Shaheede Rabe Group Meerut

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Mesam Naqvi

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Mesam Naqvi

इस बारे में कि पैगम्बर किस सीमा तक पापों से दूर हैं, मुसलमानें के विभिन्न समुदायों के मध्य मतभेद हैः
बारह इमामों को मानने वाले शिओं का मानना है कि पैगम्बर अर्थात र्इश्वरीय दूत,जन्म से मृत्यु तक छोटे बड़े हर प्रकार के पापो से पवित्र होता है बल्कि गलत व भूल से भी वह पाप नही कर सकता।

किंतु कुछ अन्य गुट,पैगम्बरों को केवल, बडे पापों से ही पवित्र मानते है और कुछ लोगों का मानना है कि युवा होने के बाद वे पापों से पवित्र होते है और अन्य का मानना है कि जब उन्हे औपचारिक रुप से पैगम्बरी दी जाती है तब और कुछ अन्य लोग इस प्रकार की पवित्रता का ही इन्कार करते है और यह मानते है कि र्इश्वरीय दूतों से भी पाप हो सकता है यहाँ तक कि वह जानबूझकर भी पाप कर सकते हैं। पैगम्बरों की पापों से दूरी के विषय को प्रमाणित करने से पहले कुछ बातो की ओर संकेत करना उचित होगा

पहली बात तो यह कि पैगम्बरों या कुछ लोगों के पवित्र होने का आशय, केवल पाप न करना ही नही है क्योकि संभव है, एक साधारण व्यक्ति भी पाप न करे विशेषकर उस स्थिति में जब उस की आयु छोटी हो। बल्कि इस का अर्थ यह है कि उन मे ऐसी शक्ति हो कि कठिन से कठिन परिस्थितियों मे भी उन्हे पापों से रोके, एक ऐसी शक्ति जो पापो कि बुरार्इ के प्रति पूर्ण ज्ञान और आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण के लिए सुदृढ इरादे द्वारा प्राप्त होती है। और चूँकि इस प्रकार कि शक्ति र्इश्वर की विशेष कृपा द्वारा प्राप्त होती है इस लिए उसे र्इश्वर से संबंधित बताया जाता है।
किंतु ऐसा नही है कि र्इश्वर, पापों से पवित्र लोगों को, बलपूर्वक पापों से दुर रखता है और उससे अधिकार व चयन शक्ति छीन लेता है। बल्कि पैगम्बरों और इमामों की पापों से पवित्रता का अर्थ यह होता है कि र्इश्वर ने उनकी पवित्रता की ज़मानत ली है।


दूसरी बात यह कि किसी भी व्यक्ति के पापों के पवित्र होने का अर्थ, उन कामों का छोडना है जिन का करना इस के लिए वर्जित हो जैसे वह पाप जिन का करना सभी धर्म मे गलत समझा जाता है और वह काम उसके धर्म मे वर्जित हो।इस आधार पर किसी पैगम्बर की पवित्रता वह काम करने से जो स्वंय उसके धर्म मे वैध हो और उससे पूर्व के र्इश्वरीय धर्म के वर्जित हो, या बाद मे वर्जित हो जाए, भगं नही होती।


तीसरी बात यह कि पाप, जिससे पवित्र व्यक्ति दूर होता है, उस काम को कहते है जिसे इस्लामी शिक्षाओं मे हराम कहा जाता है और इसी प्रकार पाप उन कामों के न करने को भी कहा जाता है और जिन का करना आवश्यक हो और जिसे इस्लामी शिक्षाओं मे वाजिब कहा जाता है। किंतु पाप के अतिरिक्त अवज्ञा व बुरार्इ आदि के जो शब्द है उनके अर्थ अधिक व्यापक होते है और उनमे श्रेष्ठ कार्य को छोडना भी होता है और इस प्रकार के काम पवित्रता को भंग नही करते ।।।।          
 


۰ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 07 March 16 ، 18:06
Mesam Naqvi

مَن قَتَلَ نَفْسًا بِغَیْرِ نَفْسٍ أَوْ فَسَادٍ فِی الأَرْضِ فَکَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِیعًا وَمَنْ أَحْیَاهَا فَکَأَنَّمَا أَحْیَا النَّاسَ جَمِیعًا

मायदा-32

कुरआन कहता है कि अगर कोई किसी को जुर्म किये बिना क़त्ल कर दे तो ऐसा ही है से इसने सभी को क़त्ल कर दिया हो और अगर कोई ज़िन्दा करदे तो ऐसा ही है जैसे उसने सभी को ज़िन्दा कर दिया।

ईरान में इस्लामी क्रान्ति के सफल होने के बाद इस्लाम के दुश्मन इसको ख़त्म करने के लिऐ जमा हो गये ताकि इस्लाम को मिटा दों इसके लिऐ उन्होंने ईरान को भी निशाना बनाया क्योंकि यह क्रान्ति ईरान में आई थी। इसके लिऐ पहला काम तो ये किया की ईरान के विरूध जंग छेड़ दी दूसरा काम ये किया कि ईरान को आतंकवाद का गढ़ बता कर क्षेत्र में ख़ौफ पैदा कर दिया। जिससे लोग इस क्रान्ति से दूर रहें परन्तु ऐसा हो न सका और दुश्मन को इसमें सफलता न मिल सकी।

दुश्मन को जब इसमें सफलता न मिल सकी तो उसने मुसलमानो को कमज़ोर करने के लिऐ मुसलमानो में फूट डाल कर एक दूसरे से अलग कर दिया, अब एक मुसलमान को दूसरे की ख़बर नही है वो किस हालत में है, एक देश को दूसरे की ख़बर नही है वो किन कठिनाईयों का सामना कर रहा है जबकि हज़रत मुहम्मद (स) की हदीस है आप फरमाते हैः

من سمع مسلما ینادی یا للمسلمین فلم یجبه فلیس بمسلم

अगर कोई मुसलमान किसी दूसरे मुसलमान भाई की आवाज़ सुने कि वो उसको सहायता के लिऐ बुला रहा है और वो उसकी सहायता न करे तो वो मुसलमान नही  है।

इस हदीस में तो मुसलमान आया है कि अगर एक मुस लमान सहायता के लिए बुलाये और वो उसकी सहायता न करे तो वो मुसलमान नही है। दूसरी हदीस में तो ये है कि अगर बुलाने वाला मुसलमान न भी हो तब भी अगर एक मुसलमान उसकी सहायता न करे तब भी वो मुसलमान नही है। हज़रत मुहम्मद (स) फरमाते हैः

من سمع رجلاً ینادی یا للمسلمین فلم یجبه فلیس بمسلم

इस हदीस से ये बात समझ में आती है कि मुसलमान वही है जो दूसरो कि सहायता करता है, यहीं से ये बात भी समझ में आती है कि मुसलमान किसी को नुक़सान नही पहुँचाता, अब अगर कोई किसी को नुक़सान पहुँचाकर ये समझता रहे कि वो मुसलमान है तो ये ग़लत है, इस हदीस के आधार पर वो मुसलमान नहीं हो सकता।

यहीं से ये बात भी समझ में आती है कि कोई भी मुसलमान आतंकवादी नहीं होता, अगर कोई आतंक फैला रहा हो वो कुछ भी हो मुसलमान नही है, वो इस्लाम और मुसलमानो को बदनाम करना चाहता है। आतंकवाद का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है, आज जो लोग मुसलमानों को आतंकवादी कह रहे हैं उन्हें इस्लाम के बारे में पढ़ना चाहिये फिर फैसला करें कि कौन आतंकवादी है।

मुसलमानों ने कभी भी कोई युध आरम्भ नहीं किया, संसार में जितने भी युध हुऐ हैं चाहे किसी भी युध को लेंलें उससे इस्लाम और मुसलमानों का कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी मुसलमानों को बदनाम किया जा रहा है, जबकि वो लोग जो एक दूसरे पर चढ़ाई करके हज़ारो और लाखों लोगों का सामूहिक नरसंहार कर देते हैं उन्हें कोई कुछ नही कहता, विनाशकारी हथियार बनाने वालों को कोई कुछ नहीं कहता, मुसलमानों को एक जुट हो कर इसका सामना करना होगा।

