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नाम व लक़ब (उपाधि)

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम का नाम मूसा व आपकी मुख्य उपाधियां काज़िम, बाबुल हवाइज व अब्दे सालेह हैं।

 

माता पिता

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत हमीदा खातून हैं।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम का जन्म सफ़र मास की सतवी (7) तिथि को सन् 128 हिजरी मे मक्के व मदीने के मध्य स्थित अबवा नामक एक गाँव मे हुआ था।

 

तशकीले हुकूमते इस्लामी का अरमान

 

तारीख़ी और रिवाई हक़ायक़ इस पर शाहिद हैं कि सरकारे मुरसले आज़म (स) और मौला ए कायनात (अ) की अज़ीमुश शान इलाही व इस्लामी हुकूमत के वुक़ू पज़ीर होने के बाद, इसी तरह इलाही अहकाम व हुदूद (दीन व शरीयत) के मुकम्मल निफ़ाज़ व इजरा की ख़ातिर इस्लामी हुकूमत की तशकील का अरमान हमारे हर इमामे मासूम (अ) के दिल में करवटें लेता रहा है। जिस के कसीर नमूने हमें आईम्म ए अतहार (अ) के बयानात व फ़रामीन में जा बजा नज़र आते हैं।

 

मसलन इमाम हसन (अ) अपने सुस्त व बे हौसला साथियों से ख़िताब करते हुए फ़रमाते हैं कि अगर मुझे ऐसे नासिर व मददगार मिल जाते जो दुश्मनाने ख़ुदा से मेरे हम रकाब हो कर जंग करते तो मैं हरगिज़ ख़िलाफ़त मुआविया के पास न रहने देता क्यो कि ख़िलाफ़त बनी उमय्या पर हराम है। [1]

 

इमाम हुसैन (अ) ने भी मुहम्मद हनफ़िया के नाम अपने वसीयत नामे में इसी अज़ीम अरमान का इज़हार यह कह कर फ़रमाया है:

 

ओरिदो अन आमोरा बिल मारूफ़ व अनहा अनिल मुन्कर......। [2]

 

इस्लाहे उम्मत, अम्र बिल मारुफ़, नही अनिल मुन्कर और सीरते रसूल (स) व अमीरुल मोमनीन (अ) का इत्तेबाअ, यह सब दर हक़ीक़त बनी उमय्या की ग़ैर इस्लामी और ज़ालेमाना हुकूमत की नाबूदी और इलाही व इस्लामी हूकूमत के क़याम ही की तरफ़ एक बलीग़ इशारा है।

 

इमाम सादिक़ (अ) ने सदीरे सैरफ़ी के ऐतेराज़ के जवाब में जो कुछ फ़रमाया है उस से भी यह ज़ाहिर होता है कि इस्लामी हुकूमत की तशकील व तासीस आप की दिली तमन्ना व आरजू़ थी।

 

सुदीर कहते हैं कि एक दिन मैं इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) की ख़िदमत में हाज़िर हो कर कहने लगा कि आख़िर आप क्यों बैठे हैं? (हुकूमत के लिये क्यों क़याम नही फ़रमाते) आप ने फ़रमाया: ऐ सुदीर, हुआ क्या?

 

मैं ने कहा कि आप अपने दोस्तों और शियों की कसरत तो देखिये। आप ने फ़रमाया कि तुम्हारी नज़र में उन की तादाद कितनी है?

 

मैं ने कहाः एक लाख।

 

आप ने ताअज्जुब से फ़रमायाः एक लाख।

 

मैं ने कहाः जी बल्कि दो लाख।

 

मैं ने अर्ज़ किया जी हाँ.... बल्कि शायद आधी दुनिया।

 

मौला सुदीर के साथ यही गुफ़तुगू करते करते जब मक़ामे यनबअ में पहुचे तो वहाँ आप ने बकरियों के एक गल्ले (रेवड़) को देख कर सुदीर से फ़रमाया: अगर हमारे दोस्तों और शियों की तादाद इस गल्ले के बराबर भी होती तो हम ज़रूर क़याम करते। [3]

 

