने अपने तय शुदा प्रोग्राम के मुताबिक़ लोगों पर हक़ीक़त को रौशन किया तब जाके इब्ने ज़ियाद को अहसास हुआ कि रुहे हुसैन उन की बहन और बेटे के जिस्म में दौड़ रही है और अब भी फ़रियाद कर रही है अब भी हुसैन नारा दे रहे हैं मुझ जैसा यज़ीद जैसे की बैअत नहीं कर सकता है इन्क़िलाबे हुसैन का पहला मरहला यअनी ख़ून व शहादत को शोहदा ने अन्जाम दिया और इन्क़िलाबे हुसैन का दूसरा मर्हला यअनी शहीदों का पैग़ाम पहुचाना इमामे सज्जाद और ज़ैनब की ज़िम्मेदारी है, बाज़ारे कूफ़ा के इस मजमे पर यह वाज़ेह करना है कि जो क़त्ल किये गए हैं वह कोई और नहीं उसी पैग़म्बर की ज़ुर्रीयत है जिन का लोग कलमा पढ़ते हैं और जो लोग असीर किये गए हैं वह भी नबी की ज़ुर्रीयत हैं इमामे सज्जाद को इस मजमे के सामने वाज़ेह करना है कि हुसैन नवास ए रसूल शहीद किये गए हैं, इब्ने ज़ियाद और यज़ीद के मज़ालिम बयान करना और उन के चेहरे से नक़ाब उतारना इमामे सज्जाद की ज़िम्मेदारी है, इमाम ने कूफ़े के इस मजमे को यह अहसास भी दिलाना है कि तुम लोगों ने जिस इमाम को दावत दी थी करबला में उस को यको तन्हा क्यों छोड़ा, जब क़ाफ़िला इस बाज़ार में पहुंचा तो पहले अली की बेटी और फिर इमामे सज्जाद ने ख़ूने हुसैन का पैग़ाम पहुंचाया आप ने मजमे से मुख़ातिब हो कर एक क़ुदरत मन्द और आज़ाद इन्सान की तरह खामोश रहने को कहा और फ़रमाया लोगों! खामोश रहो इस क़ैदी की आवाज़ सुन कर सब लोग ख़ामोश और फिर आप फ़रमाते हैं।

 

लोगों ! जो कोई मुझे पहचानता है, पहचानता है। और जो नहीं पहचानता है वोह जान ले कि मैं अली फ़रज़न्दे हुसैन इब्ने अली इब्ने अबी तालिब हूं मैं उस का बेटा हूं जिस की हुरमत को पायमाल कराया और जिस का माल व सरमाया लूटा गया और जिस की औलाद को असीर किया गया है मैं उस का बेटा हूं जिस का नहरे फ़ुरात के किनारे सर तन से जुदा किया गया है जब कि न उस ने किसी पर ज़ुल्म किया था और न ही किसी को धोका दिया था। ऐ लोगों क्या तुमने उन की बैअत नहीं की ? क्या तुम वही नहीं हो जिन्होंने उन के साथ ख़यानत की ? तुम कितने बद ख़स्लत और बद किरदार हो ?

 

ऐ लोगो! अगर रसूले खुदा तुम से कहें : तुमने मेरे बच्चों को क़त्ल किया, मेरी हुरमत को पायमाल किया, तुम लोग मेरी उम्मत नहीं हो ! तुम किस मुह से उन का सामना करोगे ? (1)

 

इमाम के इस मुख़्तसर मगर दर्द मन्द और दिल सोज़ कलाम ने मजमे में कोहराम बरपा किया हर तरफ़ से नाला व शेवन की सदा बुलन्द होने लगी, लोग एक दूसरे से कहने लगे लोगों हम सब हलाक हुए और यूँ वह मजमा जो तमाशा देखने आया था यज़ीद और इब्ने ज़ियाद का बुग़्ज़ व कीना और उन के साथ नफ़रत लेकर वहाँ से वापस गया और तबलीग़ाते सू की वजह से फ़ैलने वाली अन्धेरा छटने लगा।

 

यज़ीद का आख़री मोर्चा भी फ़तह हुआ।

अहले शाम मुआविया और उमवी लाबी की ग़लत तबलीग़ात की वजह से अहले बैत के बारे में बिल्कुल बेख़बर थे बल्कि अहले बैत की एक उलटी तस्वीर उन के ज़ेहनो में नक़्श थी अहले शाम, अली और आले अली को दुश्मने दीन समझते थे और उमवियों को ही पैग़म्बर का हक़ीक़ी वारिस समझते थे, जब हुसैनी इन्क़ेलाब का पैग़ाम पहुचाने वाला यह क़ाफ़िला शाम पहुंचा तो ज़ंजीरों में जकड़े इमामे सज्जाद के लिये एक सुनहरी मौक़ा हाथ आया कि वह अहले बैत का सही तआरुफ़ अहले शाम को करवायें और उमवी तबलीग़ात का जवाब दें चुनांचे इमामे सज्जाद ने मौक़े को ग़नीमत जानते हुए ऐसा ही क्यों किया, चुनाँचे तारीख़ बताती है कि जब यज़ीद के हुक्म से एक दिन एक ख़तीब मिम्बर पर बैठा और इमामे हुसैन और अली इब्ने अबी तालिब की शान में गुस्ताख़ी की और मुआविया और यज़ीद की मदह सराई की तो इमामे सज्जाद एक आज़ाद और ग़य्यूर मुजाहिद की तरह बुलन्द हुए और ख़तीब से मुख़ातिब हो कर कहा लानत हो तुम पर ऐ ख़तीब ! तुम ने मख़लूक़ को खुश करने के अवज़ खालिक़ के ग़ैज़ व ग़ज़ब को मोल लिया और अपनी जगह जहन्नुम में क़रार दी।

 

और फिर यज़ीद से कहा ! क्या तुम मुझे इन लकड़ी के टुकड़ों (मिम्बर) पर बैठने की इजाज़त देते हो ताकि मैं वोह बातें कहूं जिस में खुदा की मर्ज़ी हो और हाज़रीन के लिये भी सवाब हो ?

 

यज़ीद ने पहले इजाज़त देने से इन्कार किया लेकिन लोगों के इसरार की वजह से वह मजबूर हुआ, इमाम जब मिम्बर पर बैठे तो खुदा की हम्द व सना के बाद एक ऐसा ख़ुत्बा दिया कि हर आँख तर और हर दिल ग़म ज़दा हुआ फ़िर अहले बैत की छ : फ़ज़ीलतों को शुमार किया और फिर लोगों से मुख़ातिब हो कर कहा !

 

लोगों ! जो मुझे पहचानता है वह पहचानता है और जो नहीं पहचानता है मैं खुद को पहचनवाता हूँ मैं मक्का व मिना का बेटा हूँ, मैं ज़म ज़म व सफ़ा का फ़रज़न्द हूँ, मैं उस बुज़ुर्गवार का बेटा हूं जिस ने हज्रे अस्वद को अपनी अबा में उठाया, मैं बेहतरीन इन्सान का बैटा हूँ, मैं उस का बैटा हूँ, जिस को आसमान की सैर में सिद्रातुल मुन्तहा तक ले जाया गया मैं मोहम्मदे मुस्तफ़ा का बैटा हूँ, मैं अली का फ़रज़न्द हूँ, इमाम ने दर्द व जोश के साथ जब इस ख़ुत्बे को जारी रखा तो यज़ीद लरज़ने लगा और फ़ौरन हीले के तौर पर मोअज़्ज़िन से आज़ान देने को कहा मोअज़्ज़िन ने अज़ान शुरु की जब मोअज़्ज़िन ने अशहदो अन्ना मुहम्मदुर रसूलल्लाह कहा तो इमाम ने यज़ीद की तरफ़ रुख कर के कहा यज़ीद क्या मोहम्मद मेरे जद हैं क्या तेरे ? अगर कहते हो तेरे जद हैं तो झूट बोलते हो और उस के हक़ का इन्कार करते हो और अगर कहते हो कि मेरे जद हैं तो बताओ क्यों उस के बेटों को क़त्ल किया ? क्यों उस के अहले बैत को असीर किया और उस के बच्चों को क्यों आवारा किया ? इस मौक़े पर इमामे सज्जाद ने अपना जामा पारा किया और बुलन्द गिरया करने लगे और लोग भी बुलन्द आवाज़ में फ़रियाद करने लगे ऐसे आलम में मस्जिद में इन्क़ेलाब बरपा हुआ और कुछ लोगों ने नमाज़ पढ़ी और कुछ बग़ैर नमाज़ के बाहर निकले और पूरे शहर में ख़बर गश्त करने लगी इमामे सज्जाद ने अपने जकड़े हुए हाथों से उमवियों की बुनियादों को हिला दिया और अपने दर्द मन्द और दिल सोज़ ख़ुत्बों के ज़रीए इन के चालिस साल के प्रोपगंडे को नाकारा बना दिया और अहले बैत और शोहदा ए करबला की सही तस्वीर लोगों के सामने रख दी, अगर इमामे सज्जाद और ज़ैनब का यह क़ाफ़िला न होता तो यज़ीद शहादते हुसैन को करबला ही तक महदूद कर देता कितना बड़ा जिहाद किया हुसैन के बेटे और बहन जिन्होंने अपनी असीरी में भी यज़ीद व यज़ीदियत को तारीख़ के सामने रुसवा किया और अब उस के नाम के साथ ज़ुल्म, बरबरियत, ख़ूँ ख़्वारी अलावा कुछ नहीं लिखा जाता है। और यहीं पर इमामे सज्जाद की मज़लूमियत का भी पता चलता है कि यह अज़ीम मुजाहिद जिस ने इस इन्क़ेलाबे हुसैन को पाय ए तकमील तक पहुंचाया और पैग़ामे करबला को आम किया जकड़े और रसन बस्ता हाथों के ज़रिये यज़ीदियत की दीवार मुन्हदिम की वह इमाम आज अपने मानने वालों के दरमियान एक बीमार के तौर पर मअरुफ़ है। और उन के कारनामों में सिर्फ़ रोना और गिरया से वाक़िफ़ है और इस तारीख़ी कारनामे से बिल्कुल ग़ाफ़िल हैं जो कि इमाम ने इन्क़ेलाबे हुसैन की हिफ़ाज़त, तरवीज व तबलीग़ के लिये अन्जाम दिया।

 

हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के कथन

१. तन्दरूस्ती के वक़्त (समय) बीमारी के लिए और ज़िन्दगी में आख़ेरत (परलोक) के लिए तूशा (सामाग्री) फ़राहम करो।

२. मुस्कर (नशे वाली चीज़ें) चीज़ों से परहेज़ करो क्योंकि यह तमाम बुराईयों की कुंजी है।

३. जो कम रोज़ी पर ख़ुदा से राज़ी होगा ख़ुदावन्दे आलम भी उसके अमले क़लील (कम अमल) पर राज़ी रहेगा।

४. झूठी क़सम माल की नाबूदी (बर्बाद) और तेजारत में अदमे बरकत (बरकत का ख़त्म होना) का बायस (कारण) है।

५. सबसे बेहतर वह शख़्स है जिसकी बातें तुम्हारे इल्म (ज्ञान) में इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) करें और तुमको ख़ैर की दावत दें।

६. अपनी औलाद का एहतेराम (इज़्ज़त) करो और उनकी अच्छी तरबियत (शिक्षा दीक्षा) करो।

७. किसी को उस वक़्त तक परहेज़गार न समझा जायेगा जब तक वह शक व शुबाह (संदिग्ध) वाले कामों से इज्तेनाब (बचना) और हराम से बचेगा नहीं।

८. ज़्यादा माल व दौलत से बहुत ख़ुश न हो और किसी हाल में ख़ुदा को न भूलो।

९. हक़ीक़ी मोमिन वह है जो अपने माल में हाजतमन्दो को शरीक करे और लोगों से इन्साफ़ करे।

१०. जिसने तुम पर एहसान किया उसका हक़ तुम पर यह है कि उसका शुक्रिया अदा करो उसके एहसान को भूलो नहीं और उसके नाम को नेक चीज़ों से शोहरत दो।

११. दुनिया की लालच में मुबतला की मिसाल रेशम के उस कीड़े की सी है के जो जितना घूमता है उतना ही अपने को जाल में उलझा लेता है।

१२. अगर तुमसे कोई गुनाह (पाप) सरज़द हो जाये तो फ़ौरन ख़ुदा से तौबा (प्रायश्चित) करो।

१३. जब तुमसे फ़ैसले की तवक़्क़ो (आशा) की जाए तो बहुत होशियार होकर अदालत (न्याय) का ख़्याल रखो।

१४. जो शख़्स अपने और अपने ख़ुदा के दरमियान मामला साफ़ रखता है ख़ुदावन्दे आलम उसके और दूसरें लोगों के दरमियान मामला साफ़ रखता है।

१५. हर शख़्स की क़द्र उसकी ख़ूबियों के बराबर है।

१६. अपने ख़ुदा के अलावा किसी और से उम्मीदवार मत रहो।

१७. ख़ुदावन्दे आलम बेकार आदमी को पसन्द नहीं करता।

१८. जो शख़्स तुमको बुलाये उसकी दावत क़ुबूल (स्वीकार) करो और मरीज़ो की अयादत (बीमार की हालत पूछना) करो।

१९. क़र्ज़ लेने से इज्तेनाब (बचो) करो (क्योंकि) वह रात में अफ़सोस का बायस (कारण) और दिन में ज़िल्लत का बायस है।

२०. जिससे मिलों उसे सलाम करो ताकि ख़ुदावन्दे आलम तुम्हारे अज्र (इनाम) में इज़ाफ़ा करे।

२१. बदबख़्त वह शख़्स है जो तजुर्बा और अक़्ल के फ़वाएद (फ़ायदा का बहु वचन) से महरूम रहे।

२२. तुम चाहे जितना ताक़त व क़ुव्वत ,माल व दौलत में ज़्यादा रहो फिर भी अपने ख़ानदान व क़ौम के मोहताज रहोगे।

२३. दोस्तों का छूट जाना बेकसी है।

२४. छुप कर सदक़ा (गुप्त दान से) देने से ख़ुदावन्दे आलम का ग़ज़ब (ईशवरीय प्रकोप) ज़ाएल (टल जाता है) हो जाता है।

२५. सब्र व रज़ा तमाम ताक़तों से बलन्द है।

२६. बच्चों की ऐसी तरबियत (शिक्षा दीक्षा) करो जो कल मुआशरे (समाज) में उसकी ख़ुबसूरती का बायस (कारण) है।

२७. अल्लाह से नाउम्मीदी (निराशा) का गुनाह बे गुनाहों का ख़ून बहाने से ज़्यादा है।

२८. अपनी औलाद की ऐसी तरबियत (शिक्षा दीक्षा) करो के ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ शोबों में आबरूमन्द और बाइज़्ज़त ज़िन्दगी गुज़ार सकें और तुम्हारे फ़ख़्र (गर्व) का बायस हों।

२९. जो शख़्स अपने घर वालों पर ज़्यादा फ़ेराख़ दिली दिखाता है ख़ुदावन्दे आलम की ख़ुशनूदी उनके शामिल हाल रहती है।

३०. यतिमों पर माँ बाप की तरह रहम करो और यह ख़्याल रहे कि आज जो अमल करोगे कल उसी की जज़ा मिलेगी।

३१. जो शख़्स लोगों पर बहुत मिन्नत (ख़ुशामद) रखता है वह लईम व पस्त है।

३२. ख़ुदावन्दे आलम उस जवान को पसन्द करता है जो अपने नापसन्दीदा आमाल पर नादिम (शर्मिन्दा) हो और तौबा (प्रायश्चित) कर ले।

३३. मोमिन की रातों की इबादत उसका शरफ़ है लोगों में बेनियाज़ी (बेपरवाही) उसकी इज़्ज़त।

३४. क्या कहना उस शख़्स का जो हाज़िर लज़्ज़तों को ग़ाएब नेमतों के हुसूल के लिए छोड़ दे।

३५. ग़रीब वह शख़्स है जिसे मुआशरे (समाज) में अपने साथी न मिल सकें।

३६. आख़री ज़माने में जो चीज़ सबसे कम मिलेगी वह मोरिदे इत्मिनान (विश्वसनीय) दोस्त और हलाल आमदनी है।

३७. ख़ुदावन्दे आलम इस्लाम की उन लोगों से ताईद कराता है जो उसके दाएरे में न भी हों।

३८. उन चीज़ों में मश्ग़ूल रहना जो इन्सान के काम न आने वाली हों सख़्त तरीन ग़लती है।

३९. हासिद (ईर्ष्यालु) कभी बा-इज़्ज़त नहीं हो पाता और कीना परवर (मन में बुराई रखने वाला) अपने ग़ुस्से से मरा करता है।

४०. अज़मत (बढ़ाई) उसी को हासिल है जो लोगों को मेज़ाह (मज़ाक़) का ज़रिया न बनाये उनको धोका न दे और उनकी इज़्ज़त में कमी न करे।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 95 हिजरी मे मुहर्रम मास की पच्चीसवी (25) तिथि को हुई। शहादत का कारण हश्शाम पुत्र अब्दुल मलिक द्वारा रचा गया षड़यन्त्र था। जिसके अन्तर्गत आपको विष पान कराया गया।

 

समाधि

इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की समाधि अरब के प्रसिद्ध व पवित्र नगर मदीने के जन्नातुल बक़ी नामक कब्रिस्तान मे है। प्रति वर्ष लाखो श्राद्धालु वहाँ जाकर आपकी समाधि के दर्शन करते हैं।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद।।

۰ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 23 February 16 ، 18:36
Mesam Naqvi

 पिछले 1400 वर्षों के दौरान, साहित्य की एक अभूतपूर्व राशि  दुनिया की लगभग हर भाषा में इमाम हुसैन (अस) , पर लिखी गयी है, जिसमे  मुख्य रूप से इमाम हुसैन (अस) के सन 61हिजरी में कर्बला में अवर्णनीय बलिदान का विशेष अस्थान और सम्मान है!

 इस्लाम धर्म के सबी मुसलमान इस बात पर सहमत हैं के कर्बला के  महान बलिदान ने इस्लाम धर्म को विलुप्त होने से  बचा  लिया ! हालांकि, कुछ मुसलमान इस्लाम की इस व्याख्या से असहमत हैं और कहते हैं की इस्लाम में कलमा के  "ला इलाहा ईल-लल्लाह" के सिवा कुछ नहीं है! मुसलमान का कुछ गिरोह हजरत मुहम्मद को भी कलमा के एक अनिवार्य अंग मानते हुए कलमा में "मुहम्मद अर रसूल-अल्लाह" को भी पहचाना है! इस्लाम धर्म के मुख्य स्तम्भ (तौहीद, अदल, नबूअत और कियामत) में तो सभी विश्वास रखते हैं परंतू यह समूह पैगम्बर (स अ ) द्वारा बताये, सिखाये और दिखाए[1]  हुए “इमामत” को ना तो पहचानता ही है और ना ही इसको कलमा का एक अभिन्न अंग मानता है!

मुसलमानों के केवल एक छोटे तबके  ने  इमामत  को  पहचाना  और  यह  विश्वास करते हैं की  इमामत  के  प्रत्येक  सदस्य  अल्लाह  के प्रतिनीधि और  नियुक्ती  हैं! यह अल्लाह के ज्ञान में  था  कुछ  मुसलमान हजरत अली (अस) को "अमीर उल मोमनीन" के रूप में  स्वीकार  नहीं  करेंगे! इसलिए  अल्लाह ने इन लोगों का   परीक्षण करने के लिए और अपनी स्वीकृति पर लोगों को विलाए-अली (अस) की स्वीकृति/अस्वीकृति के अनुसार इनाम / सज़ा देने का फैसला किया था ! अल्लाह ने इनके अस्वीकृति के फलसवरूप हजरत मुहम्मद द्वारा यह घोषणा कर दी के इनके (हजरत अली (अस)  के ) बिना कोई भी कर्म या पूजा के कृत्यों इनके लिए नहीं जमा किये जायेंगे और ना ही अल्लाह इनके धर्मो कर्मो को स्वीकार करेगा! इसी कारण हजरत मुहम्मद (स अ व ), उनकी पुत्री हजरत फातिमा ज़हरा (स:अ) ने सारी ज़िंदगी अल्लाह के इस फैसले को बचाने में निछावर कर दी! और इन्ही कारणों से उन्हें शहीद भी कर दिया  गया!

जब इमाम हुसैन (अस) कुफा के रेगिस्तान से कर्बला की तरफ जा रहे थे तो किसी ने उनसे उनकी यात्रा का उद्देश्य पुछा! इमाम (अस) ने कहा, मै कर्बला, इस्लाम को पुनर्जीवित करने के लिए जा रहा हूँ  और मै उन  

 हत्यारों को उजागर करने जा रहा हूँ जिसने मेरे नाना मुहम्मद मुस्तफा (स अ व ) , मेरी माँ फातिमा ज़हर (स:अ), मेरे भाई हजरत हसन (अस) को क़त्ल किया है और इस्लाम को नेस्त-ओ-नाबूद करने में कोई कसार नहीं छोड़ी है!

 इमाम हुसैन (अस) पर यह संक्षिप्त लेख उत्तरार्द्ध सिद्धांत के अनुयायियों को समर्पित है.

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम : इमाम हुसैन (अल हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब, यानि अबी तालिब के बेटे अली के बेटे अल हुसैन, 626-680 ) अली अ० के दूसरे बेटे और पैग़म्बर मुहम्मद के नाती थे! आपकी माता का नाम फ़ातिमा जाहरा था । आप अपने माता पिता की द्वितीय सन्तान थे। आप शिया समुदाय के तीसरे इमाम हैं!

आपका  जन्म  3 शाबान, सन 4 हिजरी,  8 जनवरी 626 ईस्वी  को पवित्र शहर मदीना, सऊदी अरब) में हुआ था और आपकी शहादत  10 मुहर्रम 61 हिजरी (करबला, इराक) 10 अक्टूबर 680 ई. में वाके हुई!

आप के जन्म के बाद हज़रत पैगम्बर(स.) ने आपका नाम हुसैन रखा, आपके पहले "हुसैन" किसी का भी नाम नहीं था। आपके जनम के पश्चात हजरत जिब्रील (अस) ने अल्लाह के हुक्म से हजरत पैगम्बर (स) को यह सूचना भेजी के आप पर एक महान विपत्ति पड़ेगी, जिसे सुन कर हजरत पैगम्बर (स) रोने लगे थे और कहा था अल्लाह तेरी हत्या करने वाले पर लानत करे।

आपकी मुख्य अपाधियाँ  निम्नलिखित हैं :

*      मिस्बाहुल हुदा

*      सैय्यिदुश शोहदा

*      अबु अबदुल्लाह

*       सफ़ीनातुन निजात

 इतिहासकार मसूदी ने उल्लेख किया है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम छः वर्ष की आयु तक हज़रत पैगम्बर(स.) के साथ रहे। तथा इस समय सीमा में  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को सदाचार सिखाने ज्ञान प्रदान करने तथा भोजन कराने  का उत्तरदायित्व स्वंम पैगम्बर(स.) के ऊपर था।  पैगम्बर(स.)  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अत्यधिक प्रेम करते थे। वह उनका छोटा सा दुखः भी सहन नहीं कर पाते थे।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से प्रेम के सम्बन्ध में पैगम्बर(स.) के इस प्रसिद्ध कथन का शिया व सुन्नी दोनो सम्प्रदायों के विद्वानो ने उल्लेख किया है। कि पैगम्बर(स.) ने कहा कि हुसैन मुझसे हैऔर मैं हुसैन से हूँ। अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे।

हज़रत पैगम्बर(स.) के स्वर्गवास के बाद हज़रत  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम तीस (30)  वर्षों तक अपने पिता हज़रत इमामइमाम अली अलैहिस्सलाम के साथ रहे। और सम्स्त घटनाओं व विपत्तियों में अपने पिता का हर प्रकार से सहयोग करते रहे।

हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद दस वर्षों तक अपने बड़े भाई इमाम हसन के साथ रहे। तथा सन् पचास (50) हिजरी में उनकी शहादत के पश्चात दस वर्षों तक घटित होने वाली घटनाओं का अवलोकन करते हुए मुआविया का विरोध करते रहे । जब सन् साठ (60) हिजरी में मुआविया का देहान्त हो गय, व उसके बेटे यज़ीद ने गद्दी पर बैठने के बाद हज़रत   इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बैअत (आधीनता स्वीकार करना) करने के लिए कहा, तो आपने बैअत करने से मना कर दिया।और इस्लामकी रक्षा हेतु वीरता पूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गये।

हज़रत मुहम्मद (स.)  साहब को अपने नातियों से बहुत प्यार था मुआविया ने अली अ० से खिलाफ़त के लिए लड़ाई लड़ी थी । अली के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र हसन को खलीफ़ा बनना था । मुआविया को ये बात पसन्द नहीं थी । वो हसन अ० से संघर्ष कर खिलाफ़त की गद्दी चाहता था । हसन अ० ने इस शर्त पर कि वो मुआविया की अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे, मुआविया को खिलाफ़त दे दी । लेकिन इतने पर भी मुआविया प्रसन्न नहीं रहा और अंततः उसने हसन को ज़हर पिलवाकर मार डाला । मुआविया से हुई संधि के मुताबिक, हसन के मरने बाद 10 साल (यानि 679 तक) तक उनके छोटे भाई हुसैन खलीफ़ा बनेंगे पर मुआविया को ये भी पसन्द नहीं आया । उसने हुसैन साहब को खिलाफ़त देने से मना कर दिया । इस दस साल की अवधि के आखिरी 6 महीने पहले मुआविया की मृत्यु हो गई । शर्त के मुताबिक मुआविया की कोई संतान खिलाफत की हकदार नहीं होगी, फ़िर भी उसका बेटा याज़िद प्रथम खलीफ़ा बन गया और इस्लाम धर्म में अपने अनुसार बुराईयाँ जेसे शराबखोरि, अय्याशी, वगरह लाना चाह्ता था। आप ने इसका विरोध किया, इस कुकर्मी शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए  इमाम हुसैन (अस)  को शहीद कर दिया गया, इसी कारण आपको  इस्लाम में एक शहीद का दर्ज़ा प्राप्त है। आपकी  शहादत के दिन को अशुरा (दसवाँ दिन) कहते हैं और इसकी याद में मुहर्रम (उस महीने का नाम) मनाते हैं ।

करबला की लडाई

करबला ईराक का एक प्रमुख शहर है । करबला, इराक की राजधानी बगदाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा है! यह क्षेत्र सीरियाई मरुस्थल के कोने में स्थित है । करबला शिया स्मुदाय में मक्का के बाद दूसरी सबसे प्रमुख जगह है । कई मुसलमान अपने मक्का की यात्रा के बाद करबला भी जाते हैं । इस स्थान पर इमाम हुसैन का मक़बरा भी है जहाँ सुनहले रंग की गुम्बद बहुत आकर्षक है । इसे 1801 में कुछ अधर्मी लोगो ने नष्ट भी किया था पर फ़ारस (ईरान) के लोगों द्वारा यह फ़िर से बनाया गया ।  

 यहा पर इमाम हुसैन ने अपने नाना मुहम्मद स्० के सिधान्तो की रक्षा के लिए बहुत बड़ा बलिदान दिया था । इस स्थान पर आपको और आपके लगभग पूरे परिवार और अनुयायियों को यजिद नामक व्यक्ति के आदेश पर सन् 680 (हिजरी 58) में शहीद किया गया था जो उस समय शासन करता था और इस्लाम धर्म में अपने अनुसार बुराईयाँ जेसे शराबखोरि,अय्याशी, वगरह लाना चाह्ता था। ।

करबला की लडा़ई मानव इतिहास कि एक बहुत ही अजीब घटना है। यह सिर्फ एक लडा़ई ही नही बल्कि जिन्दगी के सभी पहलुओ की मार्ग दर्शक भी है। इस लडा़ई की बुनियाद तो ह० मुहम्मद मुस्त्फा़ स० के देहान्त के  के तुरंत बाद  रखी जा चुकी थी। इमाम अली अ० का खलीफा बनना कुछ अधर्मी लोगो को पसंद नहीं था तो कई लडा़ईयाँ हुईं अली अ० को शहीद कर दिया गया, तो उनके पश्चात इमाम हसन अ० खलीफा बने उनको भी शहीद कर दिया गया। यहाँ ये बताना आवश्यक है कि, इमाम हसन को किसने और क्यों शहीद किया? असल मे अली अ० के समय मे सिफ्फीन नामक लडा़ई मे माविया ने मुँह की खाई वो खलीफा बनना चाहता था प‍र न बन सका। वो सीरिया का गवर्नर पिछ्ले खलिफाओं के कारण बना था अब वो अपनी एक बडी़ सेना तैयार कर रहा था जो इस्लाम के नही वरन उसके अपने लिये थी, नही तो उस्मान के क्त्ल के वक्त खलिफा कि मदद के लिये हुक्म के बावजूद क्यों नही भेजी गई? अब उसने वही सवाल इमाम हसन के सामने रखा या तो युद्ध या फिर अधीनता। इमाम हसन ने अधीनता स्वीकार नही की परन्तु वो मुसलमानो का खून भी नहीं बहाना चाहते थे इस कारण वो युद्ध से दूर रहे अब माविया भी किसी भी तरह सत्ता चाहता था तो इमाम हसन से सन्धि करने पर मजबूर हो गया इमाम हसन ने अपनी शर्तो पर उसको सि‍र्फ सत्ता सोंपी इन शर्तो मे से कुछ ये हैं: -