अगर मुसलमान एक जुट हो जाऐ तो इस बदनामी से निपटा जा सकता है परन्तु आज मुसलमान फूट का शिकार होकर आपस में लड़ रहे हैं, एक दूसरे को काफिर कह रहे हैं, एक दूसरे को क़त्ल कर रहे हैं, मुसलमान, अपने मुसलमान भाई का सिर काट कर ख़ुश हो रहा है, जबकि इस्लाम ये नही सिखाता, हदीस तो ये कहती है कि अगर कोई मुसलमान किसी दूसरे मुसलमान भाई को सहायता के लिऐ बुला रहा है तो हर मुसलमान का कर्तव्य है कि उसकी सहायता करे अगर उसकी सहायता न करे तो वो मुसलमान कहलाने का हक़दार नही है।

आज फिलिस्तीन से ले कर सिरिया, यमन, ईराक़ अफग़ानिस्तान, पाकिस्तान.... .............में मुसलमान, मुसलमान से लड़ रहा है और यह नहीं समझ रहे कि ये दुश्मन की चाल है, दुश्मन यही तो चाहता है कि हम आपस ही में लड़ते रहे और वो अपना काम आराम से करते रहें।  

इस्लाम के दुश्मनों ने जब देखा कि जब मुसलमान आपस में लड़ रहे हैं तो उन्होंने भी इससे लाभ उठाया और हथियारों की सप्लाई आरम्भ कर दी, जिससे उन्हें आर्थिक लाभ भी हुआ और मुसलमान भी कमज़ोर होते रहे, अगर मुसलमानों की अब भी आँख नही खुली तो भविष्य में भी कमज़ोर होते रहेंगे।

 इस्लाम के दुश्मनों ने इस्लाम को मिटाने के लिऐ अलग अलग तरीकों नये नये हमले किये उन्होंने इस्लामी कानून को बदलना आरम्भ कर दिया जिससे इस्लाम का चेहरा बदला जा सके जैसे कि जिहाद का अर्थ ही बदल डाला, इस कार्य में कुछ अनपढ़ मुसलमानों ने उन का साथ भी दिया जिससे उनका कार्य और भी आसान हो गया, तालिबान, अलक़ायदा और आज के समय में वहाबियत इसका उदाहरण हैं जिन्होंने उनका काम और भी आसान कर दिया। इन लोगों ने इस्लाम का मुखौटा लगा कर इस्लाम को नुक़सान पहुँचाया है, आज इस्लामी देशो में क्या कुछ नहीं हो रहा, आज फिलिस्तीन, मिस्र, सिरिया, यमन, ईराक़ अफग़ानिस्तान और पाकिस्तान इसी का शिकार हैं।

पहले तो यह था कि हम केवल सुनते थे कि इन्होंने वहाँ पर ऐसा कर दिया, वहाँ पर ऐसा कर दिया, इनके फत्वे भी बड़े अजीब ग़रीब होते हैं, परन्तु आज हम देख भी रहे हैं, बात फत्वों की नहीं है आज इन पर अमल भी किया जा रहा है, सिरिया में पाक सहाबा का मज़ार उड़ा दिया गया

ईराक़ में धार्मिक स्थलों को बम से उड़ाया गया, एक मुसलमान अल्लाहो अकबर कह कर दूसरे मुसलमान का सिर काट रहा है, उसका सीना चाक करके उसका कलेजा चबा रहा है जैसे कि हुज़ूर (स) के चचा हज़रत हमज़ा का कलेजा चबाया गया था।


क्या ऐसे लोग मुसलमान हो सकते हैं ? कभी नहीं, इनके कार्यों को देख कर हर व्यक्ति दाँतों में उगंली दबा लेगा, ये लोग इन्सान नहीं हैं।

अजीब बात यह है कि यह लोग अपना ख़ौफलाक चेहरा स्वयँ दूसरों को सामने पेश कर रहे हैं अपने अमानवीय कार्यों के वीडियो क्लिप स्वयँ ही इन्टरनेट पर डाल रहे हैं जो की अगर कोई दूसरा व्यक्ति यह कार्य करना चाहता तो अरबो डालर ख़र्च करके भी नहीं कर सकता था जो इन्होंने स्वयँ कर दिया।

शायद इनके ऐसे कार्यों को देख कर ही इमाम ख़ुमैनी ने कहा था कि हम अमेरिका और सद्दाम को तो माफ कर सकते हैं आले सऊद को नहीं, जबकि सद्दाम ने ईरान पर हमला किया था और अमेरिका ने उसको हथियार दिये थे और ईरान के एक जहाज़ को बम से उड़ा कर 250 से अधिक लोगों को मार दिया था, फिर भी इनको माफ किया जा सकता है तो आले सऊद को क्यों नही ? वो इसलिऐ कि इन्होंने इस्लाम के क़ानूनों को अपने पैरों से रौंध डाला है, हज में हाजियों को क़त्ल कर डाला जहाँ पर एक चींटी को मारने की भी आज्ञा नहीं है।   


ऐसे कार्यों को जब कोई दूसरा देखेगा तो इस्लाम से नफरत करने लगेगा यह लोग कार्य ही ऐसे कर रहे हैं اللہ اکبر और لا الھ الا اللہ कह कर मुसलमान का सिर काट रहे हैं, यह क्लिप जब कोई दूसरा देखेगा तो इस्लाम से नफरत करेगा, मुसलमानों को आतंकवादी हा कहेगा।

जब इस्राईल ने देखा कि उसका नील से फरात तक का सपना चकनाचूर हो गया तो उसने मुसलमानों को आपस में लड़ा दिया, वहाबियों के द्वारा सिरिया और मिस्र में नाअमनी फैला दी, इसी से पता चलता है कि वहाबियों का लिंक किससे है,  किसने इनको पाला है।

बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि वो लोग जो अपने आप को इस्लाम का धर्म प्रचारक कहते हैं और न जाने कितना पैसा इस्लाम के प्रचार पर ख़र्च करते हैं वही लोग इस्लाम को सबसे अधिक नुक़सान पहुँचा रहे हैं, यही लोग ऐकेश्वरवाद की जगह बहुईश्वर वाद लोगो तक पहुँचा रहे हैं, सहाबा का अपमान भी यही लोग कर रहे हैं, सिरिया और मिस्र में यह लोग क्या कुछ नही कर रहे जबकि वहाँ पर कुछ नही करना चाहिये था, फिलिस्तीन के लिऐ कुछ नहीं किया जबकि वहाँ पर कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिये था।

इनके सामने एक एक मुसलमान को खड़ा होना चाहिऐ बात शियों तक सिमित नही यह लोग सहाबा का अपमान कर रहे हैं अगर इनको ना रोका गया तो कल जो भी इनकी बात नहीं मानेगा उसको क़त्ल कर देंगे, यह लोग पैसों के लिऐ काम करते हैं।

रिवायतों में है कि जब सुफयानी आयेगा तो वो शियों को क़त्ल करने के लिऐ इनाम रखेगा कि जो कोई भी एक शिया का सिर काट कर लायेगा उसको इनाम दिया जायेगा, इसमें पहले तो शिया ही मारे जायेंगे परन्तु बाद में दूसरे लोग भी नही बच पायेंगे पैसों के लिऐ उनका सिर काटा जायेगा और कहा यह जायेगा कि यह भी शिया थे जो तक़इय्या कर रहे थे, इनका बस चले तो यह लोग हुज़ुर (स) का मज़ार भी तोड़ डालें क्योंकि यह लोग हुज़ुर (स) के मज़ार की ज़ियारत करने को शिर्क समझते हैं, उसको चूमने को शिर्क समझते हैं, वहाँ मन्नत माँगने को शिर्क समझते हैं।