इस रिवायत से यह अंदाज़ा लगामा मुश्किल नही है कि इस्लामी हुकूमत के क़याम व तासीस की दिली तमन्ना व आरज़ू, असबाब व हालात की ना फ़राहमी की वजह से एक आह और तड़प में बदल कर रह गई थी।

 

अलावा अज़ इन तक़रीबन सारे ही आईम्म ए मासूमीन (अलैहिमुस सलाम) के यहाँ यह अहम और अज़ीम अरमान बुनियादी मक़सद व हदफ़ के तौर पर नुमायां अंदाज़ में नज़र आता है। लेकिन अब हम अपने मौज़ू की मुनासेबत से उस की झलकियां सिर्फ़ इमाम मूसा काज़िम (अ) की हयाते पुर बरकत में देखना चाहते हैं।

 

तारीख़ व सेयर का मुतालआ करने वाले बेहतर जानते हैं कि इस्लामी हुकूमत के क़याम व तशकील के लिये बा क़ायदा जिद्दो जहद इमाम मूसा काज़िम (अ) की ज़िन्दगी में आप से पहले आईम्मा की ब निस्बत, ज़ाहिरन इंतेहाई दुश्वार बल्कि ना मुम्किन मालूम होती है। चूं कि आप का अहदे इमामत, अब्बासी हुकूमत शदायद व मज़ालिम के लिहाज़ से इंतेहाई बहरानी, हस्सास और ख़तरनाक दौर था। ऐसा ख़तरनाक कि आप की हर नक़्ल व हरकत पर हुकूमत की कड़ी नज़र रहती थी, लेकिन क्या कहना ऐसे संगीन और कड़े हालात पर भी यही नही कि इमाम काज़िम ने सिर्फ़ अपने पिदरे बुज़ुर्गवार इमाम सादिक़ (अ) के हौज़ ए इल्म व दानिश की शान व शौकत को बाक़ी रखा। [4] बल्कि इस्लामी हुकूमत के क़याम व तहक़्क़ुक़ के लिये भी आप हमा तन कोशां और फ़आल रहे और आप ने इस की तासीस व तशकील के लिये किसी भी मुमकिना जिद्दो जिहद से दरेग़ नही फ़रमाया। यहाँ तक कि अब्बासी ख़लीफ़ा हारून रशीद भी यह समझने लगा कि इमाम मूसा काज़िम (अ) और उन के शिया जिस दिन भी ज़रूरी क़ुदरत व ताक़त हासिल कर लेंगें उस दिन उस की ग़ासिब हुकूमत को नाबूद करने में देर नही लगायेगें। [5]

 

हुकूमते इस्लामी की तशकील के सिलसिले में इमाम काज़िम (अ) के बुलंद अहदाफ़ व मक़ासिद का अंदाज़ा, इस मुकालमे से भी ब ख़ूबी लगाया जा सकता है जो मौला और हारून के दरमियान पेश आया है। जिस की तफ़सील कुछइस तरह है कि एक दिन हारून ने (शायद आप को आज़माने और आप के अज़ीम अरमान को परखने के लिये) इस आमादगी का इज़हार किया कि वह फ़िदक आप के हवाले करना चाहता है। आप ने इस पेशकश के जवाब में फ़रमाया कि मैं फिदक लेने को तैयार हूँ मगर शर्त यह है कि उस के तमाम हुदूद के साथ वापस किया जाये।

 

हारून ने पूछा उस के हुदूद क्या हैं? आप ने फ़रमाया कि अगर उस के हुदूद बता दूँ तो हरगिज़ वापस नही करोगे।

 

हारून ने इसरार किया और क़सम खाई कि मैं उसे ज़रूर वापस करूगा, आप हुदूद तो बयान करें, (यह सुन कर) मौला ने हुदूदे फिदक़ इस तरह बयान फ़रमा दें।

 

उस की पहली हद अदन है।

 

दूसरी हद समरकंद है।

 

तीसरी हद अफ़रीक़ा है।

 

चौथी हद अलाक़ाजाते अरमेनिया व बहरे ख़ज़र हैं।

 