    वो सिर्फ सत्ता के कामो तक सीमित रहेगा धर्म मे कोई हस्तक्षेप नही कर सकेगा।
    वो अपने जीवन तक ही सत्ता मे रहेगा म‍रने से पहले किसी को उत्तराधिकारी न बना सकेगा।
    उसके म्ररने के बाद इमाम हसन खलिफा़ होगे यदि इमाम हसन कि मृत्यु हो जाये तो इमाम हुसैन को खलिफा माना जायगा।
    वो सिर्फ इस्लाम के कानूनों का पालन करेगा।

 इस प्रकार की शर्तो के द्वारा वो सिर्फ नाम मात्र का शासक रह गया, उसने अपने इस संधि को अधिक महत्व नहीं दिया इस कारण करब्ला नामक स्थान मे एक धर्म युध हुआ था जो मुहम्म्द स्० के नाती तथा अधर्मी यजीद (पुत्र माविया पुत्र अबुसुफियान पुत्र उमेय्या)के बीच हुआ जिसमे वास्त्व मे जीत इमाम हुसेन अ० की हुई प‍र जाहिरी जीत यजीद कि हुई क्योकि इमाम हुसेन अ० को व उन्के सभी साथीयो को शहीद कर दिया गया था उन्के सिर्फ् एक पुत्र अली अ० (जेनुलाबेदीन्)जो कि बिमारी के कारन युध मे भाग न ले सके थे बचे आज यजीद नाम इतना जहन से गिर चुका हे कोई मुसलमान् अपने बेटे का नाम यजीद नही रखता जबकी दुनिया मे ह्सन व हुसेन नामक अरबो मुस्ल्मान हे यजीद कि नस्लो का कुछ पता नही पर इमाम हुसेन कि औलादे जो सादात कहलाती हे जो इमाम जेनुलाबेदीन अ० से चली दुनिया भ‍र मे फेले हे
 

इमाम हुसैन (अस)   विरोध और उसका उद्देश्य

 हज़रत  इमाम हुसैन (अस)     ने सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (किसी के विरूद्ध उठ खड़ा होना) किया। उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को अपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि

    जब शासकीय यातनाओं से तंग आकर हज़रत  इमाम हुसैन (अस) मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये तो उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को इस प्रकार स्पष्ट किया। कि मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमय जीवन यापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए क़ियाम नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मैं केवल अपने नाना (पैगम्बरे इस्लाम)  की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार हेतु जारहा हूँ। तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाई की ओर बुलाना व बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैगम्बर(स.) व अपने पिता इमाम अली (अस) की सुन्नत(शैली) पर चलूँगा।

    एक दूसरे अवसर पर कहा कि ऐ अल्लाह तू जानता है कि हम ने जो कुछ किया वह शासकीय शत्रुत या सांसारिक मोहमाया के कारण नहीं किया। बल्कि हमारा उद्देश्य यह है कि तेरे धर्म की निशानियों को यथा स्थान पर पहुँचाए। तथा तेरी प्रजा के मध्य सुधार करें ताकि तेरी प्रजा अत्याचारियों से सुरक्षित रह कर तेरे धर्म के सुन्नत व वाजिब आदेशों का पालन कर सके।

    जब आप की भेंट हुर पुत्र यज़ीदे रिहायी की सेना से हुई तो, आपने कहा कि ऐ लोगो अगर तुम अल्लाह से डरते हो और हक़ को  हक़दार के पास देखना चाहते हो तो यह कार्य अल्लसाह को प्रसन्न करने के लिए बहुत अच्छा है। ख़िलाफ़त पद के अन्य अत्याचारी व व्याभीचारी दावेदारों की अपेक्षा हम अहलेबैत सबसे अधिक अधिकारी हैं।

    एक अन्य स्थान पर कहा कि हम अहलेबैत शासन के उन लोगों से अधिक अधिकारी हैं जो शासन कर रहे है।  

 इन चार कथनों में जिन उद्देश्यों की और संकेत किया गया है वह इस प्रकार हैं,

1.      इस्लामी समाज में सुधार।

2.      जनता को अच्छे कार्य करने का उपदेश ।

3.      जनता को बुरे कार्यो के करने से रोकना।

4.      हज़रत पैगम्बर(स.) और हज़रत इमाम अली (अस) की सुन्नत(शैली) को किर्यान्वित करना।

5.      समाज को शांति व सुरक्षा प्रदान करना।

6.      अल्लाह के आदेशो के पालन हेतु भूमिका तैयार करना।

यह समस्त उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब शासन की बाग़ डोर स्वंय इमाम के हाथो में हो, जो इसके वास्तविक अधिकारी भी हैं। अतः इमाम ने स्वंय कहा भी है कि शासन हम अहलेबैत का अधिकार है न कि शासन कर रहे उन लोगों का जो अत्याचारी व व्याभीचारी हैं।

इमाम हुसैन (अस)  के विरोध के परिणाम

    बनी उमैया के वह धार्मिक षड़यन्त्र छिन्न भिन्न हो गये जिनके आधार पर उन्होंने अपनी सत्ता को शक्ति प्रदान की थी।
    बनी उमैया के उन शासकों को लज्जित होना पडा जो सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते थे कि इस्लाम से पूर्व के मूर्खतापूर्ण प्रबन्धो को क्रियान्वित किया जाये।
    कर्बला के मैदान में  इमाम हुसैन (अस)  की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जागृत हुई; कि हमने  इमाम हुसैन (अस)  की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है।

इस चेतना से दो चीज़े उभर कर सामने आईं एक तो यह कि इमाम की सहायता न करके जो गुनाह (पाप) किया उसका परायश्चित होना चाहिए। दूसरे यह कि जो लोग इमाम की सहायता में बाधक बने थे उनकी ओर से लोगों के दिलो में घृणा व द्वेष उत्पन्न हो गया।

 इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरन्तर भड़कती चली गयी। तथा बनी उमैया से बदला लेने व अत्याचारी शासन को उखाड़ फेकने की भावना प्रबल होती गयी।

अतः तव्वाबीन समूह ने अपने इसी गुनाह के परायश्चित के लिए क़ियाम किया। ताकि इमाम की हत्या का बदला ले सकें।

    इमाम हुसैन (अस)     के क़ियाम ने लोगों के अन्दर अत्याचार का विरोध करने के लिए प्राण फूँक दिये। इस प्रकार इमाम के क़ियाम व कर्बला के खून ने हर उस बाँध को तोड़ डाला जो इन्क़लाब (क्रान्ति) के मार्ग में बाधक था।
    इमाम के क़ियाम ने जनता को यह शिक्षा दी कि कभी भी किसी के सम्मुख अपनी मानवता को न बेंचो । शैतानी ताकतों से लड़ो व इस्लामी सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक चीज़ को नयौछावर कर दो।
    समाज के अन्दर यह नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमान जनक जीवन से सम्मान जनक मृत्यु श्रेष्ठ है।

 

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Mesam Naqvi

हालाते ज़िंदगी

उलामा ऐ फरीक़ैन की अकसरीयत का इत्तेफाक़ है कि इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम 10 रबीउस् सानी 232 हिजरी को रोज़े जुमा बवक्ते सुबह जनाबे हुदैसा खातून की कोख से पैदा हुऐ।

(जिलाउल उयून पेज न. 295)

आपकी विलादत के बाद इमाम अली नकी अ.स. ने रसूले अकरम (स.अ.व.व) के रखे हुऐ नाम हसन बिन अली को आप से मंसूब किया।

(यनाबिउल मुवद्दा)

आपकी कुन्नीयत और अलक़ाब

आपकी कुन्नीयत अबुमौहम्मद थी और आपके अलक़ाब बेशुमार थे। जिनमे सबसे ज्यादा मशहूर लक़ब असकरी, ज़की, सिराज और इब्ने रज़ा हैं।

(नूरूल अबसार पेज न. 150)

आपके ज़माने के बादशाह

आपकी विलादत 232 हि. मे हुई जबकि वासिक़ बिल्लाह बिन मौतसिम बादशाहे वक्त था जो 227 हि. मे खलीफा बना था। फिर 233 मे मुतावक्कल खलीफा हुआ। फिर 236 हि. मे मुसतनसिर बिन मुतावक्किल खलीफा बना था। फिर 248 हि. मे मुसतईन खलीफा बना था फिर 252 हि. मे मौतज़ बिल्लाह खलीफा बना था फिर 255 हि. मे मेहदी बिल्लाह खलीफा बना था फिर 256 हि. मे मौतमद अलल्लाह खलीफा हुआ और इसी ज़माने 260 हि. मे इमाम असकरी अलैहिस्सलाम शहीद हुऐ।

चार माह की उम्र और मंसबे इमामत

इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की उम्र जब चार महीने के करीब हुई तो इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम ने अपने बाद के लिऐ मंसबे इमामत की वसीयत की और फरमाया कि मेरे बाद यही (इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम) मेरे जानशीन होंगे और इस पर बहुत से लोगो को गवाह कर दिया।

(इरशादे मुफीद 502)

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

चार साल की उम्र मे आपका इराक़ का सफर

मुतावक्कल अब्बासी जो आले मोहम्मद का हमेशा से दुश्मन था। उसने इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के वालिदे बुज़ुर्गवार इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम को जबरदस्ती 236 हि. मे बुलवा लिया। इमाम असकरी अलैहिस्सलाम को भी दसवे इमाम के साथ इराक़ जाना पड़ा। उस वक्त आपकी उम्र चार साल थी।

(अद्दमतुस् साकेबा जिल्द 3 पेज न. 162)

इमाम असकरी अलैहिस्सलाम और उरूजे फिक्र

आले मौहम्मद अलैहेमुस्सलाम जो उरूजे फिक्र मे खास मक़ाम रखते है और इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम उन्ही हज़रात मे की एक कड़ी है। शिया सुन्नी दोनो के उलामा ने लिखा है कि एक दिन इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम एक ऐसी जगह पर खड़े थे जिस जगह कुछ बच्चे खेल रहे थे इत्तिफाक़न उसी वक्त आरिफे आले मौहम्मद जनाबे बहलोल दाना का गुज़र उधर से हुआ। उन्होने ये देखा कि सब बच्चे खेल रहे है। एक खूबसूरत सुर्ख व सफेद बच्चा खड़ा रो रहा है। जनाबे बहलोल ने इमाम असकरी अलैहिस्सलाम से कहा कि ऐ नोनीहाल मुझे बड़ा अफसोस है कि तुम इसलिऐ रो रहे हो कि तुम्हारे पास वो खिलोना नही है कि जो इन बच्चो के पास है सुनो मै अभी तुम्हारे लिऐ खिलोने लाता हुँ। ये कहना था कि इमाम हसन असकरी ने अपनी कमसिनी के बावजूद फरमाया कि ऐ नासमझ हम खेलने के लिऐ नही पैदा किये गऐ है। हम इल्म और इबादत के लिऐ पैदा किये गऐ है।

जनाबे बहलोल ने पूछाः तुम्हे ये कैसे मालूम हुआ कि हम इल्म और इबादत के लिऐ पैदा किये गऐ है।

तो इमाम ने फरमायाः इसकी हिदायत हमे कुराने मजीद करता है और फिर ये आयत तिलावत फरमाईः

أَفَحَسِبْتُمْأَنَّمَاخَلَقْنَاکُمْعَبَثًاوَأَنَّکُمْإِلَیْنَالَاتُرْجَعُونَ

क्या तुम ये गुमान करते हो कि हमने तुम्हे अबस (बेकार) मे पैदा किया है और क्या तुम हमारी तरफ पलट कर नही आओगे।

(सूराऐ मौमेनून आयत न. 115)

ये सुनकर जनाबे बहलोल हैरान रह गऐ और कहने पर मजबूर हो गऐ कि ऐ बेटा फिर तुम्हे क्या हो गया था कि तुम रो रहे थे तुमसे गुनाह का तसव्वुर तो हो नही सकता क्योकि तुम बहुत छोटे हो।

इमाम ने फरमाया कि छोटे होने से क्या होता है मैने अपनी माँ को देखा कि वो बड़ी लकड़ीयो को जलाने के लिऐ छोटी लकड़ीयाँ इस्तेमाल करती है।

(सवाऐक़े मोहर्रेक़ा पेज न. 124)

इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के साथ बादशाहाने वक्त का सुलूक

जिस तरह आपके आबाओ अजदाद के वुजुद को उनके अहद के बादशाह अपनी सल्तनत और हुक्मरानी के लिऐ खतरा समझते रहे और उनका ये ख्याल रहा कि दुनिया के दिल इनकी तरफ माएल है क्योकि ये फरज़न्दे रसूल और आमाले नेक के ताजदार है लिहाज़ा इनको लोगो की निगाहो से दूर रखा जाऐ वरना बहुत मुमकिन है कि लोग इन्हे अपना बादशाह न बना ले और ये बुग्ज़ भी था कि इनकी इज़्ज़त बादशाह के मुक़ाबिले मे ज्यादा की जाती है और ये कि इमाम मेहदी इन्ही की नस्ल से होंगे कि जो इंक़ेलाब लाऐंगे।

इन्ही तसव्वुरो ने जिस तरह इमाम के बुज़ुर्गो को चैन की सास न लेने दिया इसी तरह आपके वक्त के बादशाहो ने भी आप पर ज़ुल्म और मसाएब की इंतेहा कर दी।

(तारीखे अबुल फिदा जिल्द 2 पेज न. 14)

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

इमाम अली नकी की शहादत और इमाम हसन असकरी की इमामत का आग़ाज़

जब इमाम अली नकी अलैहिस्सलाम ने अपने फरज़न्द इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की शादी जनाबे नरजिस खातून से करदी। जो क़ैसरे रोम की पोती और शमऊन वसीऐ जनाबे ईसा की नस्ल से थी।

(जिलाउल उयून पेज न. 298)

उसके बाद आप 3 रजब 254 हि मे दरजाऐ शहादत पर फाऐज़ हो गऐ।

इमाम नकी अ.स. की शहादत के बाद इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की इमामत का आग़ाज़ हुआ और मोमेनीन ने आपकी खिदमत मे आना जाना, शरई रक़मे लाना और सवाल जबाव का सिलसिला शूरू कर दिया।

इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम ने जवाबात मे ऐसे हैरत अंगेज़ मालूमात को लोगो तक पहुचाया कि लोग दंग रह गऐ और हैरत मे पड़ गऐ।

आपने इल्मे ग़ैब और मौत के इल्म तक के सूबूत लोगो के सामने पेश फरमाऐ और इस बात की भी वज़ाहत की कि फुला शख्स को इतने दिन मे मौत आ जाऐगी।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

इमाम का अपने अक़ीदतमंदो मे दौरा

जाफर बिन शरीफ जरजानी बयान करते है कि मै हज से फराग़त हासिल करके हज़रत इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की खिदमत मे हाज़िर हुआ और उनसे अर्ज़ की कि मौला अहले जुरजान आपकी मुलाक़ात के खाहिशमंद है।

इमाम ने फरमायाः तुम आज से 190 दिन बाद जुरजान पहुँचोगे और जिस दिन तुम पहुँचोगे उसी दिन शाम को मैं भी पहुँच जाऊँगा। तुम जुरजान वालो को बाखबर कर देना।

और ऐसा ही हुआ जिस दिन मैं जुरजान पहुँचा मौला भी उसी दिन तशरीफ ले आऐ और सब लोगो से मुलाक़ात की। फिर लोगो ने अपनी मुश्किलात मौला के सामने रखी। इमाम ने सबको मुतमईन कर दिया और इसी सिलसिले मे नस्र बिन जाबिर ने अपने फरज़ंद को पेश किया जो नाबीना (अंधा) था हज़रत ने उसके चेहरे पर दस्ते मुबारक फेर कर उसे बीनाई अता की।

(कशफुल ग़ुम्मा पेज न. 128)

एक शख्स ने इमाम को बिना रोशनाई के क़लम से खत लिखा। इमाम ने उसका भी जवाब दिया और साथ ही खत लिखने वाले और उसके बाप का नाम भी तहरीर फरमाया।

ये करामत देख कर वो शख्स हैरान हो गया और इस्लाम ले आया और आपकी इमामत का क़ायल हो गया।

(अद्दमतुस साकेबा पेज न. 172)

पत्थर पर मोहर

सिक़तुल इस्लाम अल्लामा कुलैनी और इमामे अहलैसुन्नत अल्लामा जामी लिखते है कि एक दिन इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की खिदमत मे एक खूबसूरत सा यमनी शख्स आया और उसने एक पत्थर का टुकड़ा पेश करके इमाम से खाहिश की कि आप इस पर अपनी इमामत की तसदीक़ मे मोहर लगा दे। इमाम ने मोहर निकाली और उस पत्थर पर लगा दी। और आपका नामे नामी उस पत्थर पर इस तरह लिखा गया कि जिस तरह मोम पर मोहर लगाने से लिखा जाता है।

(आलामुल वुरा पेज न. 214)

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

इमाम हसन असकरी और खुसुसियाते मज़हब

इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम का इरशाद है कि हमारे मज़हब मे उन लोगो का शुमार होगा जो उसूलो फुरूअ और दिगर लवाजिमात के साथ साथ इन दस चीज़ो के क़ायल हो बल्कि इन पर अमलपैरा होः

शबो रोज़ मे 5 1 रकत नमाज़ पढ़ना।

सजदागाहे करबला पर सजदा करना।

दाहिने हाथ मे अंगुठी पहनना।

अज़ान और अक़ामत के जुमले दो दो मर्तबा कहना।

अज़ान और अक़ामत मे हय्या अला खैरिल अमल कहना।

नमाज़ मे बुलंद आवाज़ मे बिस्मिल्लाह पढ़ना।

हर दूसरी रकत मे क़ुनुत पढ़ना।

सूरज की ज़रदी से पहले नमाज़े अस्र और तारो के डूब जाने से पहले नमाज़े सुबह पढ़ना।

सर और दाढ़ी मे वस्मा का खिज़ाब लगाना।

नमाज़े मय्यत मे पाँच तकबीर कहना।

(अद्दमतुस साकेबा जिल्द 3 पेज न. 172)

इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की गिरफ्तारी

256 हिजरी में मोतमिद अब्बासी ने खिलाफत की बाग डोर संभालते ही अपने खानदानी किरदार को पैश करना शुरू कर दिया और ये कोशिश शुरू कर दी कि ज़मान आले मौहम्मद के वजूद से खाली हो जाऐ। उसने हूक्म दिया कि इस ज़माने मे खानदाने रिसालत की यादगार इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम को क़ैद कर दिया जाऐ।

आखिर कार इमाम को क़ैद कर दिया गया और आप पर अली बिन औताश नामी एक नासबी और दुश्मने आले मौहम्मद को मुसल्लत किया गया और उसे कहा गया जो चाहे ज़ुल्म करो तुमसे कोई पूछने वाला नही है और उसने भी हर तरह के ज़ुल्म ढ़हाना शुरू कर दिये। न खुदा का खौफ किया और न पैग़म्बर की शर्म।

लेकिन अल्लाह अल्लाह औलादे पैग़म्बर का ज़ौहद व तक़वा कि दो चार ही दिन मे इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की इबादत ग़ुज़ारी और तक़वा व परहेज़ गारी को देख कर वो शख्स बेहद शर्मिंदा हो गया। यहाँ तक की वो वक़्त आ गया कि अली बिन औताश इमाम के दुश्मनो की सफ से निकल कर आपका चाहने वाला और शिया हो गया।

(आलामुलवुरा पेज न. 218)

अबू हाशिम दाऊद बिन क़ासिम का बयान है कि हम लोग भी इमाम के साथ अपनी क़ैद के दिन गुज़ार रहे थे कि एक दिन ग़ुलाम खाना लाया। हज़रत ने फरमाया के मे शाम का खाना नही लूंगा और उसी दिन अस्र के वक़्त इमाम क़ैदखाने से रिहा हो गऐ।

(आलामुलवुरा पेज न.214)

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

इमाम हसन असकरी अ.स. और उबैदुल्लाह वज़ीर मोतमद अब्बासी

एक बार इमाम असकरी अलैहिस्सलाम मुतावक्कल के वज़ीर फतह इब्ने खाक़ान के बेटे उबैदुल्लाह से कि जो मोतमिद का वज़ीर था, मिलने के लिए तशरीफ ले गऐ। उबैदुल्लाह ने इमाम की बेइन्तेहा ताज़ीम की और इस तरह आपसे महवे गुफ्तूगु हो गया के मोतमद का भाई मुवफ्फक़ दरबार मे आया तो उसने मुवफ्फक़ की कोई परवाह न की। ये हज़रत की क़दरो मन्ज़िलत और खुदा की दी हुई इज़्ज़त का नतीजा था।

(मनाकिबे इब्ने शहर आशोब जिल्द 5 पेज न. 124)

इमाम हसन असकरी अ.स. की शहादत

ग्यारवे इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम क़ैदो बन्द की ज़िन्दगी गुज़ारने के दौरान मे एक दिन अपने खादिम अबू अदयान से इरशाद फरमाते है कि तुम जब अपने मदाइन से पलटोगे तो मेरे घर से रोने-पीटने की सदाऐ आती होगी।

(जिलाउल उयुन पेज न. 299)

अलगरज़ इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम को पहली रबीउल अव्वल 260 हि. को मोतमद अब्बासी ने ज़हर दिलवाया और आप 8 रबीउल अव्वल 260 हिजरी को जुमे के दिन सुबह के वक़्त जामे शहादत नोश फरमा गऐ।

इन्ना लिल्लाह व इन्ना इलैहे राजेऊन।

(जिलाउल उयुन पेज न. 296)

[{अलहम्दो लिल्लाह किताब इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम पूरी टाईप हो गई खुदा वंदेआलम से दुआगौ हुं कि हमारे इस अमल को कुबुल फरमाऐ और इमाम हुसैन (अ.)फाउनडेशन को तरक्की इनायत फरमाए कि जिन्होने इस किताब को अपनी साइट (अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क) के लिऐ हिन्दी मे टाइप कराया।}]

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Mesam Naqvi

हज़रत इमाम हसन (अ.स) हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स) और सैयदतुन निसाइल आलमीन हज़रत फ़ातेमा (स.) के बेटे हैं।

इमाम हसन 15वीं रमज़ानुल मुबारक सन् 3 हिजरी में मदीना ए मुनव्वरा में पैदा हुए। इमाम हसन (अ.स) को ख़ुदा वंदे आलम ने हज़रत अली (अ.स) व हज़रत फ़ातेमा (अ.स) की पहली औलाद क़रार दिया।

रसूले इस्लाम (स) ने पैदाइश के फ़ौरन ही बाद अपनी गोद में लेकर आपके दाहिने कान में अज़ान और बायें कान में इक़ामत कही। आपके बाल कटवाकर उसके बराबर चाँदी जो एक दिरहम के लगभग बनती थी , ग़रीबों में बटवाई।

पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) ने हुक्म दिया कि सर पर ख़ूशबू लगाई जाए। उसके बाद से ही अक़ीक़ा और बच्चे के बालों के बराबर चाँदी सदक़ा देने की सुन्नत क़ायम हो गयी।

पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) ने इस बच्चे का नाम हसन रखा। यह नाम इससे पहले किसी का नही रखा गया था आपकी कुन्नीयत अबू मुहम्मद रखी और यह कुन्नीयत भी सिर्फ़ आपसे मख़सूस है।

अलक़ाब

आपके अलक़ाब सिब्त , सैयद , ज़की , मुज्तबा हैं। लेकिन इन सब में मशहूर मुज्तबा है।

पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) को इमाम हसन और इमाम हुसैन से एक ख़ास लगाव था जिसकी वजह से आपने कई जगह पर फ़रमाया: यह हसन व हुसैन मेरे बेटे हैं।

इस मौक़े पर हज़रत अली (अ.स) ने अपनी दूसरी औलाद के लिये फ़रमाया: कि तुम लोग मेरी औलाद हो और हसन व हुसैन पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) की औलाद हैं।

इमाम हसन ने सात साल और कुछ महीने की ज़िन्दगी अपने नाना की मुहब्बत भरी आग़ोश में ही गुज़ारी। लेकिन उनकी वफ़ात और जनाबे फ़ातिमा (अ.स) की शहादत- जो कि पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) की वफ़ात के दो या तीन महीने के बाद हुई उसके बाद इमाम अली ने इमाम हसन की तरबीयत को अपने हाथों में ले लिया।

खिलाफत

इमाम हसन अपने वालिदे बुज़ुर्गवार की शहादत के बाद हुक्मे ख़ुदा और हज़रत अली की वसीयत के मुताबिक़ इमाम बने और आपने ज़ाहिरी ख़िलाफ़त की बाग डोर संभाली।

इस तरह तक़रीबन छ: महीने मुसलमानों के तमाम उमूर अंजाम दिये थे। इसी दौरान मुआविया जो अली और ख़ानदाने अली का सख़्त का सख़्त दुश्मन था और बरसों से ख़िलाफ़त के लिये (शुरु में ख़ूने उस्मान का बहाना लेकर और आख़िर में ख़िलाफ़त के दावेदार के रूप में खुल कर) जंग की थी।

इराक़ में जो कि इमाम हसन की ख़िलाफ़त की केन्द्र था उसने एक फ़ौज तैयार की और जंग शुरू कर दी। इमाम हसन अख़लाक़ी , जिस्मी और बुज़ुर्गी के ऐतबार से अपने नाना की तरह थे।

आप के हुलिये की तारीफ़ लोगों ने इस तरह से की है: आपके रुख़सारे मुबारक सुर्ख़ी माएल आख़ें स्याह , घनी दाढ़ी और बाल काले , गर्दन लम्बी , जिस्म मुनासिब , बाज़ू चौड़े , हठ्टीयाँ मज़बूत , क़द दरमीयाना , नक़्श व नुक़ूश जाज़िब ख़ूबसूरत और चेहरा पुरकशिश था।

इंसानी कमालात :

इमाम हसन कमालाते इंसानी में अपने बाप की निशानी और अपने नाना के कामिल नमूना थे जब तक पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) ज़िन्दा थे इमाम हसन और इमाम हुसैन को अपने पहलूओं में बिठाते कभी , अपने काँधों पर सवार करते तो कभी चूमते गले से लगाते थे।

आपने इमाम हसन व इमाम हुसैन के बारे में फ़रमाया: यह दोनो मेरे बेटे और इमाम हैं चाहे जंग करें या सुल्ह करें (इससे मुराद यह है कि बहरहाल यह इमाम व रहनुमा हैं) इमाम हसन ने 25 मर्तबा पैदल हज किया , इस तरह से कि घोड़े की लगाम आपके हाथ में होती थी जब भी मौत और क़ब्र को याद करते रोते , रोज़े हिसाब को याद करते तो बेसाख़्ता चीख़ उठते और बेहोश हो जाया करते थे।

जब वुज़ू करते और नमाज़ के लिये खड़े होते थे तो बदन काँपने लगता और रंग ज़र्द हो जाया करता था। तीन बार अपनी सारी जायदाद को अल्लाह की राह में ख़ैरात कर दिया। और दो बार अपना हक़ लोगों पर माँफ़ कर दिया।

मुख़तसर यह कि इमाम हसन अपने ज़माने के आबिद तरीन और शरीफ़तरीन लोगों में से थे इमाम की फ़ितरत व तबीयत में इंसानीयत के बेहतरीन नमूने पाये जाते थे। जो भी उन्हे देखता उनकी कामों पर फ़िदा हो जाता था।

जो भी आपसे मुलाक़ात करता था आपका शैदाई हो जाता था , जो भी आपका ख़ुतबा सुनता चाहे दोस्त हो या दुश्मन , ख़ुतबा ख़त्म होते होते आपके चाहने वालों में से हो जाता।

मुहम्मद इब्ने इसहाक़ बयान करते हैं: अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) के बाद कोई इंसान इज़्ज़त व क़द्र व बुज़ुर्गी में इमाम हसन (अ.स) के मक़ाम तक नही पहुच सका।

जब इमाम हसन अपने घर के बाहर बैठ जाया करते थे तो रास्ता बंद हो जाता था आपके ऐहतेराम का यह आलम था कि आपके भाईयों में से कोई उधर से गुज़रता नही था। आप समझ जाते थे और उठ कर घर के अंदर चले जाते थे तब सब लोग आना शुरु करते थे।