मिस्र में इन्होंने हसन शहाता को शहीद कर दिया जबकि हसन शहाता एक सच्चे मुसलमान ही नही बल्कि आप मिस्र के अल-अज़हर विश्वविद्दालय के बड़े विद्धानो में से थे, उन पर 2000 से अधिक लोगों ने हमला करके शहीद कर दिया, आपके शव का भी अपमान किया गया उसको रस्सी में बाँध कर गलियों में खींचा गया, इसको देख कर करबला याद आ जाती है, करबला में भी यही कुछ हुआ था वहाँ पर भी लाशों का अपमान किया गया था वहाँ पर एक नही बल्कि 72 शव थे जिनका अपमान किया गया था।

सिरिया में  " हलब " शहर के उत्तरी उपनगर में  शिया आबादी वाले दो गांव "नबल"  और  " अल-ज़हरा " पर इन्होंने हमला करके घेर लिया है, नबल और अल-ज़हरा लगभग 10 महीनों से आतंकवादियों के घेरे में हैं और इस घेरे के चालू रहने से वहाँ के नागरिकों के लिऐ इस क्षेत्र में जीवन व्यतीत करना कठिन हो गया है क्योंकि इन दोनों गावों में दवा और खाद्द सामग्री का नामोनिशान तक नही है, वहाँ के लोग खाने और पानी के लिऐ तरस रहे हैं, यह मानव त्रासदी नही तो और क्या है।

यह लोग एक बच्चे के हाथ में तलवार देकर कहते हैं कि इसका सिर काट दे, यह बच्चा आगे चल कर एक क्रूर व्यक्ति के सिवा ।।क्या बन सकता है

एक 3 या 4 वर्ष के बच्चे के सामने उसके माता पिता को मार देते हैं उस बच्चे का क्या होगा

 यह लोग ना बच्चों पर रहम खाते हैं ना बड़ों पर, ना औरतों पर रहम खाते हैं ना किसी और पर, इन्होंने एक 3 वर्ष के बच्चे को फाँसी पर चढ़ा दिया ,एक बच्चे को दज्जाल कह कर मार डाला,  यह लोग सिरिया में हुज़ुर (स) की नवासी हज़रत ज़ैनब (स) के मज़ार को उड़ाने की धमकी दे चुके हैं।

इन सब चीज़ों को देखते हुए हर व्यक्ति इनसे नफरत करने लगा है, इन्होंने जिहादे निकाह के नाम पर स्त्रीयों का शोषण किया और अभी तक हो भी रहा है, इन्होंने जिहादे निकाह के नाम पर विश्व के सारे आवारा स्त्री पुरूष सिरिया में जमा कर दिये है।
यही कारण है कि ट्यूनीशिया की कुछ स्त्रीयों ने जब इनके इन करतूतों को देखा कि यह लोग किस प्रकार स्त्रीयों का शोषण कर रहे हैं तो उन्होंने स्त्रीयों की एक फोर्स बनाई जो नंगी रहती हैं जो हर प्रकार से इस्लाम धर्म का अपमान करती है??????
उनके इस कार्य का उत्तरदायी कौन होगा
सिरिया में फौज के हाथों पकड़ा गया एक आतंकी कहता है कि हमें एक शिया का सिर काटने के लिऐ 700 डालर दिये जाते थे।
इन सब बातों को देखते हुऐ हर मुसलमान का कर्तव्य है कि वो इनके विरूध आवाज़ उठायेः   
               आतंकवादियो के विरूध

              उलटे सीधे फतवे देने वाले मुफतियों के विरूध

              जो इन आतंकवादियो की सहायता कर रहे हैं उनके विरूध              

अन्त में हम इमामे ज़माना के ज़ूहुर के लिऐ अल्लाह से दुआ और प्रार्थना करते हैं कि आपका ज़ूहुर शीघ्र हो जाऐ जिससे सभी लोग चैन की साँस ले सकें।

۰ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 07 March 16 ، 11:42
Mesam Naqvi

* ( म.न. 1- ) हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि वह ऊसूले दीन को अक़्ल के ज़रिये समझे क्योंकि ऊसूले दीन में किसी भी हालत में तक़लीद नही की जासकती यानी यह नही हो सकता कि कोई इंसान ऊसूले दीन में किसी की बात सिर्फ़ इस लिए माने कि वह ऊसूले दीन को जानता है। लेकिन अगर कोई इंसान इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों पर यक़ीन रख़ता हो और उनको ज़ाहिर भी करता हो तो चाहे उसका यह इज़हार उसकी बसीरत की वजह से न हो तब भी वह मुसलमान और मोमिन है। लिहाज़ा इस मुसलमान पर इस्लाम और ईमान के तमाम अहकाम जारी होंगे। लेकिन “मुसल्लमाते दीन”[2] को छोड़ कर दीन के बाक़ी अहकाम में ज़रूरी है कि या तो इंसान ख़ुद मुजतहिद हो, (यानी अहकाम को दलील के ज़रिये ख़ुद हासिल करे) या किसी मुजतहिद की तक़लीद करे या फ़िर एहतियात के ज़रिये इस तरह अमल करे कि उसे यह यक़ीन हासिल हो जाये कि उसने अपनी शरई ज़िम्मेदारी को पूरा कर दिया है। मसलन अगर चन्द मुजतहिद किसी काम को हराम क़रार दें और चन्द दूसरे मुजतहिद कहें कि हराम नही है तो उस काम को अंजाम न दे, और अगर कुछ मुजतहिद किसी काम को वाजिब और कुछ मुसतहब माने तो उस काम को अंजाम दे। लिहाज़ा जो शख़्स न तो ख़ुद मुजतहिद हो और न ही एहतियात पर अमल कर सकता हो उस पर वाजिब है कि किसी मुजतहिद की तक़लीद करे।

(म.न. 2) दीनी अहकाम में तक़लीद का मतलब यह है कि किसी मुजतहिद के फ़तवे पर अमल किया जाये। और यह भी ज़रूरी है कि जिस मुजतहिद की तक़लीद की जाये वह मर्द, आक़िल, बालिग़, शिया इस्ना अशरी, हलाल ज़ादा, ज़िन्दा और आदिल हो। आदिल उस शख़्स को कहा जाता है जो तमाम वाजिब कामों अंजाम देता हो और तमाम हराम कामों को तर्क करता हो और आदिल होने की निशानी यह है कि वह ज़ाहेरन एक अच्छा शख़्स हो और अगर उसके महल्ले वालों या पड़ौसीयो या उसके साथ उठने बैठने वालों से उसके बारे में पूछा जाये तो वह उसकी अचछाई की तसदीक़ करें।

अगर इस बात का थोड़ा सा भी इल्म हो कि दर पेश मसाइल में मुजतहिदों के फ़तवे एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ हैं तो ज़रूरी है कि उस मुजतहिद की तक़लीद की जाये जो “आलम” हो यानी अपने ज़माने के दूसरे मुजतहिदों के मुक़ाबले में अहकामें इलाही को समझने की ज़्यादा सलाहियत रख़ता हो। से

(म.न. 3)मुजतहिद और आलम की पहचान के तीन तरीक़े हैं।

क- इंसान ख़ुद साहिबे इल्म हो और मुजतहिद व आलम को पहचान ने की सलाहियत रखता हो।

ख- दो ऐसे शख़्स जो आलिम व आदिल हों और मुजतहिद व आलम के पहचान ने का मलका भी रख़ते हों अगर किसी के आलम व मुजतहिद होने की तस्दीक़ करें इस शर्त के साथ कि दूसरे दो आलिम व आदिल शख़्स उनकी बात की काट न करे। और किसी का आलम व मुजतहिद होना एक क़ाबिले एतेमाद शख़्स की गवाही से भी साबित हो जाता है।

ग- कुछ आलिम अफ़राद (अहले ख़ुबरा) जो मुजतहिद और आलम को पहचान ने की सलाहियत रखते हों, किसी के आलम व मुजतहिद होने की तसदीक़ करें और उनकी तसदीक़ से इंसान मुतमइन हो जाये।