यह सुनते ही हारून के होश उड़ गये बहुत बे चैन व परेशान हुआ, ख़ुद को कंट्रोल न कर सका और ग़ुस्से से बोला तो हमारे पास क्या बचेगा? इमाम (अ) ने फ़रमाया: मैं जानता था कि तुम क़बूल नही करोगे इसी लिये बताने से इंकार कर रहा था। [6] इमाम (अ) ने हारून को ख़ूब समझा दिया कि फ़िदक सिर्फ़ एक बाग़ नही है बल्कि इस्लामी हुकूमत के वसीअ व अरीज़ क़लमरौ का एक रमज़ो राज़ है।

 

असहाबे सकीफ़ा ने दुख़्तरे व दामादे रसूल (स) से फिदक छीन कर दर हक़ीक़त अहले बैत (अ)का हक़्क़े हुकूमत व हाकेमियत ग़ज़ब व सल्ब किया था लिहाज़ा अब अगर अहले बैत (अ) को उनका हक़ दे दिया जाये तो इंसाफ़ यह है कि पूरे क़लमरौ ए हुकूमते इस्लामी को उन के सुपुर्द किया जाये।

 

हैरत की बात तो यह है कि सारी इस्लामी दुनिया पर अब्बासी हुकूमत का तसल्लुत व तसर्रुफ़ होने के बावजूद दूर व नज़दीक हर तरफ़ से अमवाले ख़ुम्स और दीगर शरई वुजूहात इमाम की ख़िदमत में पेश किये जाते थे और ऐसा लगता था कि जैसे आप ने संदूक़े बैतुल माल तशकील दे रखा है। [7] जो यक़ीनन इस बात की दलील है कि इस्लामी हुकूमत तशकील देने के लिये आप ने ऐसे इलाही, इस्लामी और अख़लाक़ी किरदार व असबाब अपना रखे थे जो इस्लामी दुनिया के समझदार और हक़ शिनास, हक़ीक़त निगर तबक़ा आप की तरफ़ मुतवज्जे किये हुए थे बल्कि उसे आप का मुतीअ व फ़रमां बरदार बनाये हुए थे। यब और बात है कि हुकूमती पावर उस अज़ीम तबक़े को बा क़ायदा खुलने और उभरने नही दे रहा था।

 

बीबी शतीता

 

इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम के ज़माने मे नेशापुर के शियो ने मौहम्मद बिन अली नेशापुरी नामी शख़्स कि जो अबुजाफर खुरासानी के नाम से मशहूर था, को कुछ शरई रकम और तोहफे साँतवे इमाम काज़िम (अ.स) की खिदमत मे मदीने पहुँचाने के लिऐ दी।

 

उन्होंने तीस हज़ार दीनार, पचास हज़ार दिरहम, कुछ लिबास और कुछ कपड़े दिये और साथ ही साथ एक कापी भी दी कि जिस पर सील लगी हुई थी और उसके हर पेज पर एक मसला लिखा हुआ था और उस से कहा था कि जब भी इमाम की खिदमत मे पहुँचो सवालो की कापी इमाम को दे देना और अगले दिन उस कापी को उनसे वापस ले लेना अगर इस कापी की सील नही टूटी तो खुद इस की सील को तोड़ लेना और देख कि इमाम ने बग़ैर सील तोड़े हमारे सवालो के जवाब दिये है या नही? अगर सील तोड़े बग़ैर इन सवालो के जवाब लिख दिये गऐ है तो समझ लेना कि यही इमामे बर हक़ हैं और हमारे माल को लेने के लायक़ है वरना हमारे माल को वापस पलटा लाना।

 

इस तरह खुरासान के शिया ये चाहते थे कि हक़ीकी इमाम को पहचाने और उन पर यक़ीन करे और इसके ज़रीऐ से इमामत का झूठा दावा करने वालो के फरेब और धोके से बचे और जिस वक्त नेशापुर के रहने वालो का ये नुमाइंदा मौहम्मद बिन अली नेशापुरी अपने सफर के लिऐ चलने लगा तो एक बुज़ुर्ग खातून कि जिनका नाम शतीता था और वो अपने ज़माने के नेक और पारसा लोगो से एक थी, मौहम्मद बिन अली नेशापुरी के पास आई एक दिरहम और एक कपड़े का टुकड़ा उसे दिया और कहाः ऐ अबुजाफर मेरे माल मे से ये मिक़दार हक़्क़े इमाम है इसे इमाम की खिदमत मे पहुचां दे।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी ने उनसे कहाः मुझे शर्म आती है कि इतने थोड़े से माल को इमाम को दूँ।