एक बार मक्के के रास्ते में घोड़े से नीचे उतर कर पैदल चलने लगे तो क़ाफ़िले के तमाम लोगों ने पैदल चलना शुरु कर दिया यहाँ तक कि सअद इब्ने अबी वकास भी पैदल हो कर आपके साथ चलने लगे। इब्ने अब्बास जो कि इमाम हसन व इमाम हुसैन (अ.स) से बड़े थे , घोड़े की लगाम थामे हुऐ फ़ख्र से यह कहते चले जा रहे थे कि यह अल्लाह के रसूल(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) के बेटे हैं।

इस शान व मर्तबे के बावजूद उनकी सादगी का यह आलम था कि एक दिन ग़रीबों के एक गिरोह की तरफ़ से गुज़र रहे थे जो ज़मीन पर बैठे हुए थे ,जिनके सामने रोटीयों के कुछ टुकड़े ज़मीन पर रखे हुए थे जब उन्होने आपको देखा तो कहा ऐ नबी के लाल क्या आप हमारे साथ खाना पसंद करेगें। आप फ़ौरन घोड़े से उतरे और फ़रमाया अल्लाह तकब्बुर करने वालों को पसंद नही करता और इनके साथ खाने में शरीक हो गये। उसके बाद आपने उन लोगों को अपने घर आने की दावत दी। और आपने उनके खाने का इन्तेज़ाम भी किया और उनके लिबास का भी।

इमाम हसन (अ.स) के हाथ पर लोगों पर बैअत:

जिस वक़्त वह वहशतनाक वाक़िया पेश आया जिसमें हज़रत अली (अ.स) के मुबारक सर पर तलवार लगी और इमाम हसन (अ.स) को हुक्म दिया कि बेटा तुम नमाज़ पढ़ाओ और अपनी ज़िन्दगी के आख़री वक़्त में आपको अपना जा नशीन क़रार दिया। ऐ मेरे बेटा , मेरे बाद तुम मेरे जानशीन और मेरे ख़ून का इन्तेक़ाम लेने वाले हो। इस हुक्म से इमाम हुसैन (अ.स) और दूसरे तमाम बेटों , बुज़ुर्गाने शिया और ख़ानदान के सारे बुज़ुर्गों को आगाह किया और किताब और तलवार इमाम हसन के हवाले किया और उसके बाद फ़रमाया: ऐ मेरे बेटे अल्लाह के नबी(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) ने मुझे हुक्म दिया है कि मैं तुम्हे अपना जानशीन बनाऊँ और अपनी किताब और तलवार तुम्हारे हवाले कर दूँ। जिस तरह अल्लाह के रसूल(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम ) ने मुझे अपना जानशीन बनाया। और अपनी तलवार और किताब मेरे हवाले की। और साथ ही मुझे इस बात का भी हुक़्म भी दिया गया है कि मैं तुम से कह दूँ कि तुम भी अपनी ज़िन्दगी के आख़री वक़्त में इन तमाम चीज़ों को अपने भाई हुसैन के हवाले कर देना।

इमाम हसन (अ.स) मुसलमानों के दरमियान आए और अपने बाप के मिम्बर पर खड़े हुए ताकि हज़रत अली (अ.स) पर होने वाले हादसे की लोगों को ख़बर दें। अल्लाह और उसके रसूल(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम) की हम्द व सना के बाद फ़रमाया: वह शख़्स आज रात हमारे दरमीयान से चला गया जिस गुज़रे हुए लोग आगे न बढ़ सके और आगे भी कोई उसके बुलंद मर्तबे और मक़ाम तक नही पहुच सकेगा।

हज़रत अली (अ.स) ने दीने इस्लाम की राह में जिस हिम्मत व शुजाअत व बहादुरी व कोशिश का मुज़ाहिरा किया और जंगों में जो उन्हे कामयाबी नसीब हुई थी , आपने उसका भी तज़किरा किया। और इस बात की तरफ़ भी इशारा किया कि आख़री वक़्त सिर्फ़ सात सौ दिरहम आपके पास था वह भी बैतुल माल से मिलने वाला आपका हिस्सा था कि जिससे वह अपने घर वालों की ज़रुरतों को पूरा करना चाहते थे।

उसी वक़्त जब मस्जिद लोगों से भरी हुई थी , अदुल्लाह इब्ने अब्बास ने खड़े होकर लोगों से हज़रत इमाम हसन की बैअत के लिये अपील की और लोगों ने शौक़ व ख़ुशी से इमाम हसन की बैअत की। यह हज़रत अली (अ.स) की शहादत(यानी 21 रमज़ान 40 हिजरी) का दिन था। कूफ़ा व मदाएन , इराक़ व हिजाज़ और यमन के तमाम लोगों ने ख़ुशी ख़ुशी इमाम हसन (अ.स) की बैअत की सिवाए मुआविया के , जो दूसरी राह इख़्तियार करना चाहता था। वही रास्ता जो उसने हज़रत अली (अ.स) के ज़माने में इख़्तियार किया था।

जब लोग बैअत कर चुके तो आपने एक ख़ुतबा दिया और लोगों को अहले बैत (अ.स) जो दो क़ीमती चीज़ों (क़ुरआन व अहतेबैत) में से एक थे , की इताअत का हुक्म दिया और उनको शैतान और शैतान सिफ़त लोगों से बचने का हुक्म दिया।

इमाम हसन (अ.स) की ज़िन्दगी के तौर तरीक़े:

कुफ़े के क़याम के दौरान इमाम हसन (अ.स) लोगों के नज़दीक़ बहुत महबूब थे। रहबरी की तमाम शर्ते आपके मुबारक वुजूद में पूरी तरह से मौजूद थीं इसलिये कि आप नबी(स) के बेटे थे। आपके हर काम ईमान की शर्तों पर पूरे उतरने वाले थे।

दूसरी बात यह कि बैअत का तसव्वुर यह था कि लोग आपकी इताअत व फ़रमानदारी करें।इमाम (अ.स) ने तमाम उमूर को मुनज़्ज़म व मुरत्तब किया हाकिमाने शहर को मुअय्यन किया और तमाम इन्तेज़ामात को अपने हाथ में ले लिया। लेकिन अभी थोड़ा अर्सा भी नही गुज़रा कि लोगों नें जब इमाम हसन (अ.स) अपने बाप की तरह अदालत व इस्लामी अहकाम व सज़ाओं पर सख़्ती से अमल करते देखा , तो एक गिरोह ने अंदर ही अंदर साज़िशें रचना शुरु कर दीं।

यहाँ तक कि उन्होने मुआविया को चुपके से एक ख़त लिखा जिसमें उसे कुफ़े की तरफ़ बढ़ने पर उकसाया और साथ ही इस बात की भी गारंटी दी कि जैसे ही तुम्हारी फ़ौज इमाम हसन (अ.स) की छाँवनी के क़रीब पहुचेगी , हम इमाम हसन (अ.स) के हाथ बाँध कर तुम्हारे हवाले कर देगें या उन्हे क़त्ल कर देगें।

ख़वारिज भी जो हाशिमी हुकूमत के दुश्मन थे , आपसी इत्तेहाद की वजह से उनकी इस साज़िश में शरीक हो गये। मुनाफ़ेक़ीन के इस गिरोह के मुक़ाबले में , अली (अ.स) के मानने वाले शिया और मुहाजेरीन व अंसार की एक जमाअत थी जो कूफ़े आकर बस चुकी थी , दूसरी तरफ़ वह अख़लाक़ की बुलंदी पर पहुचे बुज़ुर्ग और अटल इरादे वाले लोग थे जिन्होने हर मौक़े पर चाहें वह बैअत की शुरुवात हो या जिहाद का ज़माना जब इमाम ने जिहाद का हुक्म दिया हर मौक़े पर डटे रहे।

इमाम हसन (अ.स) ने जब अपने मुक़ाबले में मुआविया की ज़्यादतीयों और बग़ावत को देखा और उसके ख़तों को पढ़ा तो उसको साज़िशों और ख़ून ख़राबे से रोकने की दावत दी लेकिन मुअविया इमाम हसन (अ.स) के जवाब में हमेशा सिर्फ़ एक ही बात को दलील बनाता कि मैं हुकूमत में तुम से पहले से हूँ और इस मामले में तुम से ज़्यादा तजरबेकार और उम्र में तुमसे बड़ा हूँ और बस।

मुआविया कभी अपने ख़तों में आपकी क़ाबिलीयत का ऐतराफ़ करते हुए लिखता था: मेरे बाद ख़िलाफ़त के हक़दार आप हैं इसलिये कि आपसे बेहतर और मुनासिब कोई नही है और आख़िर में इमाम हसन (अ.स) के दूतों को जो जवाब दिया वह यह था कि वापस चले जाओ। हमारे और तुम्हारे दरमीयान तलवार फ़ैसला करेगी।

इस तरह से ज़्यादती और दुश्मनी मुआविया की तरफ़ शुरु हुई यानी इमाम के ख़िलाफ़ क़त्ल व साज़िश की शुरुवात हुई और मुआविया अपनी साज़िश में कामयाब होते हुए जिस मौक़े की तलाश में था वह उसे हाथ आ गया। उसने ज़मीरफ़रोश और कमज़ोर ईमान वालों को ख़रीदना और उन्हे फ़ायदा पहुचाना शुरु कर दिया।

दूसरी तरफ़ उसने अपनी फ़ौज को जंग की तैयारी का हुक्म दे दिया। इमाम (अ.स) ने भी इन हालात को देखते हुए मुआविया की मक्कारी के मुक़ाबले में बहुत तेज़ी से क़दम उठाया और बाक़ायदा तौर पर जंग का ऐलान कर दिया।

अगर मुआविया की फ़ौज में सोने और जवाहिर के लालची और हुकूमते शाम के पिठ्ठू जंग के लिये तैयार हुए तो दूसरी तरफ़ इमाम हसन (अ.स) की फ़ौज में भी नूरानी चेहरे के मालिक अली (अ.स) के शियाँ मौजूद थे। जैसे हुज्र इब्ने अदी , अबू अय्यूब अँसारी , अदी इब्ने ख़ातम वग़ैरह ऐसे लोग थे जो इमाम हुसैन (अ.स) के क़ौल के मुताबिक़ एक एक इंसान पूरी पूरी फ़ौज पर भारी था।

लेकिन जहाँ बुज़ुर्ग और अज़ीम शख़्सीयतें थी वहीं कुछ सुस्त व अपाहिज लोग भी थे जिन्होने जंग से हाथ खैच कर भरपूर तरह से साज़िशें करने में लग गये और दुनिया की चमक पर फ़िदा हो गये।

इमाम हसन (अ.स) को पहले से ही इन हालात का शक था। इराक़ी फ़ौज की कुल तादाद 3 लाख बयान की गयी है।

इमाम हसन (अ.स) ने मस्जिदे कूफ़ा में एक ख़ुतबा दिया और सिपाहीयों को मज़बूत इरादे के साथ नुख़ैला की तरफ़ बढ़ने का हुक्म दिया। अदी इब्ने ख़ातम इमाम को हुक्म को मानने वाले पहले शख़्स थे जो सबसे पहले घोड़े पर सवार हुए और बहुत से लोगों ने उनकी तरह हुक्म की इताअत की।

इमाम हसन (अ.स) ने अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास को , जो आपके रिश्तेदारों में से थे और जिन्होने सबसे पहले आपकी बैअत के लिये लोगों को तैयार किया था , 12 हज़ार फ़ौज के साथ मसकन नामी जगह जो हाशिमीयों के वफ़ादार थे , की तऱफ़ रवाना किया।

मुआविया की साज़िशे

लेकिन मुआविया की साज़िशों और मक्कारीयों ने उन्हे अपने घेरे में ले लिया। इमाम (अ.स) के वफ़ादार और भरोसेमंद कमाँडर को दस लाख दिरहम की पेशकश देकर अपनी फ़ौज में शामिल कर लिया।

इसके नतीजे में 12 हज़ार सिपाहीयों में से 8 हज़ार सिपाही उबैदुल्लाह इब्ने अब्बास के साथ मुआविया के पास अपने दीन को दुनिया के बदले बेच कर चले गये।

उबैदुल्लाह के बाद फ़ौज के क़ैस इब्ने सअद हो गये , मुआविया के सिपाहीयों और मुनाफ़िक़ो ने उनके क़त्ल होने की अफ़वाह उड़ा कर इमाम हसन (अ.स) के सिपाहीयों की रूही ताक़त को कमज़ोर कर दिया।

मुआविया के एजेन्टों का एक गिरोह मदाएन से इमाम हसन (अ.स) के पास मिलने आया उसने भी इमाम हसन (अ.स) से कहा कि इस वक़्त लोगों की राय यह है कि आप सुल्ह कर लें।

दूसरी तरफ़ ख़वारिज में से एक ज़ालिम शख़्स ने आपकी रान पर बल्लम मारा जिससे उसका असर उनकी हठ्ठी तक हुआ और आपकी रान में एक बहुत बड़ा ज़ख़्म हो गया।

सुल्ह

बहरहाल इमाम (अ.स) के साथ ऐसे हालात पेश आ चुके थे कि सुल्ह के अलावा और कोई रास्ता नही था। जब मुआविया ने मुनासिब हालात देखे तो उसने फ़ौरन इमाम हसन (अ.स) के सामने सुल्ह का प्रस्ताव दे दिया।

इमाम हसन (अ.स) ने अपने सिपाहीयों से राय व मशविरे की ख़ातिर एक ख़ुतबा दिया और उन सब को जंग व सुल्ह जैसी दो राहों में से एक का इख्तियार दिया। ज़्यादा लोग सुल्ह के तरफ़दार थे। एक गिरोह ने अपनी ज़बान के ख़ंजर से इमाम (अ.स) को तकलीफ़ भी पहुचायी।

आख़िरकार मुआविया ने जो सुल्ह की पेशकश की थी इमाम हसन (अ.स) ने कबूल कर ली , लेकिन इस सुल्ह का मक़सद यह था कि उसमें क़ैद व शर्त व पाबंदी हो , इसलिये कि यह मालूम था कि मुआविया ज़्यादा दिन तक अपने वादे पर बाक़ी रहने वाला नही रह सकता और आईन्दा एक के बाद एक करके शर्त को अपने पैरों तले रौदेंगा।

जिसके नतीजे में उसके नापाक इरादे , वादाख़िलाफ़ी और बेईमानी लोगों पर वाज़ेह हो जायेगी। सुल्ह कबूल करने की एक वजह यह भी थी कि इमाम हसन (अ.स) चाहते थे कि मुआविया जिसका अस्ल मक़सद यह था कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को क़त्ल करे , नाहक़ खून बहाये। और अली (अ.स) के शियों को ख़त्म करे दे , सुल्ह के ज़रीये वह महफ़ूज़ रहते।

इस तरह इमाम हसन (अ.स) का चेहरा फिर निख़र कर सामने आ गया जिस तरह पैग़म्बरे इस्लाम(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम) ने इस सिलसिले में पहले ही भविष्यवाणी की थी कि जिस मुस्लेहे अकबर(सर्वश्रेष्ठ शाति प्रिय) के रूप में इस्लाम में उभर कर सामने आयेगें।

मुआविया ने जो सुल्ह की पेशकश की थी उसकी मक़सद दुनिया पा लेने के सिवा कुछ भी नही था और वह यह चाहता था कि हुकूमत पर क़ाबिज़ हो जाये। लेकिन इमाम हसन (अ.स) इस वजह से राज़ी नही हुए बल्कि वजह यह थी कि अपने मज़हब ओर अपने फ़िक्री उसूल को ख़त्म होने से बाक़ी रख सकें और अली (अ.स) के शिया भी क़त्ल होने से महफ़ूज़ रहें।

सुल्ह की शर्तें:

मुआविया इस बात का ज़िम्मेदार है कि अल्लाह की किताब , रसूललुल्लाह (सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम) की सुन्नत और ख़ुलाफ़ा की नेक सीरत पर अमल करेगा। और अपने बाद किसी को ख़लीफ़ा नही बनायेगा। इमाम हसन (अ.स) और अली (अ.स) की दूसरी तमाम औलादों और उनके शियों पर मुल्क में कहीं भी उनके ख़िलाफ़ कोई साज़िश नही करेगा।

और हज़रत अली (अ.स) पर होने वाले गाली गलौच पर पाबंदी होगी। किसी भी मुसलमान पर ज़ुल्म व ज़्यादती नही करेगा। आपने इन कसमों व वादों पर अल्लाह , उसके रसूल और बहुत से लोगों को गवाह बनाया।

मुआविया बहुत से लोगों के साथ कूफ़े आया ताकि सुल्ह की शर्तें इमाम हसन (अ.स) के सामने पेश हों और तमाम मुसलमानों को इस बात का इल्म हो जाये। लोगों का एक सैलाब कूफ़े की तरफ़ उमड़ पड़ा।

मुआविया ने मिम्बर पर जाकर यह तक़रीर की: ऐ अहले कूफ़ा क्या तुम समझते हो कि मैंने तुम से नमाज़ , रोज़ा व हज व ज़कात के लिये जंग नही की थी , बल्कि मैंने जो तुम से जंग की वह इस वजह से कि तुम पर हुकूमत करू , तुम्हारी हुकूमत की बागडोर अपने हाथों में ले लूँ। ख़ुदा ने मुझे इस मक़ाम तक पहुचा दिया है जबकि तुम इस बात पर ख़ुश नही हो। अब तुम यह बात कान खोल कर सुन लो कि हर वह ख़ून जो इस लड़ाई की वजह से ज़मीन पर बहा है , बे फ़ायदा है और हर वह वादा जो मैंने किसी से किया है , मेरे दोनों पैरों के नीचे है।

इसी तरह वह संधि प्रस्ताव जो उसने लिखा था , जिसकी पेशकश की थी , जिस पर अपनी मोहर लगाई थी उसे अपने दोनों पैरों तले रौंदा और इतनी जल्दी उसने अपने आपको बेइज़्ज़त कर लिया।

उसके बाद इमाम हसन (अ.स) इमामत के अज़मत व वक़ार के साथ जो लोगों की आख़ों को चकाचौंध और उनके ऐहतेराम पर मजबूर कर रही थी , मिम्बर पर आये। और एक इतिहासिक़ ख़ुतबा देते हुए अल्लाह की हम्द व सना और पैग़म्बरे अकरम(स) पर सलवात व सलाम के बाद इस तरह फ़रमाते हैं: ख़ुदा की क़सम मैं यह आरज़ू कर रहा था कि मैं लोगों में सबसे ज़्यादा उनकी भलाई चाहने वाला हूँ। और ख़ुदा का शुक्रगुज़ार हूँ कि मेरे दिल में किसी मुसलमान के लिये कोई नफ़रत नही है। और न ही मैं किसी मुसलमान को बुरा समझता हूँ। उसके बाद फ़रमाया: मुआविया यह समझता था कि मैं उसे ख़िलाफ़त का हक़दार समझता हूँ और ख़ुद को उसके लायक़ नही समझता , वह झूट बोलता है। मैं क़ुरआन मजीद और अल्लाह के रसूल(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम) के फ़ैसले के मुताबिक़ हुकूमत के लिये सारे लोगों से बेहतर हूँ लेकिन जिस वक़्त पैग़म्बरे इस्लाम(सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम) की वफ़ात हुई। उस वक़्त से मैं लोगों के ज़ुल्म व सितम का शिकार हो गया हूँ।

उसके बाद आपने ग़दीरे ख़ुम और अपने बाप की ख़िलाफ़त छिने जाने और ख़िलाफ़त की गुमराहीयों की तरफ़ इशारा किया और फ़रमाया:

यह गुमराही सबब बनी कि हक़ छिनने वाले आज़ाद हो गये और उनकी औलादें यानी मुआविया और उसके सिपाहीयों ने ख़िलाफ़त के मसले में लालच के काम लिया।

चुँकि मुआविया ने अपनी बातों में हजरत अली (अ.स) को बुरा भला कहा था लिहाज़ा इमाम हसन (अ.स) ने अपना तआरुफ़ कराने के साथ साथ अपने ख़ानदान की शराफ़त बयान करने के बाद मुआविया पर लानत भेजी और मुसलमानों की एक बड़ी तादाद ने मुआविया के सामने आमीन कहा।

इमाम हसन (अ.स) कुछ दिनों के बाद मदीने चले गये और मुआविया इस्लामी हुकूमत को अपने क़ब्ज़े में लेने के लिये इराक़ पहुच गया।

उसने अहले बैत (अ.स) और उनके शियों पर सख़्त तरीन पाबंदीयों व सज़ाओं को जाइज़ क़रार दे दिया।

इमाम हसन (अ.स) ने अपनी दस साला इमामत के दौरान बहुत सख़्त और मुश्किल ज़िन्दगी गुज़ारी जिसमें किसी तरह का कोई सुकून नही था हद तो यह है कि घर में चैन व सुकून नही था। आख़िरकार 50 हिजरी में मुआविया के कहने पर आपको ज़हर देकर शहीद कर दिया।

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Mesam Naqvi

अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क

विलादत

आप 17 रबीउल अव्वल 83 हि. को पीर के दिन मदीनाऐ मुनव्वरा मे पैदा।

(इरशादे मुफीद पेज न. 413, आलामुल वुरा पेज न. 159)

अल्लामा मजलिसी लिखते है कि जब आप बत्ने मादर मे थे तो कलाम फरमाया करते थे और विलादत के बाद आपने कलमाऐ शहादतैन जबान पर जारी किया।आप नाफबुरीदा और खतनाशुदा पैदा हुऐ थे।

(जिलाउल उयून पेज न. 265)

इस्मे गिरामी , कुन्नीयत और अलक़ाब

आप का नामे नामी जाफर , आपकी कुन्नीयत अबुअब्दिल्लाह , अबु इस्माईल और आपके अलक़ाब सादिक़ , साबिर , फाज़िल और ताहिर वगैरा थे।

अल्लामा मजलिसी लिखते है कि रसूले अकरम (स.अ.व.व) ने अपनी हयाते तैय्यबा मे खुद छठे इमाम का लक़ब सादिक़ अलैहिस्सलाम रख दिया था और उसकी वजह ये थी कि अहले आसमान के नज़दीक इमाम जाफर का लक़ब पहले से ही सादिक़ अलैहिस्सलाम था।

(जिलाउल उयून पेज न. 264)

और उलामा बयान करते है कि जन्नत मे जाफर नामी एक शीरीन नहर है उसी नहर की मुनासेबत से आपका ये नाम रखा गया क्योकि आपका फैज़े आम नहरे जारी की तरह था (यानी जिस तरह लोग एक नहर से बिना किसी रोक-टोक के फायदा उठाते है ऐसे ही इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की ज़ात से फायदा उठाते थे।)

(अरजहुल मतालिब पेज न. 361)

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

बादशाहाने वक्त

आपकी विलादत 83 हि. मे हुई इस वक्त अब्दुल मलिक बिन मरवान बादशाह था। फिर वलीद फिर सलमान फिर उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ फिर यज़ीद बिन अब्दुल मलिक फिर हश्शाम बिन अब्दुल मलिक फिर वलीद बिन यज़ीद बिन अब्दुल मलिक फिर यज़ीदुन नाक़िस फिर इब्राहीम बिन वलीद फिर मरवानुल हिमार खलीफा बनते रहे। और मरवानुल हिमार के बाद अमवी खानदान की सल्तनत का चिराग़ गुल हो गया और बनी अब्बास ने हुकुमत पर क़ब्जा कर लिया। बनी अब्बास का पहला बादशाह अबुल अब्बास सफ्फाह था और दूसरा बादशाह मंसूरे दवानकी था और इसी मंसूरे दवानक़ी ने अपनी हुकुमत के दो साल गुज़रने के बाद इमाम जाफरे सादिक़ अलैहिस्सलाम को ज़हर दिलवा कर शहीद कर दिया।

(आलामुल वुरा , अनवारुल हुसैनिया जिल्द न. 1 पेज न. 50)

अब्दुल मलिक बिन मरवान के दौर मे आपका एक मुनाज़ेरा

एक बार अब्दुल मलिक बिन मरवान के दरबार मे क़दरिया मुनाज़िर आया और उसने बादशाह के उलामा से मनाज़रे की माँग की। बादशाह के दरबारी उलामा ने उस से बहसो मुबाहेसा शूरू किया और कुछ ही घंटो मे वो सब के सब उस मनाज़िर से हार गये।

बादशाह को मालूम था कि ऐसे वक्त मे कहा रूजू किया जाऐ लिहाज़ा उसने पहली फुरसत मे इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम की खिदमत मे खत लिख कर , आपको दीने पैयम्बर का वास्ता दे कर बुलवा भेजा। इमाम ने ज़रूरते वक्त को समझते हुऐ इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम को शाम रवाना कर दिया।

जिस वक्त अब्दुल मलिक ने देखा कि इमाम बाकिर अलैहिस्सलाम के बदले इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम तशरीफ लाऐ है तो कहने लगा कि आप अभी कमसिन है और वो बड़ा पुराना मनाज़ेरे करने वाला है। कही ऐसा न हो कि आप भी उलामा की तरह शिकस्त खा बैठे। इसी लिऐ मुनासिब नही है कि मजलिसे मुनाज़ेरा दोबारा रखी जाऐ।

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इरशाद फरमाया कि बादशाह तू घबरा मत , अगर खुदा ने चाहा तो मै सिर्फ चंद मिन्टो मे मुनाज़ेरा खत्म कर दूँगा।

अल ग़रज़ सब लोग आ गऐ और मुनाज़ेरा शूरू हुआ।

और क्यो कि कदरीयो का ये अक़ीदा है कि खुदा बंदो के आमाल मे कोई दखल नही रखता और बंदे जो कुछ करते है खुद करते है लिहाज़ा इमाम ने उसके पहल करने की खाहिश पर फरमाया कि मै तुम से सिर्फ एक बात कहना चाहता हूँ और वो ये है कि तुम सूरऐ हम्द पढ़ो।

उस कदरियो के बुज़ुर्ग मनाज़िर और आलिम ने सूरऐ हम्द पढ़ना शूरू की और जब वो इय्याका नअबुदु व इय्याका नस्तईन पर पहुँचा कि जिसका तरजुमा ये है कि मैं सिर्फ तेरी ही इबादत करता हूँ और तुझ ही से मदद माँगता हूँ।

तो इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फरमायाः ठहर जाओ और मुझे इसका जवाब दो कि जब तुम्हारे अक़ीदे के मुताबिक़ खुदा को किसी मामले मे दखल देने का हक़ नही है तो फिर उससे मदद क्यो माँगते हो।

ये सुनकर वो खामोश हो गया और कोई जवाब न दे पाया।

और मजलिसे मुनाज़ेरा वही तमाम हो गई औऱ बादशाह बेहद खुश हुआ।

(तफसीरे बुरहान जिल्द न. 1 पेज न. 33)

क्या खुदा दुनिया को एक अंडे मे समो सकता है ?

अबुशाकिर देसानी नामी एक शख्स ने इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम के सहाबी हश्शाम बिन हकम से सवाल कराया कि क्या खुदा सारी दुनिया को एक अंडे मे समो सकता है और न अंडा बढ़े और न दुनिया घटे ???