* (म.न. 4) अगर दर पेश मसाइल में दो या दो से ज़्यादा मुजतहिदों के इख़्तलाफ़ी फ़तवे मुख़तसर तौर पर मालूम हों और बाज़ के मुक़ाबिल बाज़ का आलम होना भी इल्म में हो लेकिन अगर आलम की पहचान आसान न हो तो अहवत[3] यह है कि इंसान तमाम मसाइल में उनके फ़तवों जितना हो सके एहतियात करे। (यह मसला बहुत तफ़सीली है और यह इसके बयान का मक़ाम नही है।) और इस ऐसी सूरत में जबकि एहतियात मुमकिन न हो तो ज़रूरी है कि उस मुजतहिद के फ़तवे के मुताबिक़ अमल करे जिसके आलम होने का एहतेमाल दूसरे के मुक़ाबले में ज़्यादा हो। और अगर दोनों के आलम होने का एहतेमाल बराबर है तो फ़िर इख़्तियार है। (जिसके फ़तवे पर चाहे अमल करे।)

(म.न. 5) किसी मुजतहिद के फ़तवे को जान ने के चार तरीक़े हैं।

क- ख़ुद मुजतहिद से उनका फ़तवा सुने।

ख- दो ऐसे आदिल अशख़ास से सुनना जो मुजतहिद का फ़तवा बयान करें।

ग- मुजतहिद के फ़तवे को किसी ऐसे शख़्स से सुनना जिस की बात पर इतमिनान हो।

घ- मुजतहिद की किताब (मसलन तौज़ीहुल मसाइल) में पढ़ना एस शर्त के साथ कि उस किताब के सही होने के बारे में इतमिनान हो।

(म.न. 6) जब तक इंसान को मुजतहिद के फ़तवे के बदले जाने का यक़ीन न हो जाये किताब में लिखे फ़तवे पर अमल कर सकता है और अगर फ़तवे के बदले जाने का एहतेमाल पाया जाता हो तो छान बीन करना ज़रूरी नही है।

(म.न. 7) अगर मुजतहिदे आलम कोई फ़तवा दे तो उनका मुक़ल्लिद[4] इस मसले के बारे में किसी दूसरे मुजतहिद के फ़तवे पर अमल नही कर सकता। जब तक वह मुजतहिदेव आलम फ़तवा न दे बल्कि यह न कहे कि एहतियात इसमें है कि यूँ अमल किया जाये मसलन एहतियात[5] इसमें है कि नमाज़ की पहली और दूसरी रकअत में सूरए अलहम्द के बाद एक और पूरी सूरत पढ़े, तो मुक़ल्लिद को चाहिए कि या तो इस एहतियात पर जिसे एहतियाते वाजिब[6] कहते है अमल करे या किसी दूसरे ऐसे मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करे जिसकी तक़लीद जायज़ हो। बस अगर वह (दूसरा मुजतहिद) फ़क़त सूरए अलहम्द को काफ़ी समझता है हो तो दूसरे सूरह को छोड़ सकता है। जब मुजतहिदे आलम किसी मसले के बारे में कहे कि महल्ले ताम्मुल[7] या महल्ले इशकाल[8] है तो उसका हुक्म भी यही है।

(म.न. 8) अगर मुजतहिदे आलम किसी मसले के बारे में फ़तवा देने के बाद या इस से पहले एहतियात लगाये मसलन यह कहे कि नजिस बरतन कुर पीनी में एक मर्तबा धोने से पाक हो जाता है अगरचे एहतियात यह है कि तीन बार धोया जाये तो मुक़ल्लिद ऐसी एहतियात को छोड़ सकता है। इस क़िस्म की एहतियात को एहतियाते मुस्तहब[9] कहते हैं।

* (म.न. 9)इंसान जिस मुजतहिद की तक़लीद करता है अगर वह मर जाये तो जो हुक्म उसकी ज़िन्दगी में था वही हुक्म उसके मरने के बाद भी है। इस बिना पर अगर मरहूम मुजतहिद, ज़िन्दा मुजतहिद के मुक़ाबिल में आलम था तो वह शख़्स जिसे दर पेश मसाइल में दोनों मुजतहिदों के दरमियान के इख़तलाफ़ का अगर इजमाली तौर पर भी इल्म हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि मरहूम मुजतहिद की तक़लीद पर बाक़ी रहे। और अगर ज़िन्दा मुजतहिद आलम हो तो फिर जिन्दा मुजतहिद की तरफ़ रुजूअ करना जरूरी है। इस मसले में तक़लीद से मुराद मुऐयन मुजतहिद के फ़तवे की पैरवी करने (क़स्दे रुजूअ) को सिर्फ़ अपने लिए लाज़िम क़रार देना है न कि उसके हुक्म के मुताबिक़ अमल करना।

(म.न. 10) अगर कोई शख़्स किसी मसले में एक मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करे, फिर उस मुजतहिद के मर जाने के बाद वह उसी में ज़िन्दा मुजतहिद के फ़तवे पर अमल कर ले तो अब उसे इस बात की इजाज़त नही है कि वह दुबारा मरहूम मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करे।

(म.न. 11) जो मसाइल इंसान को अक्सर पेश आते हैं उनको याद करना वाजिब है।

* (म.न. 12) अगर किसी शख़्स के सामने कोई ऐल़सा मसला पेश आजाये जिसका हुक्म उसे मालूम न हो तो उसके लिए लाज़िम है कि एहतियात करे या उन शर्तों के साथ तक़लीद करे जिन ज़िक्र ऊपर हो चुका है। लेकिन अगर उसे इस मसले में आलम के फ़तवे का इल्म न हो और आलम व ग़ैरे आलम की राय के मुख़्तलिफ़ होने का थोड़ा इल्म भी हो तो ग़ैरे आलम की तक़लीद जायज़ है।

*(म.न. 13) अगर कोई शख़्स किसी मुजतहिद का फ़तवा किसी दूसरे शख़्स को बताये और इसके बाद मुजतहिद अपने फ़तवे को बदल दे तो उसके लिए ज़रूरी नही है कि वह उस शख़्स को फ़तवे के बदले जाने के बारे में आगाह करे। लेकिन अगर फ़तवा बताने के बाद यह महसूस करे कि (शायद फ़तवा बताने में) ग़लती हो गई है और अगर इस बात का अंदेशा हो कि इस इत्तला की बिना पर वह शख़्स अपनी शरई ज़िम्मेदारी के ख़िलाफ़ अमल अंजाम देगा तो एहतियाते लाज़िम[10] की बिना पर जहाँ तक हो सके उस ग़लती को दूर करे। तो

(म.न. 14) अगर कोई मुकल्लफ़[11] एक मुद्दत तक किसी की तक़लीद किये बिना आमाल अंजाम देता रहे लेकिन बाद में किसी मुजतहिद की तक़लीद कर ले तो इस सूरत में अगर मुजतहिद उसके गुज़िश्ता आमाल के बारे में हुक्म लगाये कि वह सही है तो वह सही तसव्वुर किये जायेंगे वरना बातिल शुमार होंगे।

[1] किसी मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करना।

[2] वह ज़रूरी और क़तई अमूर जो दीने इस्लाम के ऐसे जुज़ हैं जिनको अलग नही किया जाकता और जिन्हे तमाम मुसलमान दीन का लीज़मी जुज़ मानते हैं जैसे नमाज़, रोज़े का फ़र्ज़ और उनका वाजिब होना। इन अमूर को ज़रूरियाते दीन और क़तईयाते दीन भी कहते है। क्योंकि यह वह अमूर हैं जिनका तस्लीम करना दायर-ए- इस्लाम में रहने के लिए ज़रूरी है।

[3] एहतियात के मुताबिक़

[4] तक़लीद करने वाला

[5] अमल का वह तरीक़ा जिससे “अमल” के मुताबिक़े वाक़ेअ होने का यक़ीन हासिल हो जाये।