 

जनाबे शतीता ने उस से कहाः खुदा वंदे आलम किसी के हक़ से शरमाता नही है (यानी ये कि इमाम के हक़ को देना ज़रूरी है चाहे वो कम ही क्यूं न हो) बस यही माल मेरे ज़िम्मे है और चाहती हूँ कि इस हाल मे परवरदिगार से मुलाक़ात करूँ कि हक़्क़े इमाम मे से कुछ भी मेरी गर्दन पर न हो।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी ने जनाबे शतीता की वो ज़रा सी रकम ली और मदीने चला गया और मदीने पहुँच कर अब्दुल्लाह अफतह1 का इम्तेहान लेकर ये समझ गया कि अब्दुल्लाह अफतह इमामत के क़ाबिल नही है और नाउम्मीदी की हालत मे उसके घर से निकला उसके बाद एक बच्चे ने उसे इमाम काज़िम के घर की तरफ हिदायत की।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी ने जब इमाम काज़िम (अ.स) की खिदमत मे पहुँचा तो इमाम (अ.स) ने उस से फरमाया कि ऐ अबुजाफर नाउम्मीद क्यो हो रहे हो?? मेरे पास आओ मैं वलीऐ खुदा और उसकी हुज्जत हुँ। मैने कल ही तुम्हारे सवालो के जवाब दे दिये है उन सवालो के मेरे पास लाओ और शतीता की दी हुई एक दिरहम को भी मुझे दो।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी कहता है कि मैं इमाम काज़िम (अ.स) की बातो और आपकी बताई हुई सही निशानीयो से हैरान हो गया और उनके हुक्म पर अमल किया।

 

इमाम काज़िम (अ.स) ने शतीता के एक दिरहम और कपड़े के टुकड़े को ले लिया और फरमायाः बेशक अल्लाह हक़ से शरमाता नही है और ऐ अबुजाफर शतीता को मेरा सलाम कहना और ये पैसो की थैली कि इसमे चालिस दिरहम हैं, और ये कपड़े का टुकड़ा कि जो मेरे कफन का टुकड़ा है, को भी शतीता को दे देना और उस से कहना कि इस कपड़े को अपने कफन मे रख ले कि ये हमारे ही खेत की रूई से बना हुआ है और मेरी बहन ने इस कपड़े को बनाया है और साथ ही साथ शतीता से कहना कि जिस दिन ये चीज़े हासिल करोगी उसके बाद से उन्नीस दिन से ज़्यादा ज़िन्दा नही रहोगी। मेरे तोहफे के दिये हुऐ चालिस दिरहम मे से सोलह दिरहम खर्च कर लो और चौबीस दिरहम को सदक़े और अपने कफन दफन के लिऐ रख लेना।

 

फिर इमाम काज़िम (अ.स) ने फरमाया कि उस से कहना कि उसकी नमाज़े जनाज़ा मैं खुद पढ़ाऊँगा।

 

और उसके बाद इमाम (अ.स) ने फरमाया कि बाक़ी माल को उनके मालिको को वापस दे देना और सवालो की कापी की सील को तोड़ कर देख कि मैंने उनके जवाबो को बग़ैर देखे दिया है या नही??