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने जवाब दियाः बेशक वो हर चीज़ पर क़ादिर है।

उसने कहाः कोई मिसाल।

इमाम ने फरमायाः मिसाल के लिऐ आँख की छोटी सी पुतली काफी है। इसमे सारी दुनिया समा जाती है। न पुतली बढ़ती है , न दुनिया घटती है।

(उसूले काफी पेज न. 433)

जनाबे अबुहनीफा शार्गिदे इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम

ये तारीखी मुसल्लेमात मे से है कि अहले सुन्नत भाईयो के इमाम जनाबे अबुहनीफा इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के शार्गिदो मे एक है। लेकिन अल्लामा तक़ीयुद्दीन इब्ने तीमीया ने हमअस्र होने की वजह से इसमे मुनकिराना शुबह जाहिर किया है और इनके शुबह को शम्सुल उलामा अल्लामा शिबली नौमानी ने रद्द किया। यहा तक कि अल्लामा शिबली नोमानी ने इब्ने तीमीया की रद्द करते हुऐ आखिर मे लिखा इमाम अबुहनीफा लाख मुजतहिद और फक़ीह हो लेकिन फज़्लो कमाल मे हज़रत इमाम जाफरे सादिक़ अलैहिस्सलाम से क्या निस्बत , हदीस व फिक़ह बल्कि तमाम मज़हबी उलूम अहलेबैत के घर से निकले है।

صاحب البیت ادری بما فیھا

घर वाले घर की तमाम चीज़ो को जानते है।

(सीरतुन् नौमान पेज न. 45)

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का अखलाक़

अल्लामा इब्ने शहर आशोब लिखते है कि इक इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने एक गुलाम को किसी काम से बाज़ार भेजा। जब उसकी वापसी मे देर हुई तो इमाम उसे ढ़ूढ़ने निकल गऐ और उसे एक जगह पर सोता हुआ पाया। इमाम उसके सरहाने बैठ गऐ और उसे पंखा करने लगे। जब वो सोकर उठा तो आप ने उस से फरमाया कि रात सोने के लिऐ और दिन काम के लिऐ है आईन्दा ऐसा न करना।

(मनाक़िब जिल्द 5 पेज न. 52)

अल्लामा अली नक़ी नक़्क़न साहब लिखते है कि आप इसी सिलसिलाऐ इस्मत की इक कड़ी थे जिसे खुदा वंदे आलम ने तमाम इंसानो के लिऐ नमूनाऐ कामिल बना कर पैदा किया है। इनके अखलाक़ो औसाफ ज़िन्दगी के हर हिस्से मे मैयारी हैसीयत रखते थे। खास खास सिफात जिनके मुताल्लिक़ इतिहासकारो ने खास तौर पर वाकिआत नक़्ल किये है मेहमान नवाज़ी , खैरो खैरात , छुपकर गरीबो की मदद , रिश्तेदारो के साथ हुस्ने सुलुक और सब्र व बरदाश्त वग़ैरा है।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

सुफयाने सूरी बयान करते है कि मै एक मर्तबा इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की खिदमत मे हाज़िर हुआ तो देखा कि इमाम के चेहरे का रंग बदला हुआ है मैने वजह दरयाफ्त की तो इमाम ने फरमायाः मैने मना किया था कि कोई मकान की छत पर न जाऐ जब मै घर मे दाखिल हुआ तो एक कनीज़ हमारे एक बच्चे को लेकर छत पर जा रही थी। जब उसने मुझे देखा तो वो डर गई औऱ बच्चा उसके हाथ से छूट कर गिर गया है और वही पर मर गया।

मुझे बच्चे के मरने का इतना सदमा नही है जितना इसका रंज है कि इस कनीज़ पर इतना रौब व डर क्यो तारी हुआ।

फिर हज़रत ने उस कनीज़ को पुकार कर कहा कि डरो नही मैने तुम्हे राहे खुदा मे आज़ाद कर दिया।

उसके बाद इमाम उस बच्चे के कफन-दफन मे लग गऐ।

(सादिक़े आले मौहम्मद पेज न 12)

शार्गिदाने इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम और उनकी किताबे

इमाम जाफरे सादिक़ अलैहिस्सलाम के शार्गिदो की तादाद को उलामा ने चार हज़ार से भी ज़्यादा लिखा है और उनमे से बाज़ के नाम ये हैः इमाम अबुहनीफा , याहिया बिन सईद अंसारी , इब्ने जुरैह , इमाम मालिक बिन अनस , सुफयान सौरी , सुफयान बिन ऐनियह , अय्युब सजिस्तानी , जनाबे जाबिर इब्ने हय्यान , जनाबे जमरान , जनाबे अबान बिन तग़लब , फज्ल बिन शाज़ान , इब्ने दौल , इब्ने उमैर और जनाबे ज़ुरारा वगैरा है।

हज़रत के असहाब मे से चार सौ लेखको ने चार सौ ऐसी किताबे लिखी कि जिनमे उन्होने सिर्फ वो हदीसे लिखी कि जिन्हे उन्होने या तो खुद इमाम से सुना था या किसी ऐसे शख्स से रिवायत की कि जिसने हदीस को खुद इमाम से सुना था और इन किताबो को उसूले अरबा मिया का नाम दिया गया।

फज्ल बिन शाज़ान ने एकसौ अस्सी किताबे , इब्ने दौल ने सौ किताबे , बरक़ी ने भी तकरीबन सौ किताबे , इब्ने उमैर ने नव्वे किताबे लिखी और अकसर असहाबे आईम्मा ऐसे थे कि जिन्होने तीस या चालीस किताबे लिखी है।

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम और दूसरे इल्म

इतिहासिक किताबे इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के उन मुनाज़रो से भरी हुई है कि जिनमे इमाम ने इल्मे तिब , इल्मे कुरान , इल्मे नुजुम और इल्मे अजसाम वग़ैरा उलूम के बारे मे उन उलूम के बेहद माहिर अफराद से मुनाज़रे किये और उन्हे शिकस्त दी।

यहा तक कि आप के परिंदो और जानवरो की जबानो के जानने की गवाही भी इतिहास ने दी है।

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम और हिन्दुस्तानी हकीम

एक बार इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम मंसूर दवांक़ी के दरबार मे गऐ। वहा एक हिन्दुस्तानी हकीम बाते कर रहा था और इमाम बैठ कर उसकी बाते सुनने लगे आखिर मे उस हिन्दुस्तानी हकीम ने इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की तरफ मुतावज्जे हो कर आपसे कहा कि अगर आप को मुझ से कुछ पूछना हो तो पूछ सकते है।

इमाम ने उस से कहाः मै क्या पूछू मै खुद तुझ से ज़्यादा जानता हूँ।

हकीम ने कहाः अगर ये बात है तो मै भी कुछ सुनु।

इमाम ने फरमायाः जब किसी बीमारी का गलबा हो तो उसका इलाज उसकी ज़िद्द से करना चाहिऐ यानी गर्म का इलाज सर्द से , तर का इलाज खुश्क से , खुश्क का तर से और हर हालत मे खुदा फर भरोसा रखना चाहिऐ।

याद रखो कि मेदा (पेट) तमाम बीमारीयो का घर है और परहेज़ सौ दवाओ की एक दवा है। जिस चीज़ का इंसान आदी हो जाता है उसके मिज़ाज के मुवाफिक़ और उसकी सेहत का सबब बन जाती है।

हकीम ने कहाः बेशक आपने जो कुछ भी बयान फरमाया यही अस्ल तिब है।

उसके बाद इमाम ने फरमाया कि अच्छा मै चंद सवाल करता हूँ। इनका जवाब दो।

फिर इमाम ने अपने सवाल हकीम के सामने रखेः

आँसू और रतूबतो (नाक वग़ैरा) की जगह सर मे क्यो है ?

सर पर बाल क्यो है ?

पेशानी (माथा) बालो से खाली क्यो है ?

पेशानी पर खत और शिकन (लाईन्स) क्यो है ?

दोनो पलके आँखो के उपर क्यो है ?

नाक का सूराख नीचे की तरफ क्यो है ?

मुँह पर दो होठ क्यो है ?

सामने के दाँत तेज़ और दाढ़े चौड़ी क्यो है ?

और इन दोनो के दरमियान लम्बे दाँत क्यो है ?

दोनो हथेलिया बालो से खाली क्यो है ?

मरदो के दाढ़ी क्यो है ?

नाखून और बालो मे जान क्यो नही है ?

दिल पान की शक्ल का क्यो होता है ?

फेपड़े के दो टुकड़े क्यो होते है ?

और वो अपनी जगह हरकत क्यो करता है ?

जिगर की शक्ल उत्तल ( Convex) क्यो है ?

गुर्दे की शक्ल लोबीये के दाने की तरह क्यो है ?

दोनो पाँव के तलवे बीच से खाली क्यो है ?

हकीम ने जवाब दियाः मै इन बातो का जवाब नही दे सकता।

इमाम ने फरमायाः बफज़ले खुदा मै इन तमाम बातो के जवाब जानता हुँ।

हकीम ने कहाः बराऐ करम जवाब भी बयान फरमाऐ।

अब इमाम ने जवाब देना शुरू किया।

1. सर अगर आसुओ और रूतूबतो (नाक वग़ैरा) का मरकज़ ना होता तो खुशकी की वजह से टुकड़े टुकड़े हो जाता।

2. सर पर बाल इसलिऐ है कि उनकी जड़ो से तेल वग़ैरा दिमाग तक पहुँचता रहे और दिमाग गर्मी और ज़्यादा सर्दी से बचा रहे।

3. पेशानी (माथा) इसलिए बालो से खाली होता है कि इस जगहा से आखोँ मे नुर पहुँचता है।

4. पेशानी मे शिकन (लाईंस) इसलिऐ होती है कि सर से जो पसीना गिरे वो आँखों मे न पड़ जाऐ और जब माथे की शिकनों मे पसीना जमा हो तो इंसान पोछ कर फेंक दे जिस तरह जमीन पर पानी जारी होता है तो गढ़ो मे जमा हो जाता है।

5. पलके इस लिऐ आँखो पर क़रार दी गई है कि सूरज की रोशनी इस क़दर पड़े कि जितनी ज़रूरूत है और बवक्त जरूरत बंद होकर आँख की हिफाज़त कर सके और सोने मे मदद कर सके।

6. नाक दोनो आँखो के बीच मे इस लिऐ है कि रोशनी बट कर बराबर दोनो आँखो तक पहुँच जाऐ।

7. आँखो को बादामी शक्ल का इसलिऐ बनाया है कि जरूरत के वक्त सलाई से दवा (सूरमा , काजल वगैरा) इसमे आसानी से पहुँच जाऐ।

8. नाक का सुराख नीचे को इस लिऐ बनाया कि दिमागी रूतूबत (नाक वगैरा) आसानी से निकल सके और अगर ये छेद उपर होता तो दिमाग तक कोई खुशबू या बदबू जल्दी से न पहुँच सकती।

9. होठ इसलिऐ मुँह पर लगाऐ गऐ है कि जो रूतूबत दिमाग़ से मुँह मे आऐ वो रूकी रहे और खाना भी आराम से खाया जा सके।

10. दाढ़ी मर्दो को इसलिऐ दी गई कि मर्द और औरत का फर्क पता चले।

11. अगले दाँत इसलिऐ तेज़ है कि किसी चीज़ का काटना आसान हो और दाँढ़ को इसलिऐ चौड़ा बनाया कि खाने को पीसना और चबाना आसान हो और इन दोनो के दरमियान लम्बे दाँत इसलिऐ बनाऐ कि इन दोनो को मज़बूती दे जिस तरह मकान की मज़बूती के लिऐ पीलर्स होते है।

12. हथेलियो पर बाल इस लिऐ नही है कि किसी चीज़ को छूने से उसकी नर्मी , सख्ती , गर्मी और सर्दी वग़ैरा आसानी से मालूम हो जाऐ।

13. बाल और नाखून मे जान इस लिऐ नही है कि इनका बढ़ना दिखाई देता है और नुक़सान देने वाला है। अगर इन मे जान होती तो काटने मे तकलीफ होती।

14. दिल पान की शक्ल का इसलिऐ होता है कि आसानी से फेपड़े मे दाखिल हो सके और इसकी हवा से ठंडक पाता रहे ताकि इस से निकलने वाली गैस दिमाग़ की तरफ चढ़ कर बीमारीया पैदा न करे।

15. फेपड़े के दो टुकड़े इसलिऐ हुऐ कि दिल उन के दरमियान है और वो इसको हवा देते रहे।

16. जिगर उत्तल ( Convex) इस लिऐ हुआ है कि अच्छी तरह मैदे के उपर जगह पकड़ ले और अपनी गिरानी और गर्मी से खाने को हज़म करे।

17. गुर्दा लोबीये की शक्ल का इसलिऐ होता है कि मनी (वीर्य) पीछे की तरफ से उस मे आता है और इसके फैलने और सुकड़ने की वजह से आहिस्ता आहिस्ता निकलता है जिसकी वजह से इंसान को लज़्ज़त (मज़ा) महसूस होती है।

18. दोनो पैरो के तलवे बीच मे से इसलिऐ खाली है कि किनारो पर बोझ पड़ने से आसानी से पैर उठा सके और अगर ऐसा न होता और पूरे बदन का बोझ पैरो पर पड़ता तो सारे बदन का बोझ उठाना मुश्किल हो जाता।

इन जवाबो को सुनकर हिन्दुस्तानी हकीम हैरान रह गया और कहने लगा कि आप ने ये इल्म कहा से हासिल किया।

इमाम सादिक़ ने फरमायाः अपने बाप-दादा से और उन्होने रसूले खुदा से हासिल किया है और उन्होने इस इल्म को खुदा से हासिल किया था।

वो हकीम कहने लगे कि मै गवाही देता हुँ कि कोई खुदा नही सिवा एक के और मौहम्मद उसके रसूल और खास बन्दे है और आप इस जमाने के सबसे बड़े आलिम है।

(मनाकिब जिल्द 5 पेज न. 46)

(आप ये किताब अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

मंसूर का हज और इमाम जाफर सादिक़ के क़त्ल का इरादा

अल्लामा शिबलंजी लिखते है कि 147 हिजरी मे मंसूर दवानकी जब हज करने गया तो कुछ दुश्मनाने खुदा उसके कान भर दिये कि इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम तेरी मुखालिफत करते है और तेरी हुकुमत का तख्ता पलटने की कोशिश मे है। हज से फारिग़ हो कर मंसूर मदीने आया और इमाम को तलब किया और जब उनके क़त्ल का इरादा कर लिया तो इमाम ने उस से फरमाया कियाः ऐ अमीर जनाबे सुलैमान को अज़ीम सल्तनत दी गई तो उन्होने शुक्र किया और जनाबे अय्यूब को मुसीबतो मे मुबतला किया गया तो उन्होने सब्र किया। जनाबे युसुफ पर ज़ुल्म किया गया तो उन्होने जालिमो को माफ कर दिया।

ऐ बादशाह ये सब नबी थे और तू भी इन्ही की नस्ल से है तुझे तो इनकी पैरी लाज़िम है।

ये सुनकर मंसूर का गुस्सा जाता रहा।

(नूरूल अबसार पेज ऩ 123)

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की शहादत

आप 15 शव्वाल सन् 148 हि. मे 65 साल की उम्र मे शहादत के दर्जे पर फाएज़ हुऐ और अल्लामा इब्ने हजर और दूसरे उलामा भी लिखते है कि आपको मंसूर के जमाने मे ज़हर से शहीद किया गया।

आप की कब्रे मुबारक जन्नतुल मे (मदीना) मे है।

(अरजहुल मतालिब पेज न 480)

औलाद

आपके दस औलादे थी जिनमे सात लड़के और तीन लड़कीया थी।

1. जनाबे इस्माईल

2. इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम

3. अब्दुल्लाह

4. इस्हाक

5. मौहम्मद

6. अब्बास

7. अली

और बेटीयो के नाम ये हैः

1. उम्मे फरबा

2. अस्मा

3. फातिमा

(इरशाद)

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Mesam Naqvi



विलादत

हज़रत इमाम मौहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम पहली रजब 57 हिजरी को जुमा के दिन मदीनाऐ मुनव्वरा मे पैदा हुऐ।

अल्लामा मजलिसी लिखते है कि जब आप बत्ने मादर मे तशरीफ लाऐ तो आबाओ अजदाद की तरह घर मे गैब की आवाज़े आने लगी और जब नो महीने पूरे हुऐ तो फरीश्तो की बेइंतेहा आवाज़े आने लगी और शबे विलादत एक नूर जाहिर हुआ और आपने विलादत के बाद आसमान का रूख किया और (हजरत आदम की तरह) तीन बार छींके और खुदा की हम्द बजा लाऐ , पूरे एक दिन और रात आपके हाथ से नूर निकलता रहा। आप खतना शुदा , नाफ बुरीदा और तमाम गंदगीयो से पाक पैदा हुऐ।

(जिलाउल उयून पेज न. 259-260)

नाम , लक़ब और कुन्नीयत

सरवरे कायनात रसूले खुदा (स.अ.व.व) और लोहे महफूज़ के मुताबिक आपका नाम मौहम्मद था और आपकी कुन्नीयत अबुजाफर थी और आपके बहुत सारे लक़ब थे कि जिन मे बाक़िर , शाकिर , हादी ज़्यादा मशहूर है।

(शवाहेदुन नबुवत पेज न. 181)

लक़बे बाक़िर की वजह

बाक़िर बकरः से निकला है और इसका मतलब फैलाने वाला या शक़ करने देने वाला है।

(अलमुनजिद पेज न. 41)

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम को बाक़िर इस लिऐ कहा जाता है कि आपने उलूम को लोगो के सामने पेश किया और अहकाम की हक़ीकतो और हिक्मतो के उन खज़ानो को लोगो के सामने जाहिर किया कि जिनके बारे मे कभी किसी मे बहस न की थी।

(शवाहेदुन नबुवत पेज न. 181)

आपके ज़माने के बादशाह

आप 57 हि. मे माविया इब्ने अबुसुफयान के जमाने मे पैदा हुऐ। 60 हि.मे यजीद बादशाह बना फिर 64 हि. मे माविया बिन यज़ीद बादशाह बना फिर मरवान फिर अब्दुल मलिक बिन मरवान फिर 86 हि.मे वलीद बिन अब्दुल मलिक खलीफा बना और इसी ने 95 हि मे इमाम सज्जाद को शहीद कराया उसके बाद 96 हि. मे सुलेमान बिन अब्दुल मलिक बादशाह बना और फिर उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ , यज़ीद बिन अब्दुल मलिक और हश्शाम एक के बाद एक खलीफा बनते रहे।

(आलामुल वुरा पेज न. 156)

हज़रत इमाम मौहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम करबला मे

आपकी उम्र अभी दो तीन साल ही थी कि आपको अपने दादा और वालिद के साथ अपने वतने अज़ीज़ मदीनाऐ मुनव्वरा को छोड़ना पड़ा और मोहर्रम सन् 61 हि. को करबला मे तशरीफ लाऐ और मसाऐबे करबला व शाम और कूफा के गवाह बने।

और एक साल कूफा मे क़ैद मे रहने के बाद 8 रबीउल अव्वल 62 हि. को मदीना वापस हुऐ।

रसूले अकरम का सलाम

इतिहासकारो का कहना है कि सरवरे कायनात (स.अ.व.व) एक दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को अपनी गोद मे लिऐ हुऐ प्यार कर रहे थे तो आपके खास सहाबी हज़रत जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अंसारी आ गऐ।

रसूले खुदा (स.अ.व.व.) ने इरशाद फरमायाः

ऐ जाबिर। मेरे इस फरज़न्द की नस्ल से एक बच्चा पैदा होगा। जो इल्मो हिकमत से भरपूर होगा और ऐ जाबिर तुम उस बच्चे का जमाना पाओगे और उस वक्त तक ज़िन्दा रहोगे कि जब तक वो इस दुनिया मे न आ जाऐ।

ऐ जाबिर। देखो जब उस से मिलना तो मेरा सलाम उसे कह देना।

जनाबे जाबिर ने इस खबर और भविष्यवाणी को पूरे दिलो दिमाग़ से सुना और उसी वक्त से इस खुश गवार वक्त का इंतेज़ार करने लगे यहा तक कि इस इंतेज़ार मे आप की आखे पथरा गई और आँखो का नूर जाता रहा।

जब तक आपको दिखाई देता था आप इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम को हर महफिल और मजलिस मे तलाश करते रहे और जब आपकी आँखो का नूर चला गया तो आप आपने इमाम को पुकारना शूरू कर दिया। यहा तक कि लोग आपके दिमाग़ पर शक करने लगे।

और आखिरे कार वो वक्त भी आ गया कि आप पैग़ामे मोहम्मदी को इमाम की खिदमत मे पहुँचाने मे कामयाब हो गऐ।

रावी कहता है कि मैं जनाबे जाबिर के पास बैठा हुआ था तभी देखा कि इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम तशरीफ ला रहे है और आपके साथ इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम भी है।

इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम से फरमाया कि बेटा अपने अम्मू जनाबे जाबिर की पेशानी पर बोसा दो।

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने फौरन जनाबे जाबिर की पेशानी पर बोसा दिया और जनाबे जाबिर ने इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम को अपने सीने से लगा लिया और कहने लगे कि ऐ रसूल अल्लाह के फरज़न्द आपको आपके दादा रसूले खुदा मौहम्मदे मुस्तुफा ने सलाम कहा है।

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने इरशाद फरमाया कि ऐ चचा जाबिर उन पर और आप पर भी मेरा सलाम हो।

इसके बाद जनाबे जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अंसारी ने इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम से अपने लिऐ शिफाअत के लिऐ ज़मानत की दरखास्त की और हजरत ने क़ुबुल फरमाई।

(शवाहेदुन नबुवत पेज न. 181)

सात साल की उम्र मे इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम का हज

रावी बयान करता है कि मै हज के लिऐ जा रहा था। रास्ता खतरनाक और अंधेरा बहुत ज्यादा था। जैसे ही मे एक सहरा मे दाखिल हुआ तो एक तरफ से कुछ रोशनी की एक किरन नज़र आई। एक दम से एक सात साला बच्चा मेरे क़रीब आया और उसने सलाम किया। मैने सलाम का जवाब दिया और उससे पूछा कि तुम कौन हो , कहाँ से आ रहे हो और कहाँ जा रहे हो और तुम्हारा ज़ादे सफर क्या है।

उसने जवाब दिया कि मै खुदा की तरफ से आ रहा हुँ और खुदा की तरफ जा रहा हुँ। मेरा ज़ादे सफर तक़वा है और मै अरबी नस्ल हुँ और क़ुरैश मे से अलवी खानदान से हुँ और मेरा नाम मौहम्मद इब्ने अली इब्ने हुसैन इब्ने अली इब्ने अबुतालिब है।

रावी कहता है कि ये कह कर न जाने वो कहाँ गायब हो गया।

(शवाहेदुन नबुवत पेज न. 183)

हज़रत इमाम बाक़िर और इस्लाम मे सिक्के की ईजाद

मशहूर इतिहासकार ज़ाकिर हुसैन लिखते है कि अब्दुल मलिक बिन मरवान ने इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम की सलाह से इस्लामी सिक्के को जारी किया। इस से पहले इस्लामी मुल्को मे भी ईरान और रोम का सिक्का चलता था।

इस वाकेये को अल्लामा दमीरी इस तरह नक्ल करते है कि अब्दुल मलिक बिन मरवान ने अपने दौरे हुकुमत मे मिस्र से आने वाले कपड़े और काग़ज़ पर “बाप , बेटा और रूहुल क़ुद्स ” (कि जो ईसाईयो का ट्रेडमार्क था) को हटवा कर “अल्लाह गवाही देता है कि उसके सिवा कोई खुदा नही है ” लिखवा दिया था कि जो बादशाहे रोम को बहुत बुरा लगा था तो उसने अब्दुल मलिक बिन मरवान से पहले ट्रेडमार्क के बाकी रखने की दरखास्त की लेकिन अब्दुल मलिक बिन मरवान ने उसका कोई जवाब न दिया जिसके नतीजे मे शाहे रोम ने अब्दुल मलिक बिन मरवान को खत लिखा कि अगर तुने मेरी बात न मानी तो मे इस्लामी मुल्को मे चलने वाले अपने सिक्के पर तुम्हारे नबी को गालिया लिखवा दूँगा।

ये सुन कर अब्दुल मलिक सर पकड़ कर बैठ गया और तमाम उलामा से मशविरा किया लेकिन किसी से इस मसले का हल न निकल पाया तो उसे अहलैबैत रसूल के दर पर पनाह ली और इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम को बुलवा कर आप से इस मसले के हल की दरखास्त की।

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने उसे इस्लामी सिक्का छापने की राय दी और उसे बताया कि सिक्के कैसे और किस तरह और कितने वज़न का छपेगा और इमाम ने हुक्म दिया कि सिक्के के एक तरफ कलमऐ तोहीद लिखा जाऐ और दूसरी तरफ रसूले खुदा के नाम के साथ सिक्के के छपने के सन् को लिखा जाऐ।

आपके हुक्म पर अमल किया गया और सिक्का छप कर इस्लामी मुल्को मे फैल गया और साथ ही साथ इमाम के मशविरे से अब्दुल मलिक बिन मरवान ने रोमी सिक्के के लेन-देन पर पाबंदी लगा दी।

जब शाहे रोम को इन सब बातो को पता चला तो वो चुप बैठने के सिवा कुछ न कर सका।

(हयातुल हैवान जिल्द न 1)

हश्शाम का सवाल और उसका जवाब

अमवी खलीफा हश्शाम बिन अब्दुल मलिक खलीफा बनते ही हज के लिऐ गया। उसने वहा इमाम मौहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम को देखा कि आप लोगो को वाजो- नसीहत फरमा रहे है। ये देख कर हश्शाम की खानदानी दुश्मनी ने करवट ली औऱ उसने दिल ही दिल सोचा कि इन्हे यही पर ज़लील करना चाहिये।

इसी इरादे से उसने एक शख्स को इमाम की खिदमत मे भेजा कि जाकर कहो कि खलीफा पूछ रहे है कि क़यामत के दिन आखरी फैसले से पहले लोग क्या खाऐंगे और क्या पीयेंगे।

इमाम ने जवाब दियाः जहा हश्रो नश्र होगा वहा मेवेदार दरख्त होंगे लोग इन्ही पेड़ो के फलो को इस्तेमाल करेगे।

बादशाह ने जवाब सुनकर ये कहा कि ये बिल्कुल ग़लत है। क्योकि कयामत के दिन लोग अपनी परेशानीयो और मुसीबतो मे लगे होगे। ऐसे मे खाने पीने की किसे याद आऐगी।

क़ासिद ने यही बात जाकर इमाम से नक़्ल कर दी।

इमाम ने जवाब दिया कि जाओ और बादशाह से कह दो कि तुमने कुरआन भी पढ़ा है या नही।

कि जहन्नुम के लोग जन्नत वालो से कहेंगे कि हमे पानी और कुछ नेमते दे दो कि (कुछ) खा और पी ले। इस वक्त वो (जन्नत वाले) कहेगे कि काफिरो पर जन्नत की नेमते हराम है।

(पारा न. 8 रूकूअ न. 13)

तो जब जहन्नुम के लोग भी खाना-पीना नही भूलेंगे तो क़यामत मे कैसे भूल जाऐगे जिसमे जहन्नुम से कम सख्तीयाँ होगी और वो उम्मीद और जन्नतो जहन्नुम के दरमियान होंगे।

इमाम का जवाब सुनकर हश्शाम शरमिन्दा हो गया।

(तारीखे आईम्मा पेज न. 414)

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम और ईसाई पादरी

एक बार इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने अमवी बादशाह हश्शाम बिन अब्दुल मलिक के हुक्म पर अनचाहे तौर पर शाम का सफर किया और वहा से वापस लौटते वक्त रास्ते मे एक जगह लोगो को जमा देखा और जब आपने उनके बारे मे मालूम किया तो पता चला कि ये लोग ईसाई है कि जो हर साल यहाँ पर इस जलसे मे जमा होकर अपने बड़े पादरी से सवाल जवाब करते है ताकि अपनी इल्मी मुश्किलात को हल कर सके ये सुन कर इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम भी उस मजमे मे तशरीफ ले गऐ।

थोड़ा ही वक्त गुज़रा था कि वो बुज़ुर्ग पादरी अपनी शानो शोकत के साथ जलसे मे आ गया और जलसे के बीच मे एक बड़ी कुर्सी पर बैठ गया और चारो तरफ निगाह दौड़ाने लगा तभी उसकी नज़र लोगो के बीच बैठे हुऐ इमाम अलैहिस्सलाम पर पड़ी कि जिनका नूरानी चेहरा उनकी बड़ी शख्सीयत की गवाही दे रहा था उसी वक्त उस पादरी ने इमाम (अ.स )से पूछा कि हम ईसाईयो मे से हो या मुसलमानो मे से 

इमाम अलैहिस्सलाम ने जवाब दियाः मुसलमानो मे से।

पादरी ने फिर सवाल कियाः आलिमो मे से हो या जाहिलो मे से

इमाम अलैहिस्सलाम ने जवाब दियाः जाहिलो मे से नही हुँ।

पादरी ने कहा कि मैं सवाल करूँ या आप सवाल करेंगे

इमाम अलैहिस्सलाम ने फरमाया कि अगर चाहे तो आप सवाल करें।

पादरी ने सवाल कियाः तुम मुसलमान किस दलील से कहते हो कि जन्नत मे लोग खाऐंगे-पियेंगे लेकिन पैशाब-पैखाना नही करेंगेक्या इस दुनिया मे इसकी कोई दलील है

इमाम अलैहिस्सलाम ने फरमायाः हाँइसकी दलील माँ के पेट मे मौजूद बच्चा है कि जो अपना रिज़्क़ तो हासिल करता है लेकिन पेशाब-पेखाना नही करता।

पादरी ने कहाः ताज्जुब है आपने तो कहा था कि आलिमो मे से नही हो।

इमाम अलैहिस्सलाम ने फरमायाः मैने ऐसा नही कहा था बल्कि मैने कहा था कि जाहिलो मे से नही हुँ।

उसके बाद पादरी ने कहाः एक और सवाल है।

इमाम अलैहिस्सलाम ने फरमायाः बिस्मिल्लाह सवाल करे।

पादरी ने सवाल कियाः किस दलील से कहते हो कि लोग जन्नत की नेमतो फल वग़ैरा को इस्तेमाल करेंगें लेकिन वो कम नही होगी और पहले जैसी हालत पर ही बाक़ी रहेंगे।

क्या इसकी कोई दलील है

इमाम अलैहिस्सलाम ने फरमायाः बेशक इस दुनिया मे इसका बेहतरीन नमूना और मिसाल चिराग़ की लौ और रोशनी है कि तुम एक चिराग़ से हज़ारो चिराग़ जला सकते हो और पहला चिराग़ पहले की तरह रोशन रहेगा ओर उसमे कोई कमी नही होगी।