[6] वह हुक्म जो एहतियात के मुताबिक़ हो और फ़क़ीह ने उसके साथछ फ़तवा न दिया हो, ऐसे मसाइल में मुक़ल्लिद उस मुजतहिद की तक़लीद कर सकता है जो आलम के बाद इल्म में सबसे बढ़ कर हो।

[7] एहतियात करना चाहिए( मुक़ल्लिद इस मसले में दूसरे मुजतहिद की तरफ़ रुजूअ(सम्पर्क) कर सकता है इस शर्त के साथ कि मिजतहिद ने एहतियात के साथ फ़तवा न दिया हो।)

[8] इस में इश्काल है यानी इस अमल का सही और कामिल होना मुश्किल है। (मुक़ल्लिद इस मसले में किसी दूसरे मुजतहिद की तरफ़ रुजूअ कर सकता है। इस शर्त के साथ कि मुजतहिद ने फ़तवा न दिया हो)

[9] फ़तवे के अलावा एहतियात इस लिए इस पर अमल ज़रूरी नही होता।

[10] एहतियाते वाजिब का दूसरा नाम।

[11] वह शख़्स जिस पर शरई तकालीफ़ लागू हों।

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Mesam Naqvi

खलीफाऐ अव्वल अबुबकर बिन अबुक़हाफा एक रिवायत की बिना पर अपनी उम्र के आखरी लमहो मे तीन कामो के करने, तीन कामो के न करने, और पैग़म्बर से तीन सवालो के न पूछने से शरमिंदगी का इज़हार किया है।

 

 

इस रिवायत के बारे मे बहुत से सवाल किये जाते है कि ये रिवायत हदीस, तारीख और इल्मे रिजाल की किन शिया या सुन्नी किताबो मे आई है? इन किताबो का शिया या सुन्नी उलेमा के दरमियान क्या एतबार है ? क्या इस रिवायत की तमाम सनदे मोतबर है? इलमे रिजाल और तारीखदानो की इस रिवायत की सनद और मज़मून के बारे मे क्या नज़र है? इस रिवायत को सही मानने के नतीजे क्या होंगे?

 

जहा तक सवाल है इस बात का कि ये रिवायत शिया, सुन्नीयो की किन किताबो मे आई है तो इसका जवाब ये है कि शिया और सुन्नी दोनो के बहुत से मोहद्देसीन, तारीख़दान, मनाक़िब लिखने वाले, रिजालीयो, अदीबो, रावीयो और नाक़िलो ने इस रिवायत को चंद तरीक़ो से सिक़ह रावीयो और अलग अलग सनदो से लफ़्ज़ो और मज़मून के थोड़े बहुत फर्क़ से तीसरी सदी के पहले पचासे यानी वो ज़माना की जिसमे हदीस लिखने की शुरूआत हुई थी, से लिखा है यहां तक कि ये रिवायत मौजूदा ज़माने की रिजाल, हदीस, तारीख़ और अरबी अदब की किताबो मे भी मौजूद है।

 

और इस रिवायत का सही होना, इसकी सनद व पुरानी किताबो मे इसके होने से साबित है और इस रिवायत को सही और सच्ची मानने का नतीजा ये है कि हज़रत अबुबकर को अपनी हक़्क़ानियत और अपने सही होने पर शक था।

 

 

और क्यो कि ये रिवायत अहले सुन्नत भाईयो की किताबो मे थोड़ी बहुत कमी और ज़ियादती के साथ आई है इस लिऐ हम मजबूर है कि पूरी रिवायत को दो बड़े तारीख़दानो (तिबरी और अबुउबैद क़ासिम बिन सलाम) की किताबो से लाकर उनका तरजुमा आपके सामने पेश करे।

 

 

 

रिवायत का तरजुमा

 

 

अब्दुर रहमान बिन औफ़ कहता हैः मै अबुबकर की तबीअत पूछने गया (उस बीमारी के वक़्त कि जिसमे उन्होने इंतेक़ाल किया) मैने उन्हे सलाम किया और तबीअत पूछी (मुझे देखकर) वो उठकर बैठ गये

मैने कहा अलहम्दो लिल्लाह आप बेहतर हो गये। उन्होने कहाः क्या तुम मुझे बेहतर समझते हो? मैने कहाः जी फिर उन्होने कहाः तब भी मैं बीमार हुँ फिर कहाः मैने अपनी नज़र मे तुम मे से सबसे बेहतर को खिलाफत के लिऐ अपना जानशीन बनाया है और इसकी वजह से तुम सब के दिमाग़ो मे खुराफात पैदा होगी इस उम्मीद मे कि (काश) उसकी जगह तुम्हे ये क़ुदरत हासिल होती और तुम देखोगे कि (किस तरह) दुनिया तुम्हारी तरफ रूख़ करेगी चाहे अब न किया हो लेकिन जल्द ही तुम इसकी तरफ माएल हो जाओगे और जल्द ही तुम्हारे घर रेशमी परदो और नर्म तकीयो से आरास्ता होंगे। सादे गद्दे पर सोना तुम्हारे लिऐ इस तरह दुश्वार होगा जैसे कि तुम कांटो के बिस्तर पर सो रहे हो। खुदा की क़सम अगर बेगुनाह तुम्हे क़त्ल कर दिया जाए तो ये इससे से बेहतर है कि तुम दुनिया की लज़्ज़तो मे डूब जाओ। आने वाले ज़माने मे तुम उन अफराद मे सबसे पहले होंगे कि जो लोगो को गुमराह करेंगे और उन्हे सीधे रास्ते से उल्टी तरफ को दौड़ाऐंगे।

 

(और फिर अबुबकर ने सहाबा के हाल पर एक मिसाल दी) ऐ रहनुमा तुम खुद अंधेरो मे खो गऐ थोड़ा सब्र करो कि सुबह होने वाली है।

 

फिर अब्दुर रहमान कहता है कि ज़्यादा परेशान मत हो कि तुम्हारा हाल और खराब हो जाऐगा। तुम्हारे (खिलाफत मे जानशीन मुक़र्रर करने के) इरादे के बारे मे लोग दो हालतो से खाली नही हैं या तुम्हारे मुवाफिक़ है या मुखालिफ है जो मुवाफिक़ है वो तुम्हारे साथ है और जो तुम्हारे मुखालिफ है वो तुम्हे मशवरा देंगे। और जिसको तुमने अपने बाद ख़लीफा मुक़र्रर किया है ऐसा ही है कि जैसा तुम चाहते हो और हमने भी तुमसे खैर के अलावा कुछ नही देखा, इस दुनिया की किसी चीज़ के लिऐ ग़मजदा न हो खुदा की क़सम तुम हमेशा नेक और अच्छे कामो की हिदायत करने वाले रहे।

 

अबुबकर कहने लगेः हाँ मुझे इस दुनिया की किसी चीज़ का अफसोस नही है सिवाऐ तीन कामो के, कि जिन्हे मैने अंजाम दिया और बेहतर होता कि उन्हे अंजाम न देता और तीन कामो के, कि जिन्हे मैने अंजाम नही दिया और बेहतर होता कि उन्हे अंजाम देता और तीन सवालो के, कि चाहता था कि रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) से उन्हे मालूम कर लेता।

 

और वो तीन काम कि जिन्हे मैने अंजाम दिया और चाहता था कि अंजाम न दुँ, चाहता था कि दरे फातेमा ज़हरा को किसी भी हाल मे न खुलवाता चाहे वो मुझ से जंग की नियत से ही क्यो न बंद किया गया होता और चाहता था कि फुजाआ सलमा1 को आग मे न जलाता या उसे क़त्ल कर देता या माफ कर देता और सक़ीफा बनी साएदा के दिन चाहता था कि ख़िलाफत को इन दोनो (उमर या अबुउबैदा) के गले मे डाल देता, वो अमीर होता और मैं वज़ीर।

 