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी कहता है कि मैने कापी की सील को देखा उसे हाथ भी नही लगाया गया था और सील तोड़ने के बाद मैंने देखा सब सवालो के जवाब दिये जा चुके है।

 

जिस वक्त मौहम्मद बिन अली नेशापुरी खुरासान पलटा तो ताज्जुब के आलम मे देखता है कि इमाम काज़िम (अ.स) ने जिन लोगो के माल वापस पलटाऐ है उन सब ने अब्दुल्लाह अफतह को इमाम मान लिया है लेकिन जनाबे शतीता अब भी अपने मज़हब पर बाक़ी है।

 

मौहम्मद बिन अली नेशापुरी कहता है कि मैने इमाम काज़िम (अ.स) के सलाम को शतीता को पहुँचाया और वो कपड़ा और माल भी उसे दिया और जिस तरह इमाम काज़िम (अ.स) ने फरमाया था शतीता उन्नीस दिन बाद इस दुनिया से रूखसत हो गई।

 

और जब जनाबे शतीता इंतेक़ाल कर गई तो इमाम (अ.स) ऊँट पर सवार हो कर नेशापुर आऐ और जनाबे शतीता की नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई।

 

आज भी लोग इस मौहतरम खातून को बीबी शतीता के नाम से याद करते है और आपका मज़ारे मुक़द्दस नेशापुर (ईरान) मे मौजूद है कि जहाँ रोज़ाना हज़ारो चाहने वाले आपकी क़ब्र की ज़ियारत के लिऐ आते है।

 

 1.   अब्दुल्लाह अफतह इमाम सादिक का एक बेटा था कि जिसने इमामत का दावा किया था।

 

हज़रत इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) के कथन

१. ग़ाफ़िल तरीन (बेपरवाह) शख़्स वह है जो ज़माने (समय) की गर्दिश और हादसात से इबरत हासिल न करे।

२. जो शख़्स बद अख़लाक़ है (गोया) उसने अपने एक दाएमी (सदैव) अज़ाब में मुबतला कर रखा है।

३. बहादुर वह है जो ग़ुस्से के वक़्त भी बुर्दबार रहे।

४. इल्म तमाम ख़ूबियों का बायस (कारण) और जेहेल (जिहालत) तमाम बुराईयों का मोजिब (कारण) है।

५. माल ख़ुदावन्दे आलम की एक नेमत है और माल से बेहतर बदन की सलामती है और उससे बेहतर तक़्वा ए क़ल्ब है।

६. ज़कात के ज़रिये अपने माल की हिफ़ाज़त (रक्षा) करो सदक़े (ईश्वर के मार्ग में कुछ देना) के ज़रिये बीमारी का इलाज।

७. बुरे लोगों से भी नेकी करो ताकि उनकी बदी (बुराई) से महफ़ूज़ (बचे) रहो (क्योंकि) नेकी से आज़ाद भी बन्दाए बे दाम हो जाता है।

८. दुनिया ख़्वाब है और आख़ेरत (परलोक) बेदारी और उस दरमियान (बीच) ज़िन्दगी एक ख़्वाबे परेशां।

९. बहादुर इन्सान हमेशा ख़ुश व मसरूर रहता है और अपना ज़ेहेन और आसाब पर आक़ेलाना क़ाबू रखता है।

१०. कभी किसी को धोका मत दो क्योंकि यह काम बहुत पस्त लोगों का है।

११. झूठ बदतरीन बीमारी है।

१२. हमेशा हक़ बात कहो और परहेज़गारों (बुराई से बचने वाला) के नासिर व मददगार (सहायक) बनो।

१३. अहमक़ (बेवकूफ़) लोगों से दोस्ती मत करो क्योंकि वह ग़ैरे शऊरी तौर (बेवकूफ़ी से) से तुमको नुक़सान पहुँचायेंगे।

१४. जो अल्लाह से डरता है वह किसी पर ज़ुल्म नहीं करता।

१५. अल्लाह की राह (मार्ग) में अपने जान व माल से जेहाद करो और दुनिया में (आख़ेरत के लिये) ज़ख़ीरा (जमा) कर लो।

१६. सितमगर पर सख़्ती करके मज़लूम के हक़ को उससे दिलवाओ।

१७. दोस्त की लग़्ज़िशों (त्रुटियों) से चश्म पोशी करो और उसे दुश्मनों के हमलों के वक़्त के लिए महफ़ूज़ (बचाये) रखो।