पादरी की नज़र मे जितने भी मुश्किल सवाल थें सबके सब इमाम अलैहिस्सलाम से पूछ डाले और उनके बेहतरीन जवाब इमाम अलैहिस्सलाम से हासिल किये और जब वो अपनी कम इल्मी से परेशान हो गया तो बहुत गुस्से आकर कहने लगाः

ऐ लोगों एक बड़े आलिम को कि जिसकी मज़हबी जानकारी और मालूमात मुझ से ज़्यादा है यहा ले आऐ हो ताकि मुझे ज़लील करो और मुसलमान जान लें कि उनके रहबर और इमाम हमसे बेहतर और आलिम हैं।

खुदा कि क़सम फिर कभी तुमसे बात नही करुगां और अगर अगले साल तक ज़िन्दा रहा तो मुझे अपने दरमियान (इस जलसे) मे नही देखोंगे।

इस बात को कह कर वो अपनी जगह से खड़ा हुआ और बाहर चला गया।

(जिलाउल उयून पेज. न. 261)

शहादत

अगरचे आप अपनी इल्मी खिदमात से इस्लाम को फैला रहे थे लेकिन फिर खानदाने बनी उमय्या की दुश्मनी और जिहालत की वजह से हश्शाम बिन अब्दुल मलिक ने आपको ज़हर से शहीद करा दिया और आप 7 ज़िलहिज 114 हि. को सोमवार के मदीनाऐ मुनव्वरा मे दरजाऐ शहादत पर फाएज हो गऐ। उस वक्त आपकी उम्र 57 साल थी।

(जिलाउल उयून पेज. न. 264)

मजारे मुक़द्दस

आपकी नमाजे जनाज़ा इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने पढ़ाई और आपको जन्नुत बक़ी मे दफ्न किया गया।

(जिलाउल उयून पेज. न. 261)

औलाद

इतिहासकारो ने आपके पाँच बेटे और तीन बेटीयो का जिक्र किया है। जिनके नाम ये है।

1. इमाम जाफर सादिक़

2. अब्दुल्लाह अफतह

3. इब्राहीम

4. अब्दुल्लाह

5. अली

6. लैला

7. जैनब

8. उम्मे सलमा

(इरशाद पेज न. 294)

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Mesam Naqvi

ख़ातूने जन्नत

ख़दीजा को मिला बेटी , नबी को बिज़अतो मिन्नी

हुई तकमीले तबलीग़े अमल तन्ज़ीमे ईमां में

रिसालत आमदे ज़हरा पा , यह एलान करती है

करेंगी फातेमा (स.अ) , कारे रिसालत सिन्फ़े निस्वां में

हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ)

जलवा नुमा ए शम्मे हक़ीक़त हैं फातेमा ।

आइना ए कमाले नबूवत हैं , फातेमा ।।

यह मानता हूं इनको रिसालत नहीं मिली ।

लेकिन , शरीके कारे रिसालत हैं फातेमा ।।

हज़रत फातेमा (स.अ) , पैग़म्बरे इस्माल हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.व.व) और जनाबे ख़दीजातुल कुबरा की इक लौती बेटी हज़रत अली अ 0 की रफ़ीक़ा ए हयात और इमाम हसन अ 0 व इमामे हुसैन अ 0 जनाबे ज़ैनब व उम्मे कुलसूम की मादरे गिरामी और नौ , (9) इमामों की जद्दे माजेदा थीं। आपकी मशहूर कुन्नियत उम्ममुल आइम्मा , उम्मुल हसनैन और इमाम अल सिबतैन थी। मशहूर अलक़ाब ज़हरा व सय्यातुलनिस्सां थे। एक रवायत में है कि आपकी कुन्नियत उम्मे अबीहा भी थी जो मेरे नज़दीक़ यह उम्मे इब्नीहा है यानी हसन व हुसैन की माँ।

आप की विलादत

आप का नूरे वजूद नूरे रिसालत (स.अ.व.व) के साथ ख़िलक़ते कायनात से बहुत पहले पैदा हो चुका था। अलबत्ता आपके ज़ाहिरी नमूद व शहूद के लिए उलमा ने लिखा है कि आप मेराजे रिसालत मआब (स.अ.व.व) के बाद 5 बैअसत में तारीख़ 20 जमादुस्सानी जुमे के दिन मक्का मोअज़्ज़मा में पैदा हुईं। आप का साले विलादत आमुल फ़ील के लिहाज़ से 46 और इसवी नुक़ताये निगाह से 614, 615 ई 0 था। आपकी विलादत के वक़्त जन्नत से हूरों और आसिया बिन्ते मज़ाहम , मरयम बिन्ते इमरान , सफ़ूरा बिन्ते शुऐब , कुल्सूम हमशीरा ए , मूसा का आना किताबों से साबित है। जनाबे ख़दीजा का बयान है कि चूंकि मैंने अपने क़बीले के मनशा के बर ख़िलाफ़ सरवरे काएनात से शादी कर ली थी , इस लिए मेरी क़ौम ने मेरा बाईकाट कर दिया था। मैंने विलादत के वक़्त हसबे दस्तूर इत्तेला दी लेकिन कोई न आया। अल्लाह की रहमत शामिले हाल हुई , हूरों और पाक बीबीयों ने क़ाबला और दाया का काम किया बच्ची पैदा हुई। हुज्जतुल आलमीन का घर बुक़्क़ा ए नूर बन गया।

(तारीख़े ख़मीस जिल्द 1 स. 313 व दम ए साक़ेबा पृष्ठ 53)

आप का इकलौती बेटी होना

मुनाक़िब इब्ने शहर आशोब में है कि जनाबे ख़दीजा के साथ जब आं हज़रत (स.अ.व.व) की शादी हुई तो आप बाकरह थीं। यह तसलीम शुदा अमर है कि क़ासिम अब्दुल्ला यानी तैय्यब व ताहिर और फातेमा ज़हरा बतने ख़दीजा से रसूले इस्लाम की औलाद थीं। इस में इख़्तेलाफ़ है कि ज़ैनब , रूक़य्या , उम्मे कुल्सूम , आं हज़रत की लड़कियां थीं या नहीं , यह मुसल्लम है कि यह लड़कियां ज़हूरे इस्लाम से क़ब्ल काफ़िरों अतबा , पिसराने अबू लहब और अबू आस , इब्ने रबी के साथ ब्याही थीं। जैसा कि मवाहिबे लदुनिया जिल्द 1 स. 197 मुद्रित मिस्र व मुरव्वज उज ज़हब मसूदी जिल्द 2 स. 298 मुद्रित मिस्र से वाज़े है। यह माना नहीं जा सकता कि रसूले इस्लाम अपनी लड़कियों को काफ़रों के साथ ब्याह देते। लेहाज़ा यह माने बग़ैर चारा नहीं है कि यह औरतें हाला बिन्ते ख़वैला हमशीर जनाबे ख़दीजा की बेटियां थीं। इन के बाप का नाम अबू लहनद था। जैसा कि अल्लामा मोतमिद बदख़शानी ने मरजा उल अनस , में लिखा है। यह वाक़ेया है कि यह लड़कियां ज़माना ए कुफ़्र में हाला और अबू लहनद में बाहमी चपकलिश की वजह से जनाबे ख़दीजा के ज़ेरे केफ़ालत और तहते तरबीयत रहीं और हाला के मरने के बाद मुतलक़न उन्हीं के साथ हो गईं और ख़दीजा की बेटी कहलाईं। इसके बाद बा ज़रिया ए जनाबे ख़दीजा आं हज़रत से मुनसलिक हो कर उसी तरह रसूल (स.अ.व.व) की बेटियां कहलाईं। जिस तरह जनाबे ज़ैद मुहावरा अरब के मुताबिक़ रसूल के बेटे कहलाते थे। मेरे नज़दीक इन औरतों के शौहर मुताबिक़ दस्तूरे अरब के मुताबिक़ दामादे रसूल कहे जाने का हक़ रखते हैं। यह किसी तरह नहीं माना जा सकता कि रसूल की सुलबी बेटियां थीं क्यों कि हुज़ूरे सरवरे आलम (स.अ.व.व) का निकाह जब बीबी ख़दीजा से हुआ था तो आपके ऐलाने नबूवत से पहले इन लड़कियों का निकाह मुशरिकों से हो चुका था और हुज़ूर सरकारे दो आलम का निकाह 25 साल के सिन में ख़दीजा से हुआ और 30 साल तक कोई औलाद नहीं हुई और चालीस साल के सिन में आपने ऐलाने नबूवत फ़रमाया और इन लड़कियों का निकाह मुशरिक़ों से आप की चालीस साल की उम्र से पहले हो चुका था , और इस दस साल के अर्से में आपके फ़रज़न्द का भी पैदा होना और तीन लड़कियों का पैदा होना तहरीर किया गया है। जैसा कि मदारिज अल नबूवत में तफ़सील मौजूद है। भला ग़ौर तो कीजिए की दस साल की उमर में चार , पांच औलादें भी पैदा हो गईं और इतनी उमर भी हो गई के निकाह मुशरिक़ों से हो गया। क्या यह अक़ल व फ़हम में आने वाली बात है कि चार साल की लड़कियों का निकाह मुशरिक़ों से हो गया और हज़रत उस्मान से भी एक लड़की का निकाह हालते शिर्क ही में हो गया। जैसा कि मदारिज अल नबूवत में मज़कूर है। इस हक़ीक़त पर ग़ौर करने से मालूम होता है कि लड़कियां हुज़ूर की न थीं बल्कि हाला ही की थीं और इस उम्र में थीं कि इनका निकाह मुशरिक़ों से हो गया था।

(सवानेह हयाते सैय्यदा पृष्ठ 34)

(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

बचपन और तरबीयत

जनाबे सैय्यदा (स.अ) में बचपन के वह आसार ही न थे जो आम लड़कियों में हुआ करते हैं। उम्मे सलमा से कहा गया कि फातेमा को ऊसूले तहज़ीब सीखायें। उन्होंने जवाब दिया कि मैं मुजस्समाये अस्मत व तहारत को अख़लाक़ व आदात की क्या तालीम दे सकती हूं। मैं तो ख़ुद इस कमसीन बच्ची से तालीमें उसूम हासिल किया करती हूं। किताबों से मालूम होता है कि आपका सारा बचपन इबादत और ख़िदमते वालदैन में गुज़रा। एक मरतबा आं हज़रत (स.अ.व.व) सहने काबा में नमाज़ अदा फ़रमा रहे थे कि अबू जहल जो हज़रत उमर का मामू था। (तारीख़े इस्माल जिल्द 2 पृष्ठ 20) की नज़र आप पर पड़ी तो उसने हालते सजदे में ऊंट की औझड़ी गोबर भरी पुश्ते हुज़ूर पर रख दी , फातेमा को ख़बर मिली , आप दौड़ी हुई आयीं और पुश्ते रिसालत से औझड़ी हटा दी और पुश्ते मुबारक को पानी से धोया। रसूले अकरम (स.अ.व.व) ने फ़रमाया , बेटी एक दिन दुश्मन भी मग़लूब होंगे और ख़ुदा मेरे दीन को इन्तेहाईं बुलन्द करेगा। तारीख़ में है कि ख़दीजा (स.अ) किसी शादी में जाने को तैय्यार हुईं और कपड़े पहन्ने लगीं तो पता चला कि जनाबे सैय्यदा के लिए कपड़े नहीं हैं , मां इसी तरद्दुद में थी कि बेटी को एहसास हो गया , अर्ज़ कि मादरे गिरामी मैं पुराने कपड़े में ही चलूंगी , क्यों कि बाबा जान फ़रमाते हैं कि मुसलमान लड़कियों का सब से बेहतर ज़ेवर हयाते तक़वा है और बेहतरीन अराईश शर्म व हया है।

फातेमा ज़हरा (स.अ) का सारा बचपन फ़क़्र फ़ाक़ा और तंगी व मसाएब में गुज़रा। आपको जिन हज़रात से तालीम मिली वह यह हैं। 1.ख़दीजातुल कुबरा , 2. सरवरे काएनात (स.अ.व.व) , 3. फातेमा बिन्ते असद , 4. उम्मे अफ़ज़ल ज़ौजा ए अब्बास , 5. असमा बिन्ते उमैस ज़ौजा जाफ़रे तैय्यार , 6. उम्मे हानी हम्शीरा जनाबे अबू तालिब अ 0, 7 उम्मे ऐमन , 8. सफ़िया बिन्ते जनाबे हमज़ा।

मदारिजुल नबूवत में है कि हज़रत रसूले करीम (स.अ.व.व) जनाबे सैय्यदा को जब कि वह कमसिन थी अकसर अपनी आग़ोश में बिठा लिया करते थे और उन के होठों को बोसा देते थे। इस पर हज़रत आयशा ने कहा कि जनाबे फातेमा के बोसे देते हैं और अपनी ज़बान उनके मुंह में देते हैं , हुज़ूर ने इरशाद फ़रमाया तुम्हें मालूम नहीं जब मैं मेराज पर गया था जिबरईल ने एक सेब जन्नत में दिया था , मैंने उसे खाया था और इसी से फातेमा का नुतफ़ाये वुजूद क़ायम हुआ था। ऐ आयशा जब मैं जन्नत का मुशताक़ होता हूं तो फातेमा (स.अ) की ख़ुशबू सूंघता हूं और दहने फातेमा से मेवा ए जन्नत का लुत्फ़ उठाता हूं।

(मदारिज 1 पृष्ठ 192)

आपकी इस्मत

इस्मत कोई ऐसी सिफ़त नहीं जो किसी अमल पर मौक़ूफ़ हो , यह ख़ुदा का अतीया होता है और बदो फ़ितरत में अता हुआ करता है। मलाएक अम्बिया और औसिया ख़ास के अलावा यह पाकीज़ा सिफ़त जिन अहम शख़्सियतों को अता हुई उनमें हज़रत फातेमा (स.अ) को ख़ास हैसीयत हासिल है। उलमा का इत्तिफ़ाक़ है कि जिस तरह एक लाख चौबीस हज़ार अम्बिया और बारह इमाम दुनिया में हिदायते ख़ल्क़ के लिए भेजे गये और सब मासूम थे इसी तरह सिनफ़े नाज़ुक़ के लिए हज़रत मरयम (स.अ) हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ) तशरीफ़ लायीं और यह दोनों बीबीयां मासूम थीं और दोंनो की इस्मत पर क़ुरआन गवाह है।

आप की वालेदा की वफ़ात

आपकी वालेदा जनाबे ख़दीजातुल कुबरा थीं हज़रत फातेमा (स.अ) को पांच साल मां की आग़ोश में तरबीयत नसीब रही। जनाबे ख़दीजा की अलालत से जनाबे सैय्यदा को बेहद दुख हुआ। आप इनकी तीमारदारी में रात और दिन लगी रहती थी और उनके चेहरे पर नज़र जमाए उन्हीं को देखा करती थीं। मां का चेहरा बहाल देखा तो ख़ुश हो गयीं। मां की शकल पज़मुर्दा देखी तो रंजीदा हो गयीं। यही तरज़े अमल रहा कि एक दिन ख़दीजा (स.अ) ने फातेमा (स.अ) को अपने सीने से लगाया और फूट फूट कर रोने लगीं। बेटी ने पूछा- अम्मा जाना आपके रोने का अन्दाज़ कुछ निराला है फ़रमाया- बेटी ! मैं तुझसे रूख़सत हो रही हूं , अफ़सोस तुझे दुल्हन न देख सकी। मां बेटी में अलमनाक बात चीत हो रही थी कि माथे पर मौत का पसीना आ गया और ख़दीजा (स.अ) 10 रमज़ान 10 बेअसत को इन्तेक़ाल फ़रमा गयीं मौत के वक़्त आपकी उम्र 65 साल की थी। आप को मक़बरा ए हज़ून में दफ़्न किया गया। ख़दीजा (स.अ) के इन्तेक़ाल से फातेमा (स.अ) को इन्तेहाई दुख हुआ और आप से ज़्यादा सरवरे कायनात (स.अ.व.व) को दुख हुआ। इसी वजह से आपने इस साल को आम उल हुज़्न कहा है।

सही बुख़ारी जिल्द 3 पृष्ठ 419 में है कि आं हज़रत (स.अ.व.व) जनाबे ख़दीजा की याद में गोसफ़न्द (बकरा) ज़िब्ह कर के उनकी सहेलियों के पास भेजा करते थे। एक मरतबा हज़रत आयशा ने कहा कि उस बूढ़ी औरत को जिस के मुंह में दांत भी न थे। कब तक याद करते रहेंगे यह सुन कर आं हज़रत (स.अ.व.व) ग़ज़ब नाक हो गये और फ़रमाया कि इससे बेहतर मुझे कोई औरत नसीब नहीं हुई। वह उस वक़्त ईमान लायीं जब कि सब काफ़िर थे और वक़्त मेरे लिये माल ख़र्च किया जब लोग महरूम करना चाहते थे। हयात अल क़ुलूब में है हज़रत अबूतालिब और उनके तीन दिन बाद हज़रत ख़दीजा का इन्तेक़ाल हुआ था।

हिजरते फातेमा (स.अ )

10 बेसत जुमे की रात यकुम रबीउल अव्वल को आं हज़रत (स.अ.व.व) ने हिजरत फ़रमाई और 16 रबीउल अव्वल जुमे के दिन को दाख़िले मदीना हुए। वहां पहुंचने के बाद आपने ज़ैद बिन हारेसा और अबू राफ़ये को 5 सौ दिरहम और दो ऊंट दे कर मक्का की तरफ़ रवाना किया कि हज़रत फातेमा , फातेमा बिन्ते असद , उम्मुल मोमिनीन सौदा , उम्मे ऐमन वग़ैरा को ले आए। चुनान्चे यह बीबीयां चन्द दिनों के बाद मदीना पहुंच गयीं आप के अक़्द में उस वक़्त सिर्फ़ दो बीबीयां थीं। एक सौदा और दूसरी आयशा। 2 हिजरी में आप (स.अ.व.व) ने उम्मे सलमा से अक़्द किया। उम्मे सलमा ने निगहदाश्ते फातेमा (स.अ) का बीड़ा उठाया और इस अन्दाज़ से ख़िदमत गुज़ारी की कि फातेमा ज़हरा (स.अ) से मां को भुला दिया।

हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ) की शादी

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) ने अली अ 0 की विलादत के वक़्त अली को ज़बान दे दी थी और बाद में फ़रमाया था कि मेरी बेटी का कफ़ू ख़ाना ज़ादे ख़ुदा के कोई नहीं हो सकता। (नूरूल अनवार सहीफ़ाये सज्जादिया) हालात का तक़ाज़ा और नसबी वा ख़ानदानी शराफ़त का मुक़तज़ा यह था कि फातेमा की ख़्वास्तगारी के सिलसिले में अली के सिवा किसी का तज़किरा तक न आता लेकिन किया क्या जाए कि दुनिया इस एहमियतक को समझने से क़ासिर रही है। यही वजह है कि फातेमा (स.अ) के सिने बुलूग़ तक पहुंचते ही लोगों के पैग़ामात आने लगे। सब से पहले अबू बकर ने फिर हज़रत उमर ने ख़्वास्गारी की और इनके बाद अब्दुर रहमान ने पैग़ाम भेजा। हज़राते शेख़ैन के जवाब में रहमतुल लिल आलेमीन (स.अ.व.व) ग़ज़बनाक हुए और उनकी तरफ़ से मुंह फेर लिया।

(कन्ज़ुल आमाल जिल्द 7 पृष्ठ 113)

और अब्दुर रहमान से फ़रमाया कि फातेमा की शादी हुक्मे ख़ुदा से होगी तुम ने जो महर की ज़्यादती का हवाला दिया है वह अफ़सोस नाक है। तुम्हारी दरख़्वास्त क़ुबूल नहीं की जा सकती।

(बिहारुल अनवार जिल्द 10 पृष्ठ 14)

इसके बाद हज़रत अली अ 0 ने दरख़्वास्त की तो आप (स.अ.व.व) ने फातेमा (स.अ) की मरज़ी दरयाफ़्त फ़रमाई , वह चुप ही रहीं यह एक तरह का इज़हारे रज़ामन्दी था।

(सीरतुल अल नबी जिल्द 1 पृष्ठ 26)

बाज़ उलमा ने लिखा है कि आं हज़रत (स.अ.व.व) ने ख़ुद अली अ 0 से फ़रमाया कि ऐ अली अ 0 मुझे ख़ुदा ने फ़रमाया है कि अपने लख़्ते जीगर का अक़्द तुम से करूं क्या तुम्हें मनज़ूर है ? अर्ज़ की जी हां ! इसके बाद शादी हो गयी।

(रेयाज़ अल नज़रा जिल्द 2 पृष्ठ 184 ताबा मिस्र)

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि पैग़ाम महमूद नामी एक फ़रिश्ता ले कर आया था।

(बिहारूल अनवार जिल्द 1 पृष्ठ 35)

बाज़ उलमा ने जिबरील का हवाला दिया है। ग़रज़ हज़रत अली (अ.स) ने 500 दिरहम में अपनी ज़िरह उस्मान ग़नी के हाथों बेची और इसी को महर क़रार दे कर बातारीख़ 1 ज़िलहिज 2 हिजरी हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ) के साथ निकाह किया

जनाबे सैय्यदा का जहेज़

निकाह के थोड़े समय बाद 24 ज़िल हिज को हज़रत सैय्यदा की रूख़सती हुई सरवरे काएनात (स.अ.व.व) ने अपनी इकलौती चहीती बेटी को जो जहेज़ दिया उसकी तफ़सील यह है।

1.एक कमीज़ क़ीमती सात दिरहम ,

2. एक मक़ना ,

3. एक सियाह कम्बल ,

4. एक बिस्तर खजूर के पत्तों का बना हुआ ,

5. दो मोटे टाट ,

6. चमड़े के चार तकिये ,

7. आटा पीसने की चक्की ,

8. कपड़ा धोने की लगन ,

9. एक मशक ,

10. लकड़ी का बादिया ,

11. खजूर के पत्तों का बना हुआ एक बरतन ,

12. दो मिट्टी के आब ख़ोरे ,

13. एक मिट्टी की सुराही ,

14. चमड़े का फ़र्श ,

15. एक सफ़ेद चादर ,

16. एक लोटा।

यह ज़ाहिर है कि रसूल (स.अ.व.व) आला दरजे का जहेज़ दे सकते थे मगर अपनी उम्मत के ग़ुरबा के ख़्याल से इसी पर इक़तेफ़ा फ़रमाया।

जुलूसे रूख़सत

खाने पीने के बाद जुलूस रवाना हुआ। अशहब नामी नाक़ा पर हज़रत फातेमा (स.अ) सवार थीं। सलमान सारबान थे , अज़वाजे रसूल नाक़े के आगे आगे थीं , बनी हाशिम नंगी तलवारे लिये हुए थे , मस्जिद का तवाफ़ कराया और अली अ 0 के घर में फातेमा (स.अ) को उतार दिया इसके बाद आं हज़रत (स.अ.व.व) ने फातेमा (स.अ) से एक बरतन में पानी मंगाया और कुछ दुआयें दम कीं और उसे फातेमा और अली के सर सीने और बाज़ू पर छिड़का और बरगाहे अहदीयत में अर्ज़ की बारे इलाह इन्हें और इनकी औलादों को शैतान रजीम से तेरी पनाह में देता हूं।

(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 84)

इसके बाद फातेमा (स.अ) से कहा देखो अली से बेजा सवाल न करना। यह दुनियां में सब से आला और अफ़ज़ल है लेकिन दौलत मन्द नहीं है। अली से कहा कि यह मेरे जिगर का टुकड़ा है कोई ऐसी बात न करना कि उसे दुख हो।

तज़किरा ए अलख़्वास सिब्ते इब्ने जौज़ी के पृष्ठ 365 में है कि फातेमा के साथ जिस वक़्त अली की शादी हुई उन के घर में एक चमड़ा था , रात को बिछाते थे और दिन में उस पर ऊंट को चारा दिया जाता था।

हज़रत फातेमा (स.अ) का निज़ामे अमल

शौहर के घर जाने के बाद आप ने जिस निज़ामे ज़िन्दगी का नमूना पेश किया वह तबक़ा ए निसवां के लिए एक मिसाली हैसीयत रखता है। आप घर का तमाम काम अपने हाथों से करती थीं। झाड़ू देना , खाना पकाना , चरख़ा कातना , चक्की पीसना और बच्चों की तरबीयत करना यह सब काम और अकेली सय्यादा ए आलम , लेकिन न कभी तेवरी पर बल आते थे और न कभी शौहर से मददगार न ख़ादमा की फ़रमाईश की। फिर जब 7 हिजरी में पैग़म्बरे ख़ुदा (स.अ.व.व) ने एक ख़ादमा अता की जो फ़िज़्ज़ा के नाम से मशहूर हैं , तो रसूल अल्लाह (स.अ.व.व) की हिदायत के अनुसार सैय्यदाए आलम फ़िज़्ज़ा के साथ एक कनीज़ का सा नहीं , बल्कि एक अज़ीज़ रफ़ीक़ कार जैसा बरताव करती थीं और एक दिन घर का काम ख़ुद करती थीं। दरअस्ल यह मसावाते मोहम्मदी की आला मिसाल हैं।

(सैय्यदा की अज़मत , मुसन्नेफ़ मौलाना कौसर नियाज़ पृष्ठ 5)

फातेमा (स.अ) और पर्दा

आप ने औरतों की मेराज पर्दादारी को बताया है और ख़ुद भी हमेशा इस पर आमिल रही हैं और इतनी सख़्ती के साथ कि मस्जिदे रसूल (स.अ.व.व) बिल्कुल मुतास्सिल क़याम रखने और मस्जिद के अन्दर घर का दरवाज़ा होने के बावजूद कभी अपने वालिदे बुज़ुर्गवार के पीछे नमाज़े जमाअत में शिरकत या आपके मौवाएज़ के सुनने के लिए भी मस्जिद में तशरीफ़ नहीं लाईं। एक मरतबा पैग़म्बर (स.अ.व.व) ने मिम्बर पर यह सवाल पेश फ़रमा दिया कि औरत के लिये सब से बेहतर क्या चीज़ है ? यह बात जनाबे सैय्यदा (स.अ) तक पहुंची , आपने जवाब दिया , औरत के लिये सब से बेहतर यह बात है कि न इसकी नज़र किसी ग़ैर मर्द पर पड़े और न किसी ग़ैर मर्द की नज़र उस पर पड़े। रसूल (स.अ.व.व) के सामने यह जवाब पेश हुआ आपने फ़रमाया , क्यों न हो फातेमा मेरा ही एक जुज़ है।

जनाबे सैय्यदा (स.अ) का जिहाद

इस्लाम में औरत का जिहाद मर्द से अलग है इस लिए सैय्यदा (स.अ) ने कभी मैदाने जंग में क़दम नहीं रखा मगर रसूल (स.अ.व.व) जब कभी ज़ख़्मी हो कर घर वापस तशरीफ़ लाते थे तो पैग़म्बर (स.अ.व.व) के ज़ख़्मों को धुलाने वाली , और अली अ 0 जब ख़ून में डूबी तलवार ले कर आते थे तो उनकी तलवार को साफ़ करने वाली फातेमा ज़हरा ही होती थीं। एक मरतबा नुसरते इस्लाम के लिए मैदान में गईं मगर उस पुर अमन मामले में जो नसारा के मुक़ाबले में हुआ था और जिस में सिर्फ़ रूहानी फ़तेह का सवाल था। इस जिहाद का नाम मुबाहेला है और इस में पर्दा दारी के तमाम इमकानी तक़ाज़ों की पाबन्दी के साथ सैय्यदा ए आलम बाप बेटों और शौहर के बीच मरकज़ी हैसीयत रखती थी।

(वसाएल अल शिया जिल्द 3 पृष्ठ 61)

हज़रत फातेमा (स.अ) और उमूरे ख़ानादारी

औरतों का ज़ौहरे ज़ाती शौहरों की ख़िदमत और अमूर ख़ाना दरी में कमाल हासिल करना है। फातेमा ज़हरा (स.अ) ने अली (अ.स) की ऐसी ख़िदमत की कि मुश्किल से इसकी मिसाल मिल सकेगी। हर मुसीबत और तकलीफ़ में फ़रमा बरदारी पर नज़र रखी और अगर मैं यह कहूं तो बेजा न होगा कि जिस तरह ख़दीजा (स.अ) ने इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम की ख़िदमत की , इसी तरह बिन्ते रसूल (स.अ) ने इस्लाम और अली अ 0 की ख़िदमत की , यही वजह है कि जिस तरह रसूले करीम (स.अ.व.व) ने ख़दीजा (स.अ) की मौजूदगी में दूसरा अक़्द नहीं किया हज़रत अली अ 0 ने भी फातेमा (स.अ) की मौजूदगी में दूसरा अक़्द नहीं किया। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 85 व मुनाक़िब पृष्ठ 8) हज़रत अली अ 0 से किसी ने पूछा के फातेमा (स.अ) आप की नज़र में कैसी थीं ? फ़रमाया ख़ुदा की क़सम वह जन्नत का फूल थीं। दुनियां से उठ जाने के बाद मेरा दिमाग़ उनकी ख़ुशबू से मुअत्तर है।

उमूरे ख़ानदानी में जनाबे सैय्यदा आप ही अपनी नज़र थीं। 7 हिजरी तक आप के पास कोई कनीज़ न थी। कनीज़ न होने की सूरत में घर का सारा काम ख़ुद करती थीं , झाड़ू देती थीं , पानी भरती , चक्की पीसती थीं , आटा छानती थीं , आटा गुंधती थी , तनूर जलाकर रोटी पकाती थीं। हज़रत अली (अ.स) सवेरे उठ कर मस्जिद चले जाते थे और वहां से मज़दूरी की फ़िक्र में लग जाते थे। फ़िज़्ज़ा के आ जाने के बाद काम बांट लिया गया था। बल्कि बारी बांट ली थी। एक दफ़ा सरकारे दो आलम (स.अ.व.व) ख़ाना ए सैय्यदा स. में तशरीफ़ लाये। देखा कि सैय्यदा गोद में बच्चे को लिये चक्की पीस रही हैं , फ़रमाया बेटी एक काम फ़िज़्ज़ा के हवाले कर दो। अर्ज़ की बाबा जान ! आज फ़िज़्ज़ा की बारी का दिन नहीं है।

(मुनाक़िब पृष्ठ 14)

हज़रत फातेमा (स.अ) और बाहम गुज़ारदारी ज़ौजा व ख़ावन्द

हज़रत इमाम मूसा काज़िम अ 0 इरशाद फ़रमाते हैं कि जिहाद अल मरअतल हसन अल तबअल , औरत का जिहाद शौहर के साथ हुस्ने सुलूक है। (वसाएल एल शिया जिल्द 12 पृष्ठ 116) एक हदीस में है कि , ला तूदी अलमुरतह हक़ अल्लाह हत्ती तूदी हक़ ज़ौजह , औरत अगर ख़ावन्द का हक़ अदा नहीं करती तो समझ लेना चाहिए कि वह अल्लाह ते हुक़ूक़ भी अदा नहीं कर सकती।

(मकारिमुल अख़लाक़ पृष्ठ 247)

रसूले करीम (स.अ.व.व) फ़रमाते हैं कि अगर ख़ुदा के अलावा किसी को सज्दा जाएज़ होता तो मैं औरतों को हुक्म देता कि अपने शौहरों को सज्दा करें।

(वसाएल जिल्द 14 पृष्ठ 114)

हज़रत फातेमा (स.अ) हुक़ूक़े ख़ावन्द से जिस दर्जा वाक़िफ़ थीं कोई भी वाक़िफ़ न थी। उन्होंने हर मौक़े पर अपने शौहर हज़रत अली (अ.स) का लिहाज़ व ख़्याल रखा। उन्होंने कभी उन से कोई ऐसा सवाल नहीं किया जिसके पूरा करने से हज़रत अली अ 0 आजिज़ रहे हों। किताब रेयाहीन अल शरीअत में है कि एक मरतबा हज़रत फातेमा (स.अ) बीमार पड़ीं तो हज़रत अली अ 0 ने उनसे फ़रमाया कुछ खाने को दिल चाहता हो तो बताओ , हज़रत सैय्यदा ने अर्ज़ की किसी चीज़ को दिल नहीं चाहता। हज़रत अली अ 0 ने इसरार किया तो अर्ज़ की मेरे पदरे बुज़ुर्गवार ने मुझे हिदायत की है कि मैं आप से किसी चीज़ का सवाल न करूं मुम्किन है आप उसे पूरा न कर सके तो आप को दुख हो इस लिये मैं कुछ नहीं कहती। हज़रत अली (अ.स) ने जब क़सम दी तो अनार का ज़िक्र किया।

यह तारीख़ का मुसल्लेमा अमर है कि हज़रत अली अ 0 और हज़रत फातेमा (स.अ) में कभी किसी बात पर नाराज़गी नहीं हुई और दोनों ने बाहम दिगर ख़ुशगवार ज़िन्दगी गुज़ारी है।

(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

सास बहू के ताअल्लुक़ात

फातेमा ज़हरा स. की शादी के वक़्त जनाबे फातेमा बिन्ते असद ज़िन्दा थीं। सास बहू के ताअल्लुक़ात अकसर बेशतर नाख़ुशगवार हो जाया करते हैं लेकिन फातेमा स. ने ऐसा दस्तूर और रवैया इख्तियार किया कि कभी भी ताअल्लुक़ात में तनाव पैदा न होने पाया। फातेमा बिन्ते असद के सिपुर्द दोस्त व रिश्तेदारों की मुलाक़ात , शादी और ग़मी में शिरकत वग़ैरा क़रार दिया और अपने ज़िम्मे अमूर ख़ानदारी मसलन चक्की पीसना , रोटी पकाना वग़ैरा रख लिया था। तारीख़ में इन दोनों की बाहमी कशीदगी का सुराग़ नहीं मिलता।

आपकी औलाद

आपके तीन बेटे और दो बेटियां पैदा हुईं। 15 रमज़ान 3 हिजरी को इमाम हसन अ 0 और 3 शाबान 4 हिजरी को इमाम हुसैन अ 0 और 5 जमादिल अव्वल 6 हिजरी में हज़रत ज़ैनब स. और 9 हिजरी में जनाबे उम्मे कुलसूम और 11 हिजरी में इस्तेक़ाते मोहसिन हुआ। उलमा ने लिखा है कि ज़ैनब का निकाह अब्दुल्लाह बिन जाफ़र और उम्मे कुलसूम का निकाह मोहम्मद बिन जाफ़र से हुआ था।

(इब्ने माजा अबू दाऊद , इब्ने हजर और असआफ़ उर राग़ेबीन बर हाशिया नूर उल अबसार पृष्ठ 80 मुद्रित मिस्र)

बारवायते सिब्ते इब्ने जौज़ी हज़रत ज़ैनब के बतन से औन व अब्दुल्लाह पैदा हुए और उम्मे कुलसूम ला वलद मरीं।

(तज़किरा ख्वास पृष्ठ 380)

आपकी इबादत

आप अनगिनत नमाज़े रात और दिन पढ़ा करती थीं। आपने अपने पदरे बुज़ुर्गवार के साथ 10 हिजरी में आख़री हज फ़रमाया था।

फातेमा ज़हरा (स.अ) पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) की नज़र में

फातेमा ज़हरा (स.अ) की फ़ज़ीलत और इनके मदारिज के सिलसिले में क़ुरान मजीद की आएतें और बेशुमार हदीसें मौजूद हैं इस वक़्त चन्द अहादीस और पैग़म्बरे इस्लाम के बाज़ तरज़े अमल पर इक़तेफ़ा करता हूं। आपका इरशाद है कि फातेमा जन्नत में जाने वाली औरतों की सरदार हैं। तमाम जहान की औरतों की सरदार हैं। आपकी रज़ा से अल्लाह राज़ी होता है जिसने आपको तकलीफ़ दी उसने रसूल (स.अ) को तकलीफ़ पहुंचाई। ख़ुदा ने आपकी बदौलत आपके मानने वालों को जहन्नम से छुड़वा दिया। आप फ़रमाते हैं कि मर्दों में बहुत लोग कामिल गुज़रे हैं लेकिन औरतों में सिर्फ़ चार औरतें कामिल गुज़री हैं। 1.मरयम , 2. आसीया 3. ख़दीजा 4. फातेमा और इन में सब से बड़ा दर्जा ए कमाल फातेमा को हासिल है। उलमा का बयान है कि हज़रत पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) आप से इन्तेहाई मोहब्बत रखते थे और कमाल इज़्ज़त भी करते थे। मोहब्बत के मुज़ाहिरों में से एक यह था कि जब किसी ग़ज़वे में तशरीफ़ ले जाते थे तो सब से आख़िर में फातेमा स. से रूख़सत होते थे और जब वापिस आते थे तो सब से पहले फातेमा ज़हरा स. को देखने तशरीफ़ ले जाते थे और इज़्ज़तो एहतिराम का मुज़ाहेरा यह था कि जब हज़रत फातेमा आती थीं तो आप ताज़ीम को खड़े हो जाते थे और अपनी जगह पर बिठाते थे।

(तिरमिज़ी जिल्द 2 पृष्ठ 249 मुद्रित मिस्र)

(मतालिब सऊल पृष्ठ 22 मुद्रित लखनऊ)

मुख़तलिफ़ कुतुब सहा में मौजूद है कि आं हज़रत (स अ व व) ने फ़रमाया , फातेमा मेरा जुज़ है जो उसे तकलीफ़ पहुंचाएगा वह मुझे तकलीफ़ पहुंचाएगा। मुवर्रेख़ीन और मुहद्देसीन का इत्तेफ़ाक़ है कि नुज़ूल आया ए ततहीर के बाद सरवरे दो आलम दरे फातेमा स पर 9 माह लगातार बवक़्ते नमाज़े सुबह जाकर आवाज़ दिया करते और फ़रते मसर्रत में फ़रमाया करते थे कि ख़ुदा ने तुम्हें हर तरह की गन्दगी से पाको पाकीज़ा किया है।

(ज़ाद उल उक़बा तरजुमा मुवद्दतुल क़ुरबा मुवद्दत 11 पृष्ठ 100)

हज़रत फातेमा (स अ ) रब्बुल इज़्ज़त की निगाह मे

मोहद्देसीन (हदीसों के ज्ञाता ) का बयान है कि हज़रत फातेमा (स अ ) को परवर दीगारे आलम अपनी कनीज़े ख़ास जानता था और उनकी बेहद इज़्ज़त करता था। देखा गया है कि हज़रत सैय्यदा नमाज़ में मशग़ूल होती थीं और फ़रिश्ते इनके बच्चों को झूला झुलाते थे और जब वह क़ुरआन पढ़ने बैठती थीं तो फ़रिश्ते उनकी चक्की पीसा करते थे। हज़रत रसूले करीम (स अ व व ) ने झूला झुलाने वाले फ़रिश्ते का नाम जिब्राईल और चक्की पीसने वाले का नाम औक़ाबील बताया है।(मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब , जिल्द 2 पृष्ठ 28, मुल्तान में छपी)

फातेमा (स अ ) अहदे रिसालत (स अ व व ) मे

पैग़म्बरे इस्लाम (स अ व व ) की हयात में फातेमा (स अ ) की क़दरो मंज़िलत , इज़्ज़त व तौक़ीर की कोई हद न थी। इन्सान तो दर किनार मलाएका का यह हाल था कि आसमानों में उतर ज़मीन पर आते और फातेमा (स अ ) की ख़िदमत करते। कभी जन्नत के तबक़ लाये , कभी हसनैन अ 0 का झूला झुला कर फातेमा की मदद की। अगर उनके मुंह से ईद के मौक़े पर निकल गया कि बच्चों तुम्हारे कपड़े दरज़ी लायेगा तो जन्नत के ख़ज़ानची को दरज़ी बन कर आना पड़ा। हद है कि मलकुल मौत भी आपकी इजाज़त के बग़ैर घर में दाख़िल न हुये। अल्लामा अबदुल मोमिन हन्फ़ी लिखते हैं कि सरवरे कायनात (स अ व व ) के वक़्ते आख़िर फातेमा के ज़ानू पर सरे रिसालत माआब था , मलकुल मौत ने आवाज़ दी और घर में आने की इजाज़त चाही , फातेमा (स अ ) ने इन्कार कर दिया , मलकुल मौत दरवाज़े पर रूक गये लेकिन मकान में दाख़िल होने की ज़िद करते रहे। फातेमा (स अ ) के बराबर इन्कार पर मलकुल मौत ने कुछ आवाज़ बदल कर आवाज़ दी। फातेमा स रो पड़ीं , आपके आंसू रूख़सारे रिसालत पर गिरे। पैग़म्बर (स अ व व ) ने पूछा क्या बात है ? आप ने वाक़िया बताया। हुक्म हुआ ?! इजाज़त दो यो मलकुल मौत हैं।(अजायब अल क़स्स , पृष्ठ 282)

फातेमा ज़हरा रसूले इस्लाम के बाद

28 सफ़र 11 हिजरी को रसूले इस्लाम का इन्तेक़ाल हुआ। आपके इन्तेक़ाल के बाद आपके घर वालों पर ज़ुल्म व अत्याचार के पहाड़ टूट पड़े और आप इतना दुखी हुईं कि अपनी कश्तीए हयात 75 दिन से अधिक न खेंच सकीं। आपके सर पर पट्टी बंधी रहा करती थी और रात दिन अपने बाबा को रोया करती थीं। आपके लिये सरवरे कायनात का सदमा ही क्या कम था के उस पर आफ़त यह कि दुनिया दारों ने रसूल (स.अ.व.व) के घर को ग़मों का अड्डा बना दिया। होना यह चाहिये था कि बाप के इन्तेक़ाल के बाद कफ़न दफ़न की मुसिबत से दुख दर्द मारी बेटी को बे नियाज़ कर दिया जाता और हुज़ूर की तदफ़ीन , तकफ़ीन को बहुत अच्छी तरह अंजाम दिया जाता , लेकिन अफ़सोस इसके विपरीत दुनिया वालों ने रसूले इस्लाम (स.अ.व.व) की मय्यत को यूं ही घर में छोड़ दिया और ख़ुदा और रसूल की मंशे के ख़िलाफ़ अपनी हुकूमत की बुनियाद क़ायम करने के लिये सक़ीफ़ा बनी साएदा चले गये। रसूले इस्लाम (स.अ.व.व) की मय्यत पड़ी रही , बिल आख़िर आले मोहम्मद (स.अ.व.व) और दीगर चन्द मानने वालों ने इस फ़रीज़े को अदा किया। यह वाक़ेया भुलाने के क़ाबिल नहीं जब की हज़रत अबू बक्र ख़लीफ़ा बन कर और हज़रत उमर ख़लीफ़ा बना कर वापस लौटे तो सरवरे कायनात (स.अ.व.व) की लाशे मुतहर सुपुर्दे ख़ाक की जा चुकी थी। इन हज़रात ने इस तरफ़ ध्यान न दिया और किसी ग़म व अफ़सोस का इज़हार न किया और सब से पहले जिस चीज़ की कोशिश शुरू की वह हज़रत अली अ 0 से बैअत लेने की थी। हज़रत अली अ 0 और कुछ महत्वपूर्ण एंव आदरणीय सहाबा जिन में कुल बनी हाशिम , ज़ुबैरस अतबआ बिन अबी लहब , ख़ालिद बिन सईद , मिक़दाद बिन उमर , सलमाने फ़ारसी , अबू ज़रे ग़फ़्फ़ारी , अम्मारे यासिर , बरा बिन आज़िब , इब्ने अबी क़अब , और अबू सुफ़ियान क़ाबिले ज़िक्र हैं।

(तारिख़े अबुल फ़िदा , जिल्द 1 पृष्ठ 375)

यह लोग चूकिं ख़िलाफ़ते मन्सूसा के मुक़ाबले में सक़ीफ़ाई ख़िलाफ़त को तसलीम न करते थे लेहाज़ा लिहाज़ा जनाबे फातेमा (स.अ) के घर में गोशा नशीन हो गये। इस पर हज़रत उमर आग और लकड़ियां लेकर आये और कहा घर से निकलों वरना हम घर में आग लगा दें गे। यह सुन कर हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ) दरवाज़े के क़रीब आईं और फ़रमाया कि इस घर में रसूल (स.अ) के नवासे हसनैन भी मौजूद हैं। कहा होने होने दीजिये।

(तारिख़ तबरी , वल इमामत वल सियासत , जिल्द 1 पृष्ठ 12)

इसके बाद बराबर शोर ग़ुल होता रहा और अली (अ.स) को घर से बाहर निकालने की बात होती रही। मगर अली (अ.स) न निकले , फातेमा (स.अ) के घर को आग लगा दी गई।( 1) जब शोले बलन्द होने लगे तो फातेमा (स.अ) दौड़ कर दरवाज़े के क़रीब आईं और फ़रमाया , अरे अभी मेरे बाप का कफ़न भी मैला न होने पाया कि यह तुम क्या कर रहे हो ? यह सुन कर फातेमा (स.अ) के उपर दरवाज़ा गिरा दिया गया जिसकी वजह से फातेमा (स.अ) के पेट पर चोट लगी और फातेमा (स.अ) के पेट में मोहसिन नाम का बच्चा शहीद हो गया।

(किताब अल मिलल वन्नहल शहरिस्तानी , मिस्र में छपी पृष्ठ 202)

अल्लामा मुल्ला मूईन काशफ़ी लिखतें हैं कि फातेमा इसी ज़रबे उमर से रेहलत कर गईं।

(मुलाहेज़ा हो माआरिज अल नबूवत , पैरा 4, भाग 3 पृष्ठ 42)

इसके बाद यह लोग हज़रत फातेमा (स.अ) के घर में बेधड़क घुस आये और अली (अ.स) को गिरफ़तार कर के उनके गले में रस्सी बांधी इब्ने अबील हदीद , 3, और लेकर दरबारे खि़लाफ़त में पहुंचे , और कहा बैअत करो , वरना ख़ुदा की क़सम तुम्हारी गरदन मार देंगे। रौज़तुल अहबाब हज़रत अली (अ.स) ने कहा , तुम क्या कर रहे हो और कि़स क़ायदे और किस बुनियाद पर मुझ से बैअत ले रहे हो। यह कभी नहीं हो सकता। अल इमामत वल सियासत , जिल्द 1 पृष्ठ 13 बाज़ इतिहास कारों का बयान है कि उन लोंगो ने सैय्यदा के घर में घुस कर धमा चैकड़ी मचा दी बिल आखि़र इबने वाज़े के अनुसार ‘‘फ़ख़्रजत फ़ात्मतः फ़ाक़ालत वल्लाहुल तजज़ जिन औला कशफ़न शआरी वल अजजन इल्ललाह ’’ फातेमा बिन्ते रसूल (स.अ) सहने ख़ाना में निकल आईं और कहने लगीं ख़ुदा की क़सम घर से निकल जाओ वरना मैं अपने सर के बाल खोल दूंगी और ख़ुदा की बारगाह में सख़्त फ़रियाद करूगीं।

तारीख़ अल याक़ूबी जिल्द 2 पृष्ठ 116 एक रवायत में है कि जब हज़रत अली (अ.स) को गिरफ़तार कर के ले जाया जा रहा था तो हज़रत फातेमा बिन्ते रसूल (स.अ) ने फ़रियाद करते हुए कहा था कि अबुल हसन को छोड़ दो वरना अपने सर के बाल खोल दूंगी। तबरी कहते हैं कि इस कहने पर मस्जिदे नबवी की दीवार कद्दे आदम बुलन्द हो गई थी।( 2) इसके बाद हज़रत फातेमा को सूचना मिली के आपकी वह जायदाद जिसका नाम फ़दक़ था जो बहुक्मे ख़ुदा रसूल (स.अ.व.व) के हाथों आई थी और जिसकी आमदनी फ़क़ीरों , अनाथों पर हमेशा से ख़र्च होती आई जिसका महले वक़ू मदीना मुनव्वरा से शुमाल की तरफ़ सौ मील है पर ख़लीफ़ा ए वक़्त ने क़ब्ज़ा कर लिया है। मोअजि़्ज़म अलबदान सही बुख़ारी अल फ़ारूख़ जिल्द 2 पृष्ठ 288, यह मालूम कर के आप हद् दर्जा ग़ज़ब नाक हुईं बुख़ारी और यह मालूम कर के और ज़्यादा दुखी हुईं कि एक फ़रज़ी हदीस ग़सबे फि़दक के जवाज़ में गढ़ ली है। अल ग़रज़ आप ने दरबारे खि़लाफ़त में अपना मुतालबा पेश किया और इनकारे सुबह पर बतौरे सबूत हज़रत अली (अ.स) , हज़रत हमामे हसन (अ.स) , इमामे हुसैन (अ.स) , उम्मे ऐमन और रबाह को गवाही में पेश किया लेकिन सब की गवाहियां रद्द कर दी गईं और कहा गया अली शैहर हैं हसनैन बेटे हैं उम्मे ऐमन वग़ैरा कनीज़ व ग़ुलाम हैं , इनकी गवाही नहीं मानी जा सकती। किताब अल कशफ़ा , इन्सान अल अयून व सवाएक़ सफ़ा 32, एक रवासत की बीना पर हज़रत अबू बकर ने हेबा का तस्दीक़ नामा लिख कर फातेमा (स.अ) को दे दिया था वह ले कर जाने ही वाली थीं के अचानक हज़रत उमर आये , पूछा क्या है ? कहा तसदीक़े हेबा नामा , आप ने वह ख़त हाथ से ले कर चाक कर डाला और बा रवायत ज़मीन पर फेक कर उस पर थूक दिया और पांव से रगड़ डाला सीरते हलबिया पृष्ठ 185, और मुक़दमा ख़ारिज करा दिया , इनसान अल अयून जिल्द 3 पृष्ठ 400 सबा मिस्त्र , इसी सिलसिले में आपका ख़ुतबा लम्मा ख़ास अहमियत रखता है। इसके थोड़े दिन बाद हज़रत अबू बक्र और हज़रत उमर , अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स) की खि़दमत मे हाजि़र हुए और अजऱ् की कि हम ने फातेमा को नाराज़ किया है , हमारे साथ चलिए हम उन से माफ़ी मांग लें। हज़रत अली (अ.स) उनको हमराह ले कर आए और फ़रमाया ऐ फातेमा यह दोनों पहले आए थे और तुमने उन्हें अपने मकान में घुसने नहीं दिया अब मुझे ले कर आएं हैं इजाज़त दो कि दाखि़ले खाना हो जाऐं। हुक्मे अली (अ.स) से इजाज़त तो दे दी लेकिन जब यह दाखिले खाना हुए तो फातेमा ने दीवार की तरफ़ मुंह फेर लिया और सलाम का जवाब तक न दिया और फ़रमाया ख़ुदा की क़सम ता जि़न्दगी नमाज़ के बाद तुम दोनों पर बद दुआ करती रहूंगी। ग़रज़ की फातेमा ने माफ़ न किया और यह लोग मायूस वापिस हो गये। अल इमामत वल सियासत मुअल्लेफ़ा इब्ने अबी क़तीबा मतूफ़ी 276 हिजरी जिल्द 1 पृष्ठ 14 इमाम बुख़ारी कहते हैं कि फातेमा ने ता हयात उन लोगों से बात नहीं की और ग़ज़ब नाक ही दुनिया से उठ गईं।

1 रौज़ातुल अल मनाजि़र हासिया कामिल 11 पृष्ठ 113 32 व एहतिजाज तबरी

2 मुआक़ी अल अख़बार पृष्ठ 206 4, एतिजाज 1 पृष्ठ 112

आपकी अलालत

हम उपर बा हवाला अल्लामा शहर सतानी व अल्लामा मोईन काशफ़ी लिख कर आए हैं कि हज़रत उमर ने सैय्यदातुन निसां हज़रत फातेमा पर दरवाज़ा गिराया था और शिकमे मुबारक पर ज़र्ब लगाई थी जिसकी वजह से इस्तेक़ाते हमल हुआ था। और इसी सबब से आप बीमार हुईं और आखि़्र में मर गईं। अब आपकी खि़दमत में डिप्टी नज़ीर अहमद की तहरीर का एकतेबास पेश करते हैं। वह लिखते हैं , जो आदमी रसूल (स.अ.व.व) के मरने से सब से ज़्यादा प्रभावित हुआ वह फातेमा थीं। मां पहले ही मर चुकी थीं अब मां और बाप दोनो की जगह पैग़म्बर साहब ही थे और बाप भी कैसे दीन और दुनियां के बादशाह। ऐसे बाप का साया सर से उठना इस पर हज़रत अली (अ.स) का खि़लाफ़त से महरूम रहना तरके पदरी फि़दक का दावा करना और मुक़दमा हार जाना , इन्हीं दुखों में आप का इन्तेक़ाल हो गया। रोया ऐ सादक़ा फ़सल 14, आप इस क़द्र रोईं की अहले मोहल्ला एतेराज़ करने लगे , आखि़र में हज़रत अली ने रोने के लिये मदीने से बाहर बैतुल हुज़्न बनवाया था।

(अनवारूल हुसैनिया सफ़ा 24 प्रकाशित बम्बई)

(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

हालात से प्रभावित हो कर हज़रत सैय्यदा ने अपने वालिद बुजुर्गवार का जो मरसिया कहा है उसका एक शेर यह है किः-

सुब्बत अलैया मसाएबुन लव अन्नहार

सुब्बत अलल अयामे सिरना लेया लिया

तरजुमाः- अब्बा जान आपके बाद मुझ पर ऐसी मुसीबतें पड़ीं कि अगर वह दिनों पर पड़तीं तो मिस्ल रात के तारीक हो जाते।

(नुरूल अबसार पृष्ठ 46, व मदारिज जिल्द 2 पृष्ठ 524)

आपकी वसीयत

फातेमा ज़हरा (स.अ) ने अस्मा बिन्ते उमैस से फ़रमाया कि ऐ असमा मुझे मुसलमानों की औरतों की मैयित के ले जाने का तरीक़ा पसन्द नही है। यह तख़्ते पर लिटा कर कपड़ा डाल कर ले जाते हैं। अस्मा ने कहा , मैं हबशा में बहुत अच्छा ताबूत देख आईं हूं , फ़रमाया इसकी नक़ल बना दो। अली (अ.स) को बुलाया और वसीअत की। आपने कहा , मुझे खुद नहलाना , कफ़न पहनाना , मेरा जनाज़ा रात मे उठाना , जिन लोगों ने मुझे सताया है उनको मेरे जनाज़े में न शरीक होने देना। मेरे बाद शादी करना तो एक रात मेरे बच्चों के पास और एक रात अपनी बीवी के पास गुज़ारना।

शमशुल उलमा मिस्टर नज़ीर अहमद देहलवी लिखते हैं कि , फातेमा ने अबू बक्र वग़ैरा से बात करना छोड़ दी । मरते वक़्त वसीअत की कि मुझे रात के वक़्त दफ़न करना और यह लोग मेरे जनाज़े पर न आने पाऐं उम्मेहातुल उम्मत पृष्ठ 99, अल्लामा अब्दुरबर लिखते हैं कि फातेमा की वसीयत थी कि आयशा भी जनाज़े पर न आऐं।

(इस्तेआब जिल्द 2, सफ़ा 772,)

जनाबे सैय्यदा की हज़राते शेख़ैन से नाराज़गी के लिये मज़ीद मुलाहज़ा हों। तेस्पर अलक़ारी तरजुमा बुख़ारी जिल्द 12 पृष्ठ 18 -21 व पे 17 पृष्ठ 21, मुश्किलुल आसार तहावी जि 0 1 पृष्ठ 48 तरजुमा सही मुस्लिम जिल्द 5 पृष्ठ 25 रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 पृष्ठ 434 अज़ाला अलख़फ़ा जिल्द 2 पृष्ठ 57 बराहीने क़ाते तरजुमा सवाक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 21, अशअतुल मात जिल्द 3 पृष्ठ 480 अल ज़हरा- उमर अबू नसर उर्दू तरजुमा पृष्ठ 89- जमा उल फ़वाएद जिल्द 2 पृष्ठ 18 प्रकाशित मेरठ।

आपकी वफ़ात हसरते आयात

दुनिया ए इस्लाम के क़दीम मुवर्रेख़ीन इब्ने क़तीबा का बयान है कि हज़रत फातेमा हज़रते सरवरे कायनात (स.अ.व.व) की वफ़ात के बाद सिर्फ़ 75 दिन जि़न्दा रह कर मर गईं। अल इमामत वल सियासत जिल्द 1 पृष्ठ 14, अल्लामा बहाई का जामऐ अब्बासी पृष्ठ 79 में बयान है कि 100 दिन बाद इन्तेक़ाल हुआ। आपकी तारीख़े वफ़ात सोमवार दिन 3 जमादील सानी 11 हिजरी है।

(अनवाररूल हुसैनिया जिल्द 3 पृष्ठ 29 प्रकाशित नजफ़)

आपकी वफ़ात से सम्बन्धित हज़रत इब्ने अब्बास सहाबी रसूल का बयान है कि जब फातेमा ज़हरा के इन्तेक़ाल का समय आया तो न मासूमा को बुख़ार आया , और न दर्दे सर हुआ बल्कि इमामे हसन (अ.स) और इमामे हुसैन (अ.स) के हाथ पकड़े और दोनों को लेकर क़ब्रे रसूल (स.अ.व.व) पर गईं और क़ब्र और मिम्बर के बीच दो रकअत नमाज़ पढ़ी। फि़र दोनों को अपने सीने से लगाया और फ़रमाया ऐ मेरे बच्चों ! तुम दोनों एक घंटा अपने बाबा के पास बैठो , अमीरूल मोमिनीन इस वक़्त मस्जिद में नमाज़ पढ़ रहे थे , फिर वहां से घर आईं और आं हज़रत की चादर उठाई ग़ुस्ल कर के हज़रत का बचा हुआ कफ़न , या कपड़े पहने , बाद अज़ान ज़ोजा हज़रते जाफ़रे तैयार असमा को अवाज़ दी , असमा ने अजऱ् की बीबी हाजि़र होती हूं। जनाबे फातेमा ने फ़रमाया , असमा तुम मुझसे अलग न होना , मै एक घंटा इस हुजरे में लेटना चाहती हूं। जब एक घंटा गुज़र जाए और मैं बाहर न निकलूं तो मुझको तीन अवाज़े देना , अगर मैं जवाब दूं तो अन्दर चली आना , वरना समझ लेना कि मैं रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) से मुलहिक़ हो चुकी हूं। बाद अज़ां रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) की जगह पर खड़ी हुईं और दो रकअत नमाज़ पढ़ी फिर लेट गईं और अपना मुँह चादर से ढांप लिया। बाज़ उलमा का कहना है कि सैय्यदा ने सजदे मे ही वफ़ात पाई। अल ग़रज़ जब एक घंटा गुज़र गया तो असमा ने जनाबे सैय्यदा को अवाज़ दी। ऐ हसन (अ.स) और हुसैन (अ.स) की मां ! ऐ रसूले खुदा (स.अ.व.व) की बेटी ! मगर कुछ जवाब न मिला। तब असमा उस हुजरे में दाखि़ल हुईं , क्या देखती हैं कि वह मासूमा मर चुकी हैं , असमा ने अपना गरेबान फाड़ लिया और घर से बाहर निकल पड़ीं। हसन (अ.स) और हुसैन (अ.स) आ पहुंचे। पूछा असमा हमारी अम्मा कहां हैं ? अर्ज़ की हुजरे में हैं। शहज़ादे हुजरे मे पहुंचे तो देखा कि मादरे गिरामी मर चुकी हैं। शहज़ादे रोते पीटते मस्जिद पहुंचे। हज़रत अली (अ.स) को ख़बर दी , आप सदमे से बेहाल हो गये। फिर वहां से बहाले परेशान घर पहुंचे देखा कि असमा सरहाने बैठी रो रही हैं। आपने चेहरा ए अनवर खोला। सरहाने एक पर्चा मिला , जिसमें शहादतैन के बाद वसीयत पर अमल का हवाला था और ताक़ीद थी कि मुझे अपने हाथों से ग़ुस्ल देना , हनूत करना , कफ़न पहनाना , रात के वक़्त दफ़न करना और दुश्मनों को मेरे दफ़न की ख़बर न देना इसमें यह भी लिखा था कि मैं तुम्हें ख़ुदा के हवाले करती हूं और अपनी इन तमाम औलादों सादात को सलाम करती हूं जो क़यामत तक पैदा होगी।

जब रात हुई तो हज़रत अली (अ.स) ने ग़ुस्ल दिया , कफ़न पहनाया , नमाज़ पढ़ी , बेनाबर रवायत मशहूरा जन्नतुल बक़ी मे ले जा कर दफ़न कर दिया।

(ज़ाद अल क़बा तरजुमा मुवद्दतुल क़ुर्बा अली हमदानी शाफे़ई पृष्ठ 125 ता पृष्ठ 129 प्रकाशित लाहौर)

एक रवायत में है कि आपको मिम्बर और क़ब्रे रसूल (स.अ.व.व) के बीच में दफ़न किया गया।

(अनवारूल हुसैनिया जिल्द 3 पृष्ठ 39)

मक़ातिल किताब में है कि ग़ुस्ल के वक़्त हज़रत अली

(अ.स) पुश्त व बाज़ु ए फातेमा (स.अ) पर उमर के दुर्रे का निशान देखा था और चीख़ मार कर रोए थे। सही बुख़ारी और मुस्लिम मे है कि हज़रत अली (अ.स) ने फातेमा (स.अ) को रात के वक़्त दफ़न कर दिया। ‘‘वलम यूज़न बेहा अबा बक्र व सल्ली अलैहा ’’ अबू बकर वग़ैरा को शिरकते जनाज़ा की इजाज़त नहीं दी और दफ़न की भी ख़बर नहीं दी और नमाज़ ख़ुद पढ़ी। अल्लामा ऐनी शरह बुख़री लिखते हैं कि यह सब कुछ हज़रत अली (अ.स) ने जनाबे फातेमा (स.अ) की वसीअत के अनुसार किया था। सही बुख़ारी हिस्सा अल जिहाद में है कि हज़रत फातेमा (स.अ) हज़रत अबू बकर वग़ैरा से नाराज़ हो गईं और उनसे नाता तोड़ लिया और मरते दम तक बेज़ार रही। इमाम इब्ने कतीका का बयान है कि ख़ुलफ़ा को फातेमा की नाराज़गी की जानकारी थी , वह कोशिश करते रहे कि राज़ी हो जायें एक दफ़ा माफ़ी मांगने भी गये। ‘‘फासताज़ना अली फ़लम ताज़न ’’ और इज़ने हुज़ूरी चाहा , आपने मिलने से इन्कार कर दिया और इनके सलाम तक का जवाब न दिया और फ़रमाया ताजि़न्दगी तुम पर बद्दुआ करूगी और बाबा जान से तुम्हारी शिकायत करूगी।

(अल इमामत वस सीयासत जिल्द 1 पृष्ठ 14 प्रकाशित मिस्र)

आपका जनाज़ा

ग़ुस्ल व कफ़न के बाद हज़रत अली (अ.स) अपनी औलाद और अपने रिश्तेदारों समेत जनाज़ा लेकर रवाना हुए। बेहारूल अनवार किताब अलफ़तन में है कि रास्ता देखने के लिए एक शमा साथ थी और हज़रत ज़ैनब जो काफ़ी कमसिन थी काले कपड़े पहने हुए थी इस साए में चल रही थीं जो शमा की वजह से ताबूत के नीचे ज़मीन पर पड़ रहा था। मुवद्दतुल क़ुर्बा पृष्ठ 129 में है कि हज़रत अली (अ.स) जब जन्नतुल बक़ी में पहुंचे तो एक तरफ़ से आवाज़ आई और खुदी खुदाई क़ब्र दिखाई दे गई। हज़रत अली (अ.स) ने उसी क़ब्र में हज़रत फातेमा (स.अ) की लाशे मुताहर दफ़न की और इस तरह ज़मीन बराबर कर दी कि निशाने क़ब्र मालूम न हो सके।

किताबे मुनतहल आमाल शेख़ अब्बास क़ुम्मी पृष्ठ 139 में है कि जब जनाबे सैय्यदा की लाश क़ब्र मे उतारी गई तो रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) के हाथों की तरह दो हाथ निकले और उन्होने जिसमे मुताहर जनाबे सैय्यदा को सम्भाल लिया। दलाएल उल इमामत में है कि चूकि क़ब्रे फातेमा (स.अ) के साथ बे अदबी का शक था इस लिए चालीस क़ब्रें बनाई गईं। मुनाकि़ब इब्ने शहर आशोब में है कि चालीस क़ब्रें इस लिए बनाई थी कि सही क़ब्र मालूम न हो सके और फातेमा (स.अ) को सताने वाला क़ब्र पर भी नमाज़ न पढ़ सके वरना सैय्यदा को तकलीफ़ होगी। इसके बावजूद लोगों ने क़ब्र खोद कर नमाज़ पढ़ ने की सई की जिसके रद्दे अमल में हज़रत अली (अ.स) नगीं तलवार ले कर पीले कपड़े पहन कर क़ब्र पर जा बैठे। इस वक़्त आप के मुंह से कफ़ निकल रहा था। यह देख कर लोगों की हिम्मते पस्त हो गईं और आगे न बढ़ सके। नासिख़ अल तवारीख़ वग़ैरा वफ़ात के वक़त जनाबे सैय्यदा ताहेरा (स.अ) की उम्र 18 साल की थी। इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेउन

नतीजा

वफ़ाते रसूल (स.अ.व.व) के बाद जनाबे सैय्यदा के साथ जो कुछ किया गया इस पर शमसुल उलमा डिप्टी नज़ीर अहमद एल 0 एल 0 डी 0 मोतरज्जिम क़ुरआने मजीद ने अपनी किताब ‘‘रोया ए सादेक़ा ’’ में निहायत मुफ़स्सिल और मुकम्मल तबसिरा फ़रमाया है जिसके आख़री जुमले यह हैं:-

सख़्त अफ़सोस है कि अहले बैते नबवी को पैग़म्बर साहब की वफ़ात के बाद ही ऐसे नामुलाएम इत्तेफ़ाक़ात पेश आए कि इनका वह अदब व लेहाज़ जो होना चाहिये था इसमें ज़ोफ़ आ गया और शुदा शुदा मुनजि़र हुआ। इस ना क़ाबिले बरदाश्त वाक़ेए करबला की तरफ़ जिसकी नज़ीर तारीख़ में नहीं मिलती। यह ऐसी नालायक़ हरकत मुसलमानों से हुई है कि अगर सच पूछो तो दुनिया व आख़ेरत में मुंह दिखाने के क़ाबिल न रहे।

चे खुश फ़रमूद शख़्से ईं लतीफ़ा कि कुश्ता शुद हुसैन अन्दर सक़ीफ़ा

हज़रत फातेमा (स.अ) के जनाज़े मे शिरकत करने वाले

अल्लामा हाफि़ज़ बिन अली शहर आशोब अल मतूफ़ी 588 हिजरी तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ) के जनाज़े में अमीरल मोमिनीन (अ.स) , इमामे हसन (अ.स) , इमामे हुसैन (अ.स) , अक़ील , सलमाने फ़ारसी , अबूज़र , मेक़दाद , अम्मार और बरीदा शरीक थे और उन्ही लोगों ने नमाज़े जनाज़ा पढ़ी एक रवायत में अब्बास , फ़ज़ल , हुज़ैफ़ा और इब्ने मसूद का इज़ाफ़ा है। तबरी में इब्ने ज़ुबैर का भी तज़किरा है।

(उम्दतुल मतालिब तरजुमा मुनाकि़ब जिल्द 2 पृष्ठ 65 प्रकाशित मुल्तान)

हज़रत फातेमा (स.अ) का मदफ़न

जैसा कि उपर गुज़रा , हज़रत फातेमा (स.अ) के जाए दफ़न में अख़्तेलाफ़ है। कोई जन्नतुल बक़ी , कोई मिम्बरे रसूल (स.अ.व.व) के बीच में कोई क़ब्र और घर के बीच क़ब्र बताता है। मशहूर यही है कि जन्नतुल बक़ी में आप दफ़न हुई हैं लेकिन अहमद बिन मोहम्मद बिन अबी नसर ने अबुल हसन हज़रत इमाम रज़ा (अ.स) से रवायत की है , वह फ़रमाते हैं कि हज़रत फातेमा (स.अ) अपने घर मे मदफ़ून हैं। जब बनी उम्मया ने मस्जिद की तौसीफ़ की तो उनकी क़ब्र रौज़ा ए रसूल (स.अ.व.व) के अन्दर आ गई है।

(तरजुमा मुनाकि़ब इब्ने शहर आशोब जिल्द 2 पृष्ठ 69)

हज़रत फातेमा (स.अ) की क़ब्र पर हज़रत अली (अ.स) का मरसिया

अल्लामा इब्ने शहर आशोब लिखते हैं कि हज़रत अली (अ.स) ने वफ़ाते सैय्यदा (स.अ) पर अत्याधिक दुख प्रकट किया और बे पनाह ग़मों अलम का अहसास किया। उन्हानें जो क़ब्र पर मरसिया पढ़ा वह यह है:-

लेकुले इजतेमा मन ख़लीलैन फ़रक़तह

वक़ल लज़ी दूने अल फि़राक़ क़लील

दो दोस्तों के हर इजतेमा का नतीजा जुदाई है और हर मुसीबत दिलबरों की जुदाई की मुसीबत से कम है।

वअन इफ़तेक़ादी फ़ातम बादे अहमद

वलैला अली अन लायदमू ख़लील

हज़रत रसूले करीम (स.अ.व.व) के तशरीफ़ ले जाने के बाद मेरी रफ़ीक़ा ए हयात फातेमा (स.अ) का दाग़े फि़राक़़ दे जाना इस अमर का सबूत है कि कोई दोस्त हमेशा नहीं रहेगा।

अल्लामा शेख़ अब्बास क़ुम्मी लिखते हैं कि हज़रत सैय्यदा को सुपुर्दे ख़ाक करने के बाद हज़रत अमीरल मोमिनीन (अ.स) क़ब्रे जनाबे सैय्यदा के पास बैठ गये और बे इन्तेहा रोए। ‘‘ पस अब्बासे उमूऐ आं हज़रत (स.अ.व.व) दस्तश गिरफ़त व अज़ सरे क़ब्र उरा बे बुर्द

यह देख कर चचा अब्बास बिन अब्दुल मुत्लिब ने उनका हाथ पकड़ कर उन्हें क़ब्र के पास से उठाया और घर ले गये।

(मुन्तहल आमाल जिल्द 1 पृष्ठ 140 प्रकाशित नजफ़े अशरफ़)

(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

आपके रोज़े का इन्हेदाम

आलिमों का बयान है कि एक अरसा गुज़रने के बाद आपकी क़ब्रे मुबारक पर रौज़े की तामीर हुई। मैं कहता हूं कि अब से लगभग 43 साल पहले इब्ने सउद व अमीरे सउदी अरबिया ने आपके रौज़े मुबारक को जज़बाए वहाबीयत से मुतासिर होकर तोड़ डाला। शैख़ अल ऐराक़ीन मोहम्मद रज़ा का बयान है कि इब्ने सउद ने मक्का में 9 और मदीना में 19 मुक़द्दस मुक़ामात को मुनहादिम तोड़ कराया था कि जिनमें ख़ाना ए सैय्यदा और बैतुल हुज़्न भी थे। मुलाहेज़ा हो।

(अनवारूल हुसैनिया जिल्द 1 पृष्ठ 54 प्रकाशित बम्बई 1346 हिजरी)

[[अलहम्दो लिल्लाह ये किताबः उम्मुल आइम्मा जनाबे फातेमा ज़हरा जो कि किताबः चौदह सितारे एक हिस्सा है , पूरी टाईप हो गई खुदा वंदे आलम से दुआगौ हुं कि हमारे इस अमल को कुबुल फरमाऐ और इमाम हुसैन फाउनडेशन को तरक्की इनायत फरमाए कि जिन्होने इस किताब को अपनी साइट (अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क) के लिऐ टाइप कराया।

सैय्यद मौहम्मद उवैस नक़वी 19-02-2016 ]]

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Mesam Naqvi

नाम व अलक़ाब (उपाधियाँ)

आपका नाम मुहम्मद इब्ने अब्दुल्लाह व आपके अलक़ाब मुस्तफ़ा, अमीन, सादिक़,इत्यादि हैं।

 

माता पिता

हज़रत पैगम्बर के पिता का नाम अब्दुल्लाह था जो ;हज़रत अबदुल मुत्तलिब के पुत्र थे। तथा पैगम्बर (स) की माता का नाम आमिना था, जो हज़रत वहब की पुत्री थीं।


जन्म तिथि व जन्म स्थान     

हज़रत पैगम्बर का जन्म मक्का नामक शहर मे सन्(1) आमुल फील मे रबी उल अव्वल मास की 17वी तारीख को हुआ था।

 

बीवीयों के नाम     

ख़दीजा बीनते खुवैलीद, ज़ैनब बिन्ते खोज़ैमा, सौदा, आयशा, हफ़सा, उम्मे सल्मा, ज़ैनब बीनते जहश, ज़वेरिआ बिन्ते हारिस, उम्मे हबीबा, सफ़िया, मैमूना

 

बेटों के नाम     क़ासिम (तैय्यब), अब्दुल्लाह (ताहिर), इब्राहीम

 

बेटी का नाम     फ़ातिमा

 

घरेलू नाम      अबुल क़ासिम

लक़ब (उपाधि)     रसूल अल्लाह, ख़ातिम'उन नबीयीन

उम्र       63 साल

नुबुव्वत        23 साल

शहादत    सोमवार, 28 सफ़र 11 हिजरी को मदीना में

दफ़न      मदीना

 

पालन पोषण

 

हज़रत पैगम्बर के पिता का स्वर्गवास पैगम्बर के जन्म से पूर्व ही हो गया था। और जब आप 6 वर्ष के हुए तो आपकी माता का भी स्वर्गवास हो गया। अतः8 वर्ष की आयु तक आप का पलन पोषण आपके दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब ने किया।दादा के स्वर्गवास के बाद आप अपने प्रियः चचा हज़रत अबुतालिब के साथ रहने लगे। हज़रत आबुतालिब के घर मे आप का व्यवहार सबकी दृष्टि का केन्द्र रहा। आपने शीघ्र ही सबके हृदयों मे अपना स्थान बना लिया।

हज़रत पैगम्बर बचपन से ही दूसरे बच्चों से भिन्न थे। उनकी आयु के अन्य बच्चे गदें रहते, उनकी आँखों मे गन्दगी भरी रहती तथा बाल उलझे रहते थे। परन्तु पैगम्बर बचपन मे ही व्यस्कों की भाँति अपने को स्वच्छ रखते थे। वह खाने पीने मे भी दूसरे बच्चों की हिर्स नही करते थे। वह किसी से कोई वस्तु छीन कर नही खाते थे। तथा सदैव कम खाते थे कभी कभी ऐसा होता कि सोकर उठने के बाद आबे ज़मज़म(मक्के मे एक पवित्र कुआ) पर जाते तथा कुछ घूंट पानी पीलेते व जब उनसे नाश्ते के लिए कहा जाता तो कहते कि मुझे भूख नही है । उन्होने कभी भी यह नही कहा कि मैं भूखा हूं। वह सभी अवस्थाओं मे अपनी आयु से अधिक गंभीरता का परिचय देते थे। उनके चचा हज़रत अबुतालिब सदैव उनको अपनी शय्या के पास सुलाते थे। वह कहते हैं कि मैने कभी भी पैगम्बर को झूट बोलते, अनुचित कार्य करते व व्यर्थ हंसते हुए नही देखा। वह बच्चों के खेलों की ओर भी आकर्षित नही थे। सदैव तंन्हा रहना पसंद करते तथा मेहमान से बहुत प्रसन्न होते थे।

 

विवाह

 

जब आपकी आयु 25 वर्ष की हुई तो अरब की एक धनी व्यापारी महिला जिनका नाम खदीजा था उन्होने पैगम्बर के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा। पैगम्बर ने इसको स्वीकार किया तथा कहा कि इस सम्बन्ध मे मेरे चचा से बात की जाये। जब हज़रत अबुतालिब के सम्मुख यह प्रस्ताव रखा गया तो उन्होने अपनी स्वीकृति दे दी। तथा इस प्रकार पैगम्बर(स) का विवाह हज़रत खदीजा पुत्री हज़रत ख़ोलद के साथ हुआ। निकाह स्वयं हज़रत अबुतालिब ने पढ़ा। हज़रत खदीजा वह महान महिला हैं जिन्होने अपनी समस्त सम्पत्ति इस्लाम प्रचार हेतू पैगम्बर को सौंप दी थी।

 

पैगम्बरी की घोषणा

हज़रत मुहम्मद (स) जब चालीस वर्ष के हुए तो उन्होने अपने पैगम्बर होने की घोषणा की। तथा जब कुऑन की यह आयत नाज़िल हुई कि,,वनज़िर अशीरतःकल अक़राबीन(अर्थात ऐ पैगम्बर अपने निकटतम परिजनो को डराओ) तो पैगम्बर ने एक रात्री भोज का प्रबन्ध किया। तथा अपने निकटतम परिजनो को भोज पर बुलाया.। भोजन के बाद कहा कि मै तुम्हारी ओर पैगम्बर बनाकर भेजा गया हूँ ताकि तुम लोगो को बुराईयो से निकाल कर अच्छाइयों की ओर अग्रसरित करू। इस अवसर पर पैगम्बर (स) ने अपने परिजनो से मूर्ति पूजा को त्यागने तथा एकीश्वरवादी बनने की अपील की। और इस महान् कार्य मे साहयता का निवेदन भी किया परन्तु हज़रत अली (अ) के अलावा किसी ने भी साहयता का वचन नही दिया। इसी समय से मक्के के सरदार आपके विरोधी हो गये तथा आपको यातनाऐं देने लगे।
आर्थिक प्रतिबन्ध : मक्के के मूर्ति पूजकों का विरोध बढ़ता गया । परन्तु पैगम्बर अपने मार्ग से नही हटे तथा मूर्ति पूजा का खंण्डन करते रहे। मूर्ति पूजको ने पैगम्बर तथा आपके सहयोगियो पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये। इस समय आप का साथ केवल आप के चचा अबुतालिब ने दिया। वह आपको लेकर एक पहाड़ी पर चले गये । तथा कई वर्षो तक वहीं पर रहकर पैगम्बर की सुरक्षा करते रहे। पैगम्बर को सदैव अपने पास रखते थे। रात्रि मे बार बार आपके स्थान को बदलते रहते थे।

 

हिजरत

आर्थिक प्रतिबन्धो से छुटने के बाद पैगम्बर ने फिर से इस्लाम प्रचार आरम्भ कर दिया। इस बार मूर्ति पूजकों का विरोध अधिक बढ़ गया ।तथा वह पैगम्बर की हत्या का षड़यंत्र रचने लगे। इसी बीच पैगम्बर के दो बड़े सहयोगियों हज़रत अबुतालिब तथा हज़रत खदीजा का स्वर्गवास हो गया। यह पैगम्बर के लिए अत्यन्त दुखः दे हुआ। जब पैगम्बर मक्के मे अकेले रह गये तो अल्लाह की ओर से संदेश मिला कि मक्का छोड़ कर मदीने चले जाओ। पैगम्बर ने इस आदेश का पालन किया और रात्रि के समय मक्के से मदीने की ओर प्रस्थान किया। मक्के से मदीने की यह यात्रा हिजरत कहलाती है। तथा इसी यात्रा से हिजरी सन् आरम्भ हुआ। पैगम्बरी की घोषणा के बाद पैगम्बर 13 वर्षों तक मक्के मे रहे।

मदीने मे पैगम्बर को नये सहयोगी प्राप्त हुए तथा उनकी साहयता से पैगम्बर ने इस्लाम प्रचार को अधिक तीव्र कर दिया। दूसरी ओर मक्के के मूर्ति पूजको की चिंता बढ़ती गयी तथा वह पैगम्बर से मूर्तियो के अपमान का बदला लेने के लिये युद्ध की तैयारियां करने लगे। इस प्रकार पैगम्बर को मक्का वासियों से कई युद्ध करने पड़े जिनमे मूर्ति पूजकों को पराजय का सामना करना पड़ा। अन्त मे पैगम्बर ने मक्के जाकर हज करना चाहा परन्तु मक्कावासी इस से सहमत नही हुए। तथा पैगमबर ने शक्ति के होते हुए भी युद्ध नही किया तथा सन्धि कर के मानव मित्रता का परिचय दिया। तथा सन्धि की शर्तानुसार हज को अगले वर्ष तक के लिए स्थगित कर दिया। सन् 10 हिजरी मे पैगम्बर ने 125000 मुस्लमानो के साथ हज किया। तथा मुस्लमानो को हज करने का प्रशिक्षण दिया।

 

उत्तराधिकारी की घोषणा :

जब पैगम्बर हज करके मक्के से मदीने की ओर लौट रहे थे, तो ग़दीर नामक स्थान पर आपको अल्लाह की ओर से आदेश प्राप्त हुआ, कि हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करो। पैगम्बर ने पूरे क़ाफिले को रुकने का आदेश दिया। तथा एक व्यापक भाषण देते हुए कहा कि मैं जल्दी ही तुम लोगों के मध्य से जाने वाला हूँ। अतः मैं अल्लाह के आदेश से हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करता हूँ। पैगम्बर का प्रसिद्ध कथन कि जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं। इसी अवसर पर कहा गया था।

 

शहादत(स्वर्गवास)

सन् 11 हिजरी मे सफर मास की 28 वी तारीख को तीन दिन बीमार रहने के बाद आपकी शहादत हो गयी। हज़रत अली (अ) ने आपको ग़ुस्लो कफ़न देकर दफ़्न कर दिया। इस महान् पैगम्बर के जनाज़े (पार्थिव शरीर) पर बहुत कम लोगों ने नमाज़ पढ़ी। इस का कारण यह था कि मदीने के अधिकाँश मुसलमान पैगम्बर के स्वर्गवास की खबर सुनकर सत्ता पाने के लिए षड़यण्त्र रचने लगे थे। तथा पैगम्बर के अन्तिम संसकार मे सम्मिलित न होकर सकीफ़ा नामक स्थान पर एकत्रित थे।

 

हज़रत पैगम्बर(स. की चारित्रिक विशेषताऐं

हज़रत पैगम्बर को अल्लाह ने समस्त मानवता के लिए आदर्श बना कर भेजा था। इस सम्बन्ध मे कुऑन इस प्रकार वर्णन करता-लक़द काना लकुम फ़ी रसूलिल्लाहि उसवःतुन हसनः अर्थात पैगम्बर का चरित्र आप लोगो के लिए आदर्श है। अतः आप के व्यक्तित्व मे मानवता के सभी गुण विद्यमान थे। आप के जीवन की मुख्य विशेषताऐं निम्ण लिखित हैं।

 

सत्यता

सत्यता पैगम्बर के जीवन की विशेष शोभा थी। पैगम्बर (स) ने अपने पूरे जीवन मे कभी भी झूट नही बोला। पैगम्बरी की घोषणा से पूर्व ही पूरा मक्का आप की सत्यता से प्रभावित था। आप ने कभी व्यापार मे भी झूट नही बोला। वह लोग जो आप को पैगम्बर नही मानते थे वह भी आपकी सत्यता के गुण गाते थे। इसी कारण लोग आपको सादिक़(अर्थात सच्चा) कहकर पुकारते थे।

 

अमानतदारी(धरोहरिता)

पैगम्बर के जीवन मे अमानतदारी इस प्रकार विद्यमान थी कि समस्त मक्कावासी अपनी अमानते आप के पास रखाते थे। उन्होने कभी भी किसी के साथ विश्वासघात नही किया। जब भी कोई अपनी अमानत मांगता आप तुरंत वापिस कर देते थे। जो व्यक्ति आपके विरोधि थे वह भी अपनी अमानते आपके पास रखाते थे। क्योंकि आप के पास एक बड़ी मात्रा मे अमानते रखी रहती थीं, इस कारण मक्के मे आप का एक नाम अमीन पड़ गया था। अमीन (धरोहर)

 

सदाचारिता

 पैगम्बर के सदाचार की अल्लाह ने इस प्रकार प्रसंशा की है इन्नका लअला ख़ुलक़िन अज़ीम अर्थात पैगम्बर आप अति श्रेष्ठ सदाचारी हैं। एक दूसरे स्थान पर पैगम्बर की सदाचारिता को इस रूप मे प्रकट किया कि व लव कानत फ़ज़्ज़न ग़लीज़ल क़लबे ला नग़ज़्ज़ु मिन हवालीका अर्थात ऐ पैगम्बर अगर आप क्रोधी स्वभव वाले खिन्न व्यक्ति होते, तो मनुष्य आपके पास से भागते। इस प्रकार इस्लाम के विकास मे एक मूलभूत तत्व हज़रत पैगम्बर का सद्व्यवहार रहा है।

 

समय का सदुपयोग

हज़रत पैगम्बर की पूरी आयु मे कहीं भी यह दृष्टिगोचर नही होता कि उन्होने अपने समय को व्यर्थ मे व्यतीत किया हो । वह समय का बहुत अधिक ध्यान रखते थे। तथा सदैव अल्लाह से दुआ करते थे, कि ऐ अल्लाह बेकारी, आलस्य व निकृष्टता से बचने के लिए मैं तेरी शरण चाहता हूँ। वह सदैव मसलमानो को कार्य करने के लिए प्रेरित करते थे।

 

अत्याचार विरोधी

हज़रत पैगम्बर अत्याचार के घोर विरोधि थे। उनका मानना था कि अत्याचार के विरूद्ध लड़ना संसार के समस्त प्राणियों का कर्तव्य है। मनुष्य को अत्याचार के सम्मुख केवल तमाशाई बनकर नही खड़ा होना चाहिए। वह कहते थे कि अपने भाई की सहायता करो चाहे वह अत्याचारी ही कयों न हो। उनके साथियों ने प्रश्न किया कि अत्याचारी की साहयता किस प्रकार करें? आपने उत्तर दिया कि उसकी साहयता इस प्रकार करो कि उसको अत्याचार करने से रोक दो।

 

बुराई के बदले भलाई की भावना

आदरनीय पैगम्बर की एक विशेषता बुराई का बदला भलाई से देना थी। जो उन को यातनाऐं देते थे, वह उन के साथ उनके जैसा व्यवहार नही करते थे। उनकी बुराई के बदले मे इस प्रकार प्रेम पूर्वक व्यवहार करते थे, कि वह लज्जित हो जाते थे।

यहाँ पर उदाहरण स्वरूप केवल एक घटना का उल्लेख करते हैं। एक यहूदी जो पैगम्बर का विरोधी था। वह प्रतिदिन अपने घर की छत पर बैठ जाता, व जब पैगम्बर उस गली से जाते तो उन के सर पर राख डाल देता। परन्तु पैगम्बर इससे क्रोधित नही होते थे। तथा एक स्थान पर खड़े होकर अपने सर व कपड़ों को साफ कर के आगे बढ़ जाते थे। अगले दिन यह जानते हुए भी कि आज फिर ऐसा ही होगा। वह अपना मार्ग नही बदलते थे। एक दिन जब वह उस गली से जा रहे थे, तो इनके ऊपर राख नही फेंकी गयी। पैगम्बर रुक गये तथा प्रश्न किया कि आज वह राख डालने वाला कहाँ हैं? लोगों ने बताया कि आज वह बीमार है। पैगम्बर ने कहा कि मैं उस को देखने जाऊगां। जब पैगम्बर उस यहूदी के सम्मुख गये, तथा उस से प्रेम पूर्वक बातें की तो उस व्यक्ति को ऐसा लगा, कि जैसे यह कई वर्षों से मेरे मित्र हैं। आप के इस व्यवहार से प्रभावित होकर उसने ऐसा अनुभव किया, कि उस की आत्मा से कायर्ता दूर हो गयी तथा उस का हृदय पवित्र हो गया। उनके साधारन जीवन तथा नम्र स्वभव ने उनके व्यक्तितव मे कमी नही आने दी, उनके लिए प्रत्येक व्यक्ति के हृदय मे स्थान था।

 

दया की प्रबल भावना

आदरनीय पैगम्बर मे दया की प्रबल भावना विद्यमान थी। वह अपने से छोटों के साथ प्रेमपूर्वक तथा अपने से बड़ो के साथ आदर पूर्वक व्यवहार करते थे ।वह अनाथों व भिखारियों का विशेष ध्यान रखते थे उनको को प्रसन्नता प्रदान करते व अपने यहाँ शरण देते थे। वह पशुओं पर भी दया करते थे तथा उन को यातना देने से मना करते थे।

जब वह किसी सेना को युद्ध के लिए भेजते तो रात्री मे आक्रमण करने से मना करते, तथा जनता से प्रेमपूर्वक व्यवहार करने का निर्देश देते थे । वह शत्रु के साथ सन्धि करने को अधिक महत्व देते थे। तथा इस बात को पसंद नही करते थे कि लोगों की हत्याऐं की जाये। वह सेना को निर्देश देते थे कि बूढ़े व्यक्तियों, बच्चों तथा स्त्रीयों की हत्या न की जाये तथा मृत्कों के शरीर को खराब न किया जाये

 

स्वच्छता

पैगम्बर स्वच्छता मे अत्याधिक रूचि रखते थे। उन के शरीर व वस्त्रों की स्वच्छता देखने योग्य होती थी। वह वज़ू के अतिरिक्त दिन मे कई बार अपना हाथ मुँह धोते थे।वह अधिकाँश दिनो मे स्नान करते थे। उनके कथनानुसार वज़ु व स्नान इबादत है। वह अपने सर के बालों को बेरी के पत्तों से धोते और उनमे कंघा करते और अपने शरीर को मुश्क व अंबर नामक पदार्थों से सुगन्धित करते थे। वह दिन मे कई बार तथा सोने से पहले व सोने के बाद अपने दाँतों को साफ़ करते थे। भोजन से पहले व बाद मे अपने मुँह व हाथों को धोते थे तथा दुर्गन्ध देने वाली सब्ज़ियों को नही खाते थे।

हाथी दाँत का बना कंघा सुरमेदानी कैंची आईना व मिस्वाक उनके यात्रा के सामान मे सम्मिलित रहते थे। उनका घर बिना साज सज्जा के स्वच्छ रहता था। उन्होने चेताया कि कूड़े कचरे को दिन मे उठा कर बाहर फेंक देना चाहिए। वह रात आने तक घर मे नही पड़ा रहना चाहिए। उनके शरीर की पवित्रता उनकी आत्मा की पवित्रता से सम्बन्धित रहती थी। वह अपने अनुयाईयों को भी चेताते रहते थे कि अपने शरीरो वस्त्रों व घरों को स्वच्छ रखा करो। तथा जुमे (शुक्रवार) को विशेष रूप से स्नान किया करो। दुर्गन्ध को दूर करने हेतू शरीर व वस्त्रो को सुगन्धित करके जुमे की नमाज़ मे सम्मिलित हुआ करो ।

 

दृढनिश्चयता

पैगम्बर मे दृढनिश्चयता चरम सीमा तक पाई जाती थी।वह निराशावादी न होकर आशावादी थे। वह पराजय से भी निराश नही होते थे। यही कारण है कि ओहद नामक युद्ध की पराजय ने उनको थोड़ा भी प्रभावित नही किया। तथा बनी क़ुरैज़ा(अरब के एक कबीले का नाम) द्वारा अनुबन्ध तोड़कर विपक्ष मे सम्मिलित हो जाने से भी उन पर कोई प्रभाव नही पड़ा।बल्कि वह शीघ्रता पूर्वक हमराउल असद नामक युद्ध के लिए तैयार होकर मैदान मे आगये।

 

सावधानी व सतर्कता

पैगम्बर(स.) सदैव सावधानी व सतर्कता बरतते थे। वह शत्रु की सेना का अंकन इस प्रकार करते कि उससे युद्ध करने के लिए कितने व किस प्रकार के हथियारों की आवश्यक्ता है। वह नमाज़ के समय मे भी सतर्क व सवधान रहते थे।

 

मानवता के प्रति प्रेम

पैगम्बर(स.) के हृदय मे समस्त मानवजाति के प्रति प्रेम था। वह रंग या नस्ल के कारण किसी से भेद भाव नही करते थे । उनकी दृष्टि मे सभी मनुष्य समान थे। वह कहते थे कि सभी मनुष्य अल्लाह से जीविका प्राप्त करते हैं। उन्होने जो युद्धों किये उनके पीछे भी महान लक्ष्य विद्यमान थे।वह सदैवे मानवता के कल्याण के लिए ही युद्ध करते थे। पैगम्बर सदैव अपने अनुयाईयों को मानव प्रेम का उपदेश देते थे।

 

पैगम्बर ने मनुष्यों को निम्ण लिखित संदेश दिया

1- मानवता की सफलता का संदेश

2- युद्ध से पूर्व शान्ति वार्ता का संदेश

3- बदले से पहले क्षमा का संदेश

4- दण्ड से पूर्व विन्रमता या क्षमा का संदेश

5-उच्चयतम कोटी की नेतृत्व क्षमता।

आदरनीय पैगम्बर को अल्लाह ने नेतृत्व की उच्चय क्षमता प्रदान की थी। उनकी इस क्षमता को अरब जाती की स्थिति को देखकर आंका जा सकता है। उन्होने उस अरब जाती का नेतृत्व किया, जो अपनी मूर्खता व अज्ञानता के कारण किसी को भी अपने से बड़ा नही समझते थे। जो सदैव रक्त पात करते रहते थे। सदाचार उनको छूकर भी नही निकला था। ऐसे लोगों को अपने नेतृत्व मे लेना बहुत कठिन कार्य था। परन्तु इन सब अवगुणो के होते हुए भी पैगम्बर ने अपने कौशल से उनको इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि सब आपके समर्थक बन गये। तथा अपने प्राणो की आहुती देने के लिए धर्म युद्ध के लिए निकल पड़े।

आदरनीय पैगम्बर युद्ध के लिए एक से अधिक सेना नायकों का चयन करते तथा गंभीरता पूर्वक उनके मध्य कार्यों व शक्तियों का विभाजन कर नियम बनाते थे।वह राजनीतिक तथा शासकीय सिधान्तों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करते थे।उन्होने विभिन्न विभागों की नीव डाली। वह सेनापतियों का चुनाव सुचरित्र को आधार बनाकर करते थे

 

क्षमा दान की प्रबल भावना

आदरनीय पैगम्बर(स.) मे क्षमादान की भावना बहुत प्रबल थी।बदले की भावना उनके अन्दर बिल्कुल भी विद्यमान नही थी। उन्होने अपनी क्षमा भावना का पूर्ण परिचय मक्के की विजय के समय कराया। जब उनके शत्रुओं को बंदी बनाकर उनके सम्मुख लाया गया तो उन्होने यातनाऐं देनेवाले सभी शत्रुओं को क्षमा कर दिया। अगर पैगम्बर(स.) चाहते तो उनसे बदला ले सकते थे परन्तु उन्होने शक्ति होते हुए भी ऐसा नही किया। अपितु सबको क्षमा करके कहा कि जाओ तुम सब स्वतन्त्र हो।

उनकी शक्ति शाली आत्मा सदैव क्षमादान को वरीयता देती थी। ओहद नामक युद्ध मे जो पाश्विक व्यवहार उनके चचा श्री हमज़ा पुत्र श्री अब्दुल मुत्तलिब के साथ किया गया(अबु सुफियान की पत्नि व मुआविया की माँ हिन्दा ने उनके मृत्य शरीर से उनका कलेजा निकाल कर खाने की चेष्टा की) उस को देख कर वह बहुत दुखीः हुए। परन्तु पैगम्बर ने उसके परिवार के मृत्य लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नही किया। यहाँ तक कि जब वह स्त्री बंदी बनाकर लाई गई, तो आपने उससे बदला न लेकर उसे क्षमा कर दिया। यही नही अपितु पैगम्बर ने अबुक़ुतादा नामक उस व्यक्ति को भी चुप रहने का आदेश दिया जो उसको अपशब्द कह रहा था।

खैबर नामक युद्ध मे जब यहूदियों ने मुसलमानो के सम्मुख हथियार डाल दिये व युद्ध समाप्त हो गया तो यहूदियों ने भोजन मे विष मिलाकर पैगम्बर के लिए भेजा । पैगम्बर को उनके इस षड़यन्त्र का ज्ञान हो गया। परन्तु उन्होने इसके उपरान्त भी यहूदियों को कोई दण्ड नही दिया तथा क्षमा करके स्वतन्त्र छोड़ दिया।

तबूक नामक युद्ध से लौटते समय मुनाफिकों के एक संगठन ने पैगम्बर की हत्या का षड़यन्त्र रचा। जब पैगम्बर एक पहाड़ी दर्रे को पार कर रहे थे तो मुनाफिक़ीन ने योजनानुसार आप के ऊँट को भड़का दिया। ताकि पैगम्बर ऊँट से गिर कर मर जाऐं, परन्तु वह विफल रहे। और पैगम्बर ने सब को पहचान लिया परन्तु उनसे बदला नही लिय । तथा अपने दोस्तों के आग्रह पर भी उन के नाम नही बताये।

 

उच्चतम सामाजिक जीवन शैली

पैगम्बर(स.) का सामाजिक जीवन बहुत श्रेष्ठ था वह लोगों के मध्य सदैव प्रसन्नचित्त रहते थे। किसी की ओर घूर कर नही देखते थे। अधिकाँश उन की दृष्टि पृथ्वी पर रहती थी। दूसरों के सामने अपने पैरो कों मोड़ कर बैठते थे। किसी के भी सम्मुख वह पैर नही फैलाते थे। जब वह किसी सभा मे जाते थे तो अपने बैठने के लिए निकटतम स्थान को चुनते थे । वह इस बात को पसंद नही करते थे, कि सभा मे से कोई व्यक्ति उनके आदर हेतू खड़ा हो, या उनके लिए किसी विशेष स्थान को खाली किया जाये। वह बच्चों तथा दासों को भी स्वंय सलाम करते थे। वह किसी के कथन को बीच मे नही काटते थे। वह प्रत्येक व्यक्ति से इस प्रकार बात करते कि वह यह समझता कि मैं पैगम्बर के सबसे अधिक निकट हूँ। वह अधिक नही बोलते थे तथा धीरे धीरे व रुक रुक कर बाते करते थे। वह कभी भी किसी को अपशब्द नही कहते थे। वह बहुत अधिक लज्जावान व स्वाभीमानी थे। जब वह किसी के व्यवहार से दुखित होते तो दुखः के चिन्ह उनके चेहरे से प्रकट होते थे, परन्तु वह अपने मुख से गिला नही करते थे। वह सदैव रोगियों को देखने के लिए जाते तथा मरने वालों के जनाज़ों (अर्थी) मे सम्मिलित होते थे। वह किसी को इस बात की अनुमति नही देते थे कि उनके सम्मुख किसी को अपशब्द कहें जायें।

 

कानून व न्याय प्रियता

कानून का पालन व न्याय प्रियता पैगम्बर(स.) की मुख्य विशेषताएं थीं।हज़रत पैगम्बर अपने साथ दुरव्यवहार करने वाले को क्षमा कर देते थे, परन्तु कानून का उलंघन करने वालों कों क्षमा नही करते थे। तथा कानूनानुसार उसको दणडित किया जाता था। वह कहते थे कि कानून व न्याय सामाजिक शांति के रक्षक हैं। अतः ऐसा नही हो सकता कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए कानून को बलि चढ़ा कर पूरे समाज को दुषित कर दिया जाये। वह कहते थे कि मैं उस अल्लाह की सौगन्ध खाकर कहता हूँ जिसके वश मे मेरी जान है कि न्याय के क्षेत्र मे मैं किसी के साथ भी पक्षपात नही करूगां। अगर मेरा निकटतम सम्बन्धि भी कोई अपराध करेगा तो उसे क्षमा नही करूगां और न ही उसको बचाने के लिए कानून को बली बनाऊँगा।

एक दिन पैगम्बर ने मस्जिद मे अपने प्रवचन मे कहा कि अल्लाह ने कुऑन मे कहा है कि प्रलय मे कोई भी अत्याचारी अपने अत्याचार के दण्ड से नही बच सकेगा। अतः अगर आप लोगो मे से किसी को मुझ से कोई यातना पहुंची हो या किसी का कोई हक़ मेरे ऊपर बाक़ी हो तो वह मुझ से लेले। उस सभा मे से सबादा पुत्र क़ैस नामक एक व्यक्ति खड़ा हुआ। तथा कहा कि ऐ पैगम्बर जब आप तायिफ़(एक स्थान का नाम) से लौट रहे थे तो आप के हाथ मे एक असा (लकड़ी का ड़डां) था। आप उसे घुमा रहे थे वह मेरे पेट मे लगा जिससे मुझे पीड़ा हुई। आप ने कहा कि मैं सौगन्ध के साथ कहता हूँ कि मैंने ऐसा जान बूझ कर नही किया परन्तु तू फिर भी उसका बदला ले सकता है। यह कह कर आपने अपना असा मंगाया तथा उस असा को सबादा के हाथ मे देकर कहा कि इससे तेरे शरीर के जिस भाग को पीड़ा पहुँची हो, तू इस से मेरे शरीर के उसी भाग को पीड़ा पहुँचा। उस ने कहा कि ऐ पैगमबर मैने आपको क्षमा किया । आपने कहा कि अल्लाह तुझे क्षमा करे। यह थी इस महान् पैगम्बर की न्याय प्रियता तथा सामाजिक क़ानून की रक्षा।

 

जनता के विचारों का आदर

जिन विषयों के लिए कुऑन मे आदेश मौजूद होता आदरनीय पैगम्बर(स.) उन विषयों मे न स्वयं हस्तक्षेप करते और न ही किसी दूसरे को हस्तक्षेप करने देते थे। वह स्वयं भी उन आदेशों का पालन करते तथा दूसरों को भी पालन करने पर बाध्य करते थे। क्योकि कुऑन के आदेशों की अवहेलना कुफ्र (अधर्मिता) है। इस सम्बन्ध मे कुऑन स्वयं कहता है कि व मन लम यहकुम बिमा अनज़ालल्लाहु फ़ा उलाइका हुमुल काफ़िरून। अर्थात वह मनुषय जो अल्लाह के भेजे हुए क़ानून के अनुसार कार्य नही करते वह समस्त काफ़िर (अधर्मी) हैं। जिन विषयों के लिए कुऑन मे आदेश नही होता था उनमे हस्तक्षेप नही करते थे। उन विषयों मे जनता स्वतन्त्र थी तथा सबको अपने विचर प्रकट करने की अनुमति थी।

वह दूसरों के परामर्श का आदर करते तथा परामर्श पर विचार करते थे। बद्र नामक युद्ध के अवसर पर आपने तीन बार अपने साथियों से विचार विमर्श किया । सर्वप्रथम इस बात पर परामर्श हुआ कि कुरैश से लड़ा जाये या इनको इनके हाल पर छोड़ कर मदीने चला जाये। सब ने जंग करने को वरीयता दी । दूसरी बार छावनी के स्थान के बारे मे परामर्श हुआ। तथा इस बार हबाब पुत्र मुनीज़ा की राय को वरीयता दी गयी। तीसरी बार युद्ध बन्धकों के बरे मे मशवरा लिया गया। कुछ लोगों ने कहा कि इन की हत्या करदी जाये, तथा कुछ लोगों ने कहा कि इनको फिदया (धन) लेकर छोड़ दिया जाये। पैगम्बर ने दूसरी राय का अनुमोदन किया। इसी प्रकार ओहद नामक युद्ध मे भी पैगम्बर ने अपने साथियों से इस बात पर विचार विमर्श किया, कि शहर मे रहकर सुरक्षा प्रबन्ध किये जायें या शहर से बाहर निकल कर पड़ाव डाला जाये व शत्रु को आगे बढने से रोका जाये। विचार के बाद दूसरी राय पारित हुई । इसी प्रकार अहज़ाब नामक युद्ध के अवसर पर भी यह परामर्श हुई कि शहर मे रहकर लड़ा जाये या बाहर निकल कर जंग की जाये। काफी विचार विमर्श के बाद यह पारित हुआ कि शहर से बाहर निकल कर युद्ध किया जाये। अपने पीछे की ओर पहाड़ी को रखा जाये तथा सामने की ओर खाई खोद ली जाये, जो शत्रु को आगे बढ़ने से रोक सके ।

जैसा कि हम सब जानते हैं कि सब मुसलमान आदरनीय पैगम्बर को त्रुटि भूल चूक तथा पाप से सुरक्षित मानते थे। तथा उनके कार्यों पर आपत्ति व्यक्त करने को अच्छा नही समझते थे। परन्तु अगर कोई पैगम्बर के किसी कार्य की आलोचना करता तो वह आलोचक को शांति पूर्ण ढंग से समझाते तथा उसको संतोष जनक उत्तर देकर उसके भम्र को दूर करते थे। उनका दृष्टिकोण यह था कि सृष्टि के रचियता ने चिंतन आलोचना व दो वस्तुओं के मध्य एक को वरीयता दने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को प्रदान की है। यह केवल सामाजिक आधार रखने वाले शक्ति शाली व्यक्तियों से ही सम्बन्धित नही है । अतः मनुष्यों से चिंतन व आलोचना के इस अधिकार को नही छीनना चाहिये।

 

शासकीय सद्व्यवहार

वह सदैव प्रजा के कल्याण के बरे मे सोचते थे। पैगम्बर ने स्वंय एक स्थान पर कहा कि -मै जनता कि भलाई का जनता से अधिक ध्यान रखता हूँ। तुम लोगों मे से जो भी स्वर्गवासी होगा तथा सम्पत्ति छोड़ कर जायगा वह सम्पत्ति उसके परिवार की होगी। परन्तु अगर कोई ऋणी होगा या उसका परिवार दरिद्र होगा तो उसके ऋण को चुका ने तथा उसके परिवार के पालन पोषण का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर होगा।

पैगम्बर(स.) ने न्याय व दया पर आधारित अपनी इस शासन प्रणाली द्वारा संसार के समस्त शासकों को यह शिक्षा दी कि समाज मे शासक की स्थिति एक दयावान व बुद्धिमान पिता की सी है। शासक को चाहिये कि हर स्थान पर जनता के कल्याण का ध्यान रखे तथा अपनी मन मानी न करे।

पैगम्बर वह महान् व्यक्ति हैं जिन्होने बहुत कम समय मे मानव के दिलों मे अपने सद्व्यवहार की अमिट छाप छोड़ी। उन्होने अपने सद्व्यवहार, चरित्र व प्रशिक्षण के द्वारा अरब हत्यारों को शान्ति प्रियः, झूट बोलने वालों को सत्यवादी, निर्दयी लोगों को दयावान, नास्तिकों को आस्तिक, मूर्ति पूजकों को एकश्वरवादी, असभ्यों कों सभ्य, मूर्खों को बुद्धि मान, अज्ञानीयों को ज्ञानी, तथा क्रूर स्वभव वाले व्यक्तियों को विन्रम बनाया।

 

अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद

۲ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 23 February 16 ، 18:17
Mesam Naqvi

आज हम इस विषय पर चर्चा करेंगे कि जब खि़लाफ़त इमाम अ़ली का हक़ था तो क्यु आपने पैग़म्बर के स्वर्गवास के बाद अपने हक़ को अबूबकर, उस्मान या उमर से लेने की कोशिश नहीं की?

इस सवाल के जवाब में हम यहां पर यह कहना सही समझते हैं कि जहां तक बात है वापस लेने की तो इमाम अ़ली अ.स.  तीनों के ज़माने से हमेशा ज़बानी तौर पर प्रदर्शन करते रहे हैं लेकिन आप ने इन लोगों से जंग क्यों नहीं लड़ी और वह जवाबात निम्नलिखित हैं।

1.            अगर इमाम ताक़त और हथियार बंद आन्दोलन के द्वारा हुकूमत और खि़लाफ़त को अपने हाथ में लेना चाहते तो आपको अपने बहुत सारे चाहने वालों को अपने हाथ से खोना पड़ता कि जो आप की रहबरी और खि़लाफ़त को दिल जान से मानते थे, इसके अलावा बहुत सारे सहाबी जो कि किन्हीं कारणों से इमाम अ़ली की खि़लाफ़त और इमामत पर राज़ी नहीं थे परन्तु दूसरी बातों में आपसे मतभेद रखते थे इन लोगों के मरने से कि जो मूर्ती पूजा, शिर्क, यहूदियत या ईसाईयत के सामने इस्लाम की ताक़त थे इनके मरने से इस्लाम की ताक़त कमज़ोरी में बदल जाती।

2.            बहुत से गिरोह और क़बीले के जो पैग़म्बर की आख़री उम्र में मुसलमान हुये थे उन्होंने अभी इस्लाम की ज़रूरी चीज़ों को भी नहीं सीखा था और इस्लाम अभी पूरी तरह से उनके दिलों में नहीं उतरा था जैसे ही उन्हे रसूले अकरम (स.अ.व.व) के देहान्त की ख़बर उन लोगों के बीच फैली , उनमें से कुछ गिरोह अपने पुराने धर्मों पर पलटने लगें और मूर्ती पूजा को अपनाने लगे और मदीने में इस्लामी हुकूमत का विरोध करने लगे थे अगर इमाम अ़ली ऐसे मौक़े पर अपना आंदोलन शुरू कर देते तो मुम्किन था कि मुसलमानों के इस आपसी झगड़े का फ़ायदा दुश्मन उठा लेता और वही के वही इस्लामी हुकूमत की बिस्तर बोरिया बंध जाती।

3.            मुरतदीन (वो लोग कि जो इस्लाम से पलट गये और क्रमांक 2 में जिनका ज़िक्र किया गया है) के ख़तरे के अलावा नबुवत का दावा करने वालों और दूसरे नबियों जैसे मुसैलेमा, तुलैहा जैसे लोग प्रतिदिन सामने रहे थे और उनमें से हर एक के पास कुछ कुछ ताक़त और तरफ़दार थे और ये लोग मदीनें पर हमला करना चाहते थे, मुसलमानों के आपसी सहयोग द्वारा ही इन लोगों को पराजित किया गया। अगर इन हालात में इमाम अ़ली अ.स. हथियार उठाते तो शायद मुसलमान आपसी सहयोग होने की बिना पर इन लोगों को पराजित कर पाते।

4.            रोमियों के हमले का ख़तरा भी इमाम अ़ली अ.स. के लिये हथियार उठाने का एक बड़ा कारण बन सकता था क्योंकि इमाम अ़ली अ.स. जानते थे कि अगर मुसलमानों में अन्दुरूनी विद्रोह हुआ तो उसका एक नतीजा रोम वालों को ख़ुद अपनी हुकूमत पर हमले के दावत देना है जो कि बहुत दिनों से मुसलमानों पर हमले की ताक़ में है और अगर ऐसे हालात में रोमी लोग हमला करते है तो इस्लाम तथा मुसलमानों को एक बड़ा नुक़्सान उठाना पड़ सकता है।

उपरोक्त कारणों को पढ़ कर कोई भी समझदार व्यक्ति इस नतीजे पर पहुँच सकता है कि अगर इमाम अ़ली अ.स पैग़म्बर के स्वर्गवास के बाद अपने हक़्क़े खि़लाफ़त के लिये तलवार उठाते तो शायद आज इस्लाम का नाम भी बाक़ी रहता।

सीमाये पीशवायान/मेहदी पेशवाई/फ़ारसी

 

۱ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 22 February 16 ، 18:34
Mesam Naqvi

इमाम रज़ा .. को शहीद करने के बाद मामून चाहता था कि किसी तरह से इमाम तक़ी .. पर भी नज़र रखे और इस काम के लिये उसने अपनी बेटी उम्मे फ़ज़्ल का निकाह इमाम तक़ी  से करना चाहा, इस बात पर तमाम अब्बासी मामून पर ऐतेराज़ करने गले और कहने लगे कि अब जबकि अ़ली इब्ने मूसा रिज़ा .. इस दुनिया से चले गये और खि़लाफ़त दुबारा हमारी तरफ़ लौटी है तो तू चाहता है कि फिर से खि़लाफ़त को अ़ली की औलाद को दे दे हम किसी भी हाल में यह शादी नहीं होने देगें। मामून ने पूछाः तुम क्या चाहते हो? उन लोगों ने कहा ये लड़का नौजवान है और न ही इसके पास कोई इल्मो हिक्मत है तो मामून ने जवाब मे कहा तुम इस ख़ानदान को नहीं पहचानते अगर तुम चाहो तो आज़मा कर देख लो और किसी आलिम को बुला लाओ और इन से बहस करा लो ताकि मेरी बात की सच्चाई रौशन हो जाये।

अब्बासी लोगों ने यह्या बिन अक़सम नामक व्यक्ति को उसके इल्म की शोहरत की वजह से इमाम तक़ी .. से मुनाज़रे के लिये चुना।

मामून ने एक जल्सा रखा कि जिस में इमाम तक़ी .. के इल्म और समझ को तौला जा सकता है। जब सब लोग हाज़िर हो गये तो यह्या ने मामून से पूछाः

क्या आपकी इजाज़त है कि मैं इस लड़के से सवाल करूं?

मामून ने कहा ख़ुद इन से इजाज़त लो, यह्या ने इमाम से इजाज़त ली तो इमाम ने फ़रमायाः जो कुछ भी पूछना चाहता है पूछ ले।

यह्या ने कहाः उस शख़्स के बारे में आप की क्या नज़र है कि जिसने अहराम की हालत में शिकार किया हो?

इमाम  ने फ़रमायाः इस शख़्स ने शिकार को हिल मे मारा है या हरम में?

वो शख़्स अहराम की हालत में शिकार करने की मनाही को जानता था या नहीं जानता था??

उसने जानवर को जान के मारा है या ग़लती से??

ख़ुद वो शख़्स आज़ाद था या ग़ुलाम?

वह शख़्स छोटा था या बड़ा?

पहली बार यह काम किया था या पहले भी कर चुका था?

शिकार परिन्दा था या ज़मीनी जानवर?

छोटा जानवर था या बड़ा?

फिर से इस काम को करना चाहता है या अपनी ग़लती पर शरमिंदा है?

शिकार दिन में किया था या रात में?

अहराम उमरे का था या हज का?

यह्या बिन अक़सम अपने सवाल के अंदर होने वाले इतने सारे सवालों को सुन कर सकते में गया, उसकी कम इल्मी और कम हैसियती उसके चेहरे से दिखाई दे रही थी उसकी ज़बान ने काम करना बंद कर दिया था और तमाम मौजूदा लोगों ने उसकी हार को मान लिया था।

मामून ने कहा कि ख़ुदा का शुक्र कि जो मैं ने सोचा था वही हुआ है ओर फिर अपने रिश्तेदारों और ख़ानदान वालों से कहाः क्या अब उस बात को जान गये हो कि जिसे नहीं मान रहे थे?

कुछ देर बाद जलसा ख़त्म हो गया और सिवाये ख़लीफ़ा के ख़ास लोगों के सब लोग चले गये मामून ने इमाम तक़ी .. की तरफ मुंह किया और इमाम के बयान किये हुवे हर एक मसले का जवाब इमाम से मालूम किया।

 

۰ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 22 February 16 ، 18:34
Mesam Naqvi