और वो तीन काम कि जिन्हे मैने अंजाम नही दिया और चाहता था कि उन्हे अंजाम दूँ वो ये हैः मै चाहता था कि जब अशअस बिन कैस गिरफ्तार होकर मेरे पास लाया गया उसी रोज़ उसे क़त्ल कर दूँ क्यों कि मेरी नज़र मे वो जहा भी बुराई को देखेगा उसे मदद करेगा और चाहता था कि जिस दिन खालिद बिन वलीद को मुरतदीन की तरफ भेजा खुद ज़ुलक़िस्सा मे रूक जाता अगर मुसलमान जीत जाते कि जीत ही गये और अगर हार जाते तो उनकी मदद को जाता या उनके लिऐ मदद भेजता और चाहता था कि जिस दिन खालिद बिन वलीद को शाम भेजा उमर को इराक़ भेज देता और अपने दोनो हाथो को खुदा की राह मे खोल देता।

 

और वो तीन सवाल कि जिन्हे रसूल अल्लाह से पूछना चाहता था वो ये है चाहता था कि रसूल अल्लाह से सवाल करुं कि उनका जानशीन कौन है ताकि कोई इस बारे मे झगड़ा न करे और चाहता था कि मालूम कर चुका होता कि क्या खिलाफत मे अंसार का भी कोई हक़ है और चाहता था कि विरासत मे फूफी और भानजी का हक़ मालूम कर चुका होता, इस के बारे मे मुझे शक है।

 

इस रिवायत के अलग अलग जुमलो के नतीजे

 

''चाहता था कि दरे फातेमा ज़हरा को किसी भी हाल मे न खुलवाता चाहे वो मुझ से जंग की नियत से ही क्यो न बंद किया गया होता''  का नतीजा

 

1.   इस बात का इकरार कि अबूबकर ने जनाबे फातिमा ज़हरा (स.अ) के घर पर हमला किया और उनके घर की हुरमत को पामाल किया और घर के दरवाज़े को जनाबे फातेमा (स.अ) की इजाज़त के बग़ैर खोला।

2.   इस बात का इकरार की जनाबे फातिमा ज़हरा (स.अ) और मौला अली (अ.स) अबुबकर से नाराज़ थे। 

 

 

''क्या खिलाफत मे अंसार का भी कोई हक़ है'' का नतीजा

 

1.   इस बात का ऐतराफ की जो हदीस अबुबकर ने सकीफा मे अंसार पर ग़लबा पाने के लिए बयान की थी जो यह (आइम्मा कुरैश मे से होंगे) गलत है इस हदीस को सिर्फ अबुबकर ने नकल किया है और किसी ने इस हदीस को रसूल अल्लाह से निस्बत नही दी है। अबुबकर ने यह कह कर कि क्या अंसार का भी खिलाफत मे कोई हक़ है अपनी बयान की हुई हदीस (आइम्मा कुरैश मे से होंगे) के जाली और नकली होने का खुद इकरार किया है।

 

 

2.   इस जुमले से अबुबकर ने अपनी खिलाफत और हकुमत के गलत होने का ऐतराफ किया है और इस जुमले से मालूम होता कि वो अपनी खिलाफत, जानशीनी और हक़्क़ानियत मे शक रखता था इस बिना पर रसूले खुदा (स.अ.व.व.) के खलीफा बनने के अपने अमल के ग़लत होने का खुद इकरार किया और अंसार के हक़ मे ज़ुल्म करने औऱ उन्हे उनके हक़ से दूर करने का इकरार किया है।     

 

 

''आपके बाद खिलाफत किसका हक़ है''  का नतीजा

 

 

1.   अबुबकर का अपनी खिलाफत, हुकुमत के सही होने पर शक और खुद अपने और अपने साथीयो के आमाल के सही होने पर शक

2.   इस बात का इकरार (आइम्मा कुरैश मे से होंगे) गलत है और अबुबकर ने एक झूठ की निस्बत रसूले खुदा से दी थी और उसके खलिफा बनने पर कोई हदीस मौजूद नही है।

3.   अपनी हुकुमत के गलत होने और अपने जानशीन और साथीयो के आमाल के गलत होने का इकरार

4.   खिलाफत के हकदार से झगड़े और उसके हक को जिहालत और नफ्सपरस्ती की वजह से छीनने का इक़रार

5.   खिलाफत के हकदार पर ज़ुल्म और उसका हक़ छीनने का इक़रार

6.   इस बात का इकरार कि उसे रसूले खुदा ने खलीफा नही बनाया था और अबुबकर के पैरोकारो की बनाई गई वो तमाम हदीसे कि जो उसके रसूले खुदा के जानशीन बनाने के बारे मे है, नकली और जाली है।

 

 

 

1.  फुजाआ सलमाः एक आदमी का नाम था कि जिसने पैग़म्बरी का दावा किया था।

 

 [[ये आरटीकल डाँ. अल्लाहो अकबरी (सदस्य इतिहास विभाग, इमाम खुमैनी युनिवर्सिटी क़ुम ईरान) के फारसी आरटीकल ''हदीसे पशेमानी'' से लिया गया है ]]

 

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Mesam Naqvi

امام على علیه السلام

    مَا أَضْمَرَ أَحَدٌ شَیْئاً إِلَّا ظَهَرَ فِی فَلَتَاتِ لِسَانِهِ وَ صَفَحَاتِ وَجْهِه‏

1. इमाम अली (अ.स.)
जो शख्स भी कोई चीज़ अपने दिल मे छुपाने की कोशिश करता है तो उसके दिल की बात उसकी जबानी ग़लतीयो और चेहरे से मालूम हो जाती है।
(नहजुल बलाग़ा, हदीस न. 25)
 

   رسول اکرم صلى الله علیه و آله
    مَنْ کانَ یُؤْمِنُ بِاللَّهِ وَ الْیَوْمِ الْآخِرِ فَلْیَقُلْ خَیْراً أَوْ لِیَسْکُتْ.
 

2. रसूले अकरम (स.अ)
जो कोई भी खुदा और आखेरत पर ईमान रखता हो उसे चाहिये कि सिर्फ अच्छी बात बोले या खामोश रहे।
(उसूले काफी, जिल्द 2 पेज न. 667)
 

 امام باقر علیه السلام
    إِنَّ هذَا اللِّسانَ مِفتاحُ کُلِّ خَیرٍ و شَرٍّ فَیَنبَغى لِلمُؤمِنِ أَن یَختِمَ عَلى لِسانِهِ کَما یَختِمُ عَلى ذَهَبِهِ وَ فِضَّتِهِ

3.  इमाम बाक़िर (अ.स)
बेशक जबान हर अच्छाई और बुराई की चाबी है पस मोमीन के लिऐ ज़रूरी है कि अपनी जबान की निगरानी करे जैसे अपने सोने और चांदी की निगरानी करता है।
(तोहफुल उक़ूल, पेज न. 298)


    امام سجاد علیه السلام
    حَقُّ اللِّسَانِ إِکْرَامُهُ عَنِ الْخَنَى وَ تَعْوِیدُهُ الْخَیْرَ وَ تَرْکُ الْفُضُولِ الَّتِی لَا فَائِدَةَ

 

4. इमाम सज्जाद (अ.स)
जबान का हक ये है कि इसे बुरी बातो के कहने से दूर रखो और इसे अच्छी बातो की आदत डालो और उन बातो क छोड़ दो कि जिन का कोई फायदा नही है।
(मकारिमुल अखलाक़, पेज न. 419)
 


 امام على علیه السلام
    اَللِّسانُ سَبُعٌ إِن خُلِّىَ عَنهُ عَقَرَ.

5. इमाम अली (अ.स)
ज़बान एक दरिन्दा है, ज़रा आजाद कर दिया जाए को काट खाएगा।
(नहजुल बलाग़ा, हदीस न. 59)
    

امام على علیه السلام
    اِحبِس لِسانَکَ قَبلَ أَن یُطیلَ حَبسَکَ وَ یُردىَ نَفسَکَ فَلا شَىءَ أَولى بِطولِ سَجنٍ مِن لِسانٍ یَعدِلُ عَنِ الصَّوابِ و یَتَسَرَّعُ إِلَى الجَوابِ.

6. इमाम अली (अ.स)
अपनी जबान को कैद कर दो इस से पहले की ये तुम्हे एक लम्बी क़ैद मे डाल दे क्योकि कोई चीज़ भी उस जबान से ज़्यादा कैद होने की हकदार नही है कि जो सही रास्ते को छोड़ दे और हमेशा जवाब देने को बेताब रहती है।
(गुरारुल हिकम, पेज न. 214, हदीस न. 4180)


رسول اکرم صلى الله علیه و آله
    یُعَذِّبُ اللَّهُ اللِّسَانَ بِعَذَابٍ لَا یُعَذِّبُ بِهِ شَیْئاً مِنَ الْجَوَارِحِ فَیَقُولُ أَیْ رَبِّ عَذَّبْتَنِی بِعَذَابٍ لَمْ تُعَذِّبْ بِهِ شَیْئاً فَیُقَالُ لَهُ خَرَجَتْ مِنْکَ کَلِمَةٌ فَبَلَغَتْ مَشَارِقَ الْأَرْضِ وَ مَغَارِبَهَا فَسُفِکَ بِهَا الدَّمُ الْحَرَامُ وَ انْتُهِبَ بِهَا الْمَالُ الْحَرَامُ وَ انْتُهِکَ بِهَا الْفَرْجُ الْحَرَامُ

7. रसूले अकरम (स.अ)
खुदा वंदे आलम जबान पर ऐसा अज़ाब नाज़िल करेगा कि जो बदन के किसी दूसरे हिस्से पर नाज़िल नही किया होगा तो जबान परवरदिगार से शिकवा करेगी कि बारे इलाहा। तूने (क्यो) मुझ पर ऐसा अज़ाब नाज़िल किया जो जो बदन के किसी दूसरे हिस्से पर नाज़िल नही किया तो अल्लाह उसे जवाब देगा कि तुझसे ऐसी बाते निकली है कि जो पूरब से पश्चिम तक फैल गई और उनकी वजह से (बहुत से) खूने नाहक़ बहे और बहुत से माल नाहक़ गारत हुऐ।
(उसूले काफी,  जिल्द 2, पेज न.115, हदीस न. 16)


  پیامبر صلى ‏الله ‏علیه ‏و ‏آله
     إِنَّ لِسَانَ الْمُؤْمِنِ وَرَاءَ قَلْبِهِ فَإِذَا أَرَادَ أَنْ یَتَکَلَّمَ بِشَیْ‏ءٍ یُدَبِّرُهُ بِقَلْبِهِ ثُمَّ أَمْضَاهُ بِلِسَانِهِ وَ إِنَّ لِسَانَ الْمُنَافِقِ أَمَامَ قَلْبِهِ فَإِذَا هَمَّ بِالشَّیْ‏ءِ أَمْضَاهُ بِلِسَانِهِ وَ لَمْ یَتَدَبَّرْهُ بِقَلْبِه‏

8. रसूले अकरम (स.अ)
मोमीन की जबान उसके दिल के पीछे है वो पहले सोचता है फिर बोलता है लेकिन मुनाफिक की जबान उसके दिल के आगे है जब भी बोलना चाहता है बोल देता है उसके बारे मे सोचता नही है।
(तंबीहुल खवातिर, जिल्द न. 1, पेज न. 106)


امام على علیه السلام
    وَرَعُ الْمُنَافِقِ لَا یَظْهَرُ إِلَّا عَلَى لِسَانِه‏

 9. इमाम अली (अ.स)
मुनाफिक़ की परहेज़गारी सिर्फ उसकी ज़बान से जाहिर होती है।
(गुरारुल हिकम, पेज न. 459, हदीस न. 10509)


   امام على علیه السلام
    عِلمُ المُنافِقِ فی لِسانِهِ وَ عِلمُ المُؤمِنِ فی عَمَلِهِ

10.  इमाम अली (अ.स)
मुनाफिक़ का इल्म उसकी ज़बान पर और मोमीन का इल्म उसके किरदार मे दिखाई देता है।


امام على علیه‏ السلام
     عَوِّدْ لِسَانَکَ لِینَ الْکَلَامِ وَ بَذْلَ السَّلَامِ یَکْثُرْ مُحِبُّوکَ وَ یَقِلَّ مُبْغِضُوک

11. इमाम अली (अ.स)
अपनी ज़बान को मीठी बातो और सलाम करने की आदत डालो ताकि तुम्हारे दोस्त ज़्यादा और दुश्मन कम हो।
(गुरारुल हिकम, पेज न. 435, हदीस न. 9946)


 پیامبر صلی الله علیه و آله
 مَن دَفَعَ غَضَبَهُ دَفَعَ اللّه‏ُ عَنهُ عَذابَهُ وَ مَن حَفِظَ لِسانَهُ سَتَرَ اللّه‏ُ عَورَتَهُ

12. रसूले अकरम (स.अ)
जो अपने गुस्से को कंट्रोल कर लेता है खुदा उससे अजाब को हटा लेता है और जो अपनी ज़बान को कंट्रोल कर लेता है खुदा उसके ऐबो को छुपा लेता है।
(नहजुल फसाहा, पेज न. 767, हदीस न. 3004)


  امام باقر علیه‏ السلام
    لا یَسلَمُ أحَدٌ مِنَ الذُّنوبِ حَتَّی یَخزُنَ لِسانَهُ

13.  इमाम बाक़िर (अ.स)
जब तक इंसान अपनी ज़बान पर कंट्रोल नही कर लेता, गुनाहो से नही बच सकता।
(तोहफुल उक़ूल, पेज न. 298)
  


 امام صادق علیه‏ السلام
     إِنَّ أَبْغَضَ خَلْقِ اللَّهِ عَبْدٌ اتَّقَى النَّاسُ لِسَانَه‏

14.  इमाम सादिक़ (अ.स)
बेशक खुदा वंदे आलम उस बंदे से सबसे ज़्यादा नफरत करता है जिसके ज़बान के शर से लोग उससे बचते हो।
(उसूले काफी,  जिल्द 2, पेज न. 323)


   امام علی علیه‏ السلام
     لا تَقُل ما لا تُحِبُّ أن یُقالَ لَکَ

15. इमाम अली (अ.स)
किसी को ऐसी बात मत कहो कि जो तुम अपने बारे मे सुनना नही चाहते।
(तोहफुल उक़ूल, पेज न. 74)

 

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नाम व अलक़ाब (उपाधियाँ)

हज़रत इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम का नाम अली व आपकी मुख्य उपाधियाँ हादी व नक़ी हैं।

माता पिता

आपके पिता हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत समाना थीं।

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 212 हिजरी क़मरी मे ज़िल- हिज्जाह मास की (15) वी तिथि को पवित्र शहर मदीने मे हुआ था।

इमामत

जब वर्ष २२० में उनके पिता इमाम जवाद अलैहिस्सलाम की शहादत हुई तो इमामत अर्थात ईश्वरीय मार्गदर्शन जैसे महान कार्य का दायित्व उनके कांधों पर आ गया।

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के कथन

१. ख़ुदपसन्दी इन्सान की बदबख़्ती और हलाकत का सबब है।

२. जो शख़्स नेमाते इलाही (ईश्वरीय ईनाम) का शुक्रगुज़ार करता है उस पर नेमाते इलाही का इज़ाफ़ होता (बढ़ जाता) है।

३. मैं तुम लोगों को वसियत करता हूँ के हमेशा रास्त गो रहना अहद को वफ़ा करना अमानत (धरोहर) को अदा करना और यतीमों ( जिसका पिता न हो) की सरपरस्ती करना।

४. नेक काम मर्गे मफ़ाजात से बचाते हैं।

५. दूसरो के अमवाल (माल का बहु वचन) में लालच न करो ताकि लोग तुम्हें पसन्द करें।

६. नादानी से ज़्यादा कोई फ़ख़्र नहीं और अक़्ल (बुध्दि) से ज़्यादा फ़ायदा रसाँ (लाभ पहुँचाने वाला) कोई माल नहीं।

७. अल्लाह से डरो ताकि दूसरों से भी अमान (सुरक्षा) में रहो।

८. तीन चीज़ें मोहब्बत पैदा करती हैं- 1.मुआशेरत (समाज) में इन्साफ़ ,2.सख़्तियों में हमदर्दी और 3.खुले दिल से लोगों से मोहब्बत ।

९. ख़्वाहिशे नफ़्स (आत्म इच्छा) पर क़ाबू पा लेना दीनदारी की अलामत (चिन्ह) है।

१०. दो रूई (दोहरी बातें) और चुग़लख़ोरी से परहेज़ करो क्योंकि उसी से लोगों के दिलों में किना (द्वेष) पैदा होता है और तुम्हारी शख़्सियत (व्यक्तित्व) घटती जाती है।

११. कभी भी अपने बरादरे दीनि से इन्तेक़ाम (बदला) लेने की कोशिश (प्रयास) न करो अगरचे उसने बदी की हो।

१२. जो शख़्स (मनुष्य) सिर्फ़ अपनी अक़्ल पर भरोसा करे और मशविरा (परामर्श) न करे उससे लग़्ज़िश (त्रुटि) हो सकती है।

१३. जो सच्चा मुसलमान हो परहेज़गार (बुराई से बचने वाला) रहेगा।

१४. ख़ुदा की रहमत है उस पर जिसे जब नेक काम की दावत दी जाये तो क़बूल (स्वीकार) कर ले।

१५. जब तुम से कोई मशविरा (राय) करे तो उसे सही रहनुमाई (उचित मार्गदर्शन) करो।

१६. बेहतरीन सदक़ा यह है कि जो दोस्त जुदाई (प्रथकता) का शिकार हो गये हैं उनमें इस्लाह (शुध्दि) कर दो।

१७. अक़्लमन्दों (बुध्दिमानों) से रहनुमाई हासिल करो और उनके मशविरे से सरताबी न करो वरना पशेमान होना पड़ेगा।

१८. लोगों से इज़्हारे मोहब्बत (प्रेम प्रकट) करो ताकि तुमको भी दोस्त रखें।

१९. क्या कहना उस शख़्स का जो अक़्लमन्दों और दानिशमन्दों (बुध्दिमानों) का हमनशीं (साथी) है।

२०. जो ज़माने से तजुर्बा हासिल करता है वह दुनिया वालों के फ़रेब (धोके) में नहीं आता।

२१. ख़ुशख़ल्की (अच्छा तरीक़ा) और कुशादा रूई (सत्य व्यवहार) दोस्ती का बायस (कारण) और मोहब्बत हासिल करने का ज़रिया है।

२२. जो चीज़ें यहाँ हलाल ज़रिये से हासिल की गईं उसका भी वहाँ हिसाब होगा।

२३. हर चीज़ का एक सुतून (खम्भा) होता है दीन का सुतून इल्म व दानिश (बुध्दि) है।

२४. जो शख़्स ख़ुदपसन्दी और ख़ुदखाँ (अपनी प्रशंसा चाहने वाला) होता है उस पर ग़ुस्सा करने वाले भी ज़्यादा होगें।

२५. छुप कर गुनाह करने से डरो क्योंकि उस वक़्त का देखने वाला ही फ़ैसला करने वाला है।

२६. दूर अन्देश वह है जो फ़ुज़ूल ख़र्ची से बचे और इसराफ़ (दुरूपयोग) से दूर रहे।

२७. जिसके पास अमानत हो वह उसके मालिक तक पहुँचायें।

२८. इलाही नेमात पर ग़ौर करना एक अच्छी इबादत है।

२९. सख़ावत मोहब्बत पैदा करती है और अख़लाक (शिष्टाचार) इन्सान को भी आरास्ता करती है।

३०. कीना परवरी (मन में शत्रुता) पस्ती की अलामत है और इन्सान की अज़मत (बड़ापन) कम करती है।

३१. औलाद जब अपने माँ बाप को मोहब्बत की नज़रों से देखे तो यह इबादत है।

३२. इज़्ज़त के बाद ज़िल्लत उतनी सख़्त है जितना इक़्तेदार मसर्रत आवर।

३३. गुनाहगारों (पापियों) के लिये तौबा (प्रायश्चित) कर लो।

३४. जिसकी निगाहें दूसरे के माल की तरफ़ होती हैं उसका ग़म ज़्यादा और अफ़सोस फ़रावां रहता है।

३५. जब दो मुसलमान आपस में मुलाक़ात करके मुसाफ़ेहा (हाथ मिलाना) करते हैं तो उनके गुनाह ख़ुश्क पत्तों की तरह गिरते है।

३६. हमेशा दूसरोंक की कामयाबी (सफ़लता) और आक़बत ब-ख़ैर होने की दुआ करो ताकि वह चीज़ें तुम अपने में पाओ।

३७. मेज़ाह (मज़ाक़) वेक़ार (सम्मान) व हैयबत को कम कर देता है जबकि सुकूत (ख़ामोशी) वेक़ार (सम्मान) में इज़ाफ़े (बढ़ाने) का बायस (कारण) है।

३८. जवानों में से जो क़ुदरत रखता हो अज़्दवाज (विवाह) करे क्योंकि अज़्दवाज पाकदामनी का मोजिब (कारण) है।

३९. मालियात (माल का बहु वचन) के ज़मन में हमेशा अपने से नीचे लोगों से मवाज़ना (मुक़ाबला) करो न के बलन्द लोगों से।

४०. आख़ेरत (परलोक) का महसूल अमले सालेह (अच्छा कार्य) हैं और दुनिया का महसूल माल व औलाद।

शहादत (स्वर्गवास)

तत्कालीन अब्बासी शासक मोतज़ के आदेश पर एक षडयंत्र के अन्तर्गत ३ रजब २५४ हिजरी क़मरी को इमाम को शहीद कर दिया गया। इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की शहादत के समाचार ने अत्याचारग्रस्त जनता को बहुत दुखी किया।

उनकी शहादत का समाचार मिलते ही बड़ी संख्या में लोग उनके घर पर एकत्रित हुए और पूरा नगर उनकी शहादत के शोक में डूब गया।

समाधि

हज़रत इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम की समाधि बग़दाद के समीप सामर्रा नामक स्थान पर है। जहाँ लाखो श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन कर आपको सलाम करते हैं।

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद।।

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Mesam Naqvi


नाम व अलक़ाब

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का नाम हज़रत पैगम्बर(स.) के नाम पर है। तथा आपकी मुख्य़ उपाधियाँ महदी मऊद ,इमामे अस्र ,साहिबुज़्ज़मान ,बक़ियातुल्लाह व क़ाइम हैं।

जन्म व जन्म स्थान

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 255हिजरी क़मरी मे शाबान मास की 15वी तिथि को सामर्रा नामक स्थान पर हुआ था। यह शहर वर्तमान समय मे इराक़ देश की राजधानी बग़दाद के पास स्थित है।

माता पिता

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम अस्करी अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत नरजिस खातून हैं।

पालन पोषण

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का पालन पोषण 5वर्ष की आयु तक आपके पिता की देख रेख मे हुआ। तथा इस आयु सीमा तक आप को सब लोगों से छुपा कर रखा गया। केवल मुख्य विश्वसनीय मित्रों को ही आप से परिचित कराया गया था।

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की इमामत

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की इमामत का समय सन् 260 हिजरी क़मरी से आरम्भ होता है। और इस समय आपकी आयु केवल 5वर्ष थी। हज़रत इमाम अस्करी अलैहिस्सलाम ने अपनी शहादत से कुछ दिन पहले एक सभा मे जिसमे आपके चालीस विश्वसनीय मित्र उपस्थित थे ,कहा कि मेरी शहादत के बाद वह (हज़रत महदी) आपके खलीफ़ा हैं। वह क़ियाम करने वाले हैं तथा संसार उनका इनतेज़ार करेगा। जबकि पृथ्वी पर चारों ओर अत्याचार व्याप्त होगा वह उस समय कियाम करेंगें व समस्त संसार को न्याय व शांति प्रदान