१८. जिसका ईमान अल्लाह पर है वह उस दस्तरख़ान पर नहीं बैठता जहाँ शराब हो।

१९. अगर तुम में से कोई बरादरे मोमिन को दोस्त रखे तो उसे आगाह कर दो।

२०. कारे ख़ैर में जल्दी करो (वरना) किसी दूसरे काम में लग जाओगे।

२१. क्या कहना उस शख़्स का जो अपने हलाल माल से बख़्शिश व इन्फ़ाक़ (व्यय करे) करे।

२२. लोगों से बदगोई (अपशब्द) मत करो (वरना) इस तरह तुम अपने लिये अदावत को दावत दोगे।

२३. जो शख़्स मौक़ा बे मौक़ा अपनी परेशानियों को लोगों से सुनाता है वह अपने को ज़लील करता है।

२४. हरग़िज़ अपने अज़ीज़ों से चश्मपोशी न करो और बेगाने (जिससे जान पहचान न हो) को आश्ना (जानने वाले) पर तरजीह मत दो।

२५. जिसने मियाना रवी और क़नाअत (आत्मसंतोष) को अपनाया उसके लिये नेमत हमेशा बाक़ी रहती है।

२६. हमेशा हक़ गो (सच बोलो) रहो और हक़ को सरीह अन्दाज़ से बयान करो और ख़ुदावन्दे आलम के सिवा किसी और की ख़ुशनूदी के तलबगार न हो।

२७. ख़ुदावन्दे आलम काहिल और सुस्त बन्दे को पसन्द नहीं करता।

२८. सब्र (सहनशीलता) करोगे तो फ़ायदे में रहोगे।

२९. जो इसराफ़ और फ़ुज़ूल ख़र्ची करता है उसके यहाँ नेमत पर ज़वाल आ जाता है।

३०. परहेज़ हर मुसीबत का इलाज है।

३१. सात साल की उम्र के बच्चों को नमाज़ के लिये तैयार करो और उनके बिस्तर जुदा (अलग- अलग) कर दो।

३२. अज़ीम इन्सान (अच्छा मनुष्य) क़ुदरत पाकर अफ़ो (क्षमा) कर देता है अपनी ज़बान को नासज़ा (अपशब्द) कहने से रोकता है और इन्साफ़ (न्याय) का रास्ता इख़्तेयार (ग्रहण) करता है।

३३. कुशादा रवी (अच्छा अख़लाक़) ऐसा नेक काम है जिसमें न कोई ख़र्च है न कोई ज़हमत।

३४. अच्छे दोस्त हासिल करने से इन्सान की इज़्ज़त बढ़ जाती है।

३५. नेकी वह चीज़ है जो सिवाय शुक्राने और ऐवज़ देने के ख़त्म नहीं होती।

३६. वह इज़्ज़त जो तकब्बुर (घमण्ड) से हासिल हो वह ज़िल्लत है।

३७. लोगों से हाजत तलब करना (माँगना) बे-इज़्ज़ती भी है और रिज़्क़ में कमी का बायस (कारण) भी।

३८. जब बाद करो तो झूठ मत बोलो और जब वायदा करो तो वायदा ख़िलाफ़ी न करो।

३९. जब तुम किसी दूसरे के ऐब का ज़िक्र करना चाहो तो पहले अपने ऐब को सोच लो।

४०. मौत आने से पहले उसके लिये तैयार हो जाओ।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम को हारून रशीद ने 14 वर्षों तक अपने बन्दीगृह मे बन्दी बनाकर रखा। जहाँ पर आप ने अत्याधिक यातनाऐं सहन की।और अन्त मे रजब मास की 25 वी तिथि को सन्183 हिजरी क़मरी मे बग़दाद नामक शहर मे हारून रशीद के बन्दी गृह मे सन्दी पुत्र शाहिक नामक व्यक्ति ने हारून रशीद के आदेश पर आपको विष मिला भोजन खिला कर आपके संसारिक जीवन को समाप्त कर दिया। शहादत के समय आपकी आयु 55 वर्ष थी।

 

समाधि

हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम की समाधि बग़दाद के समीप काज़मैन नामक स्थान पर है। प्रति वर्ष लाखों श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन कर आप को सलाम करते हैं।

 

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद।।

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Mesam Naqvi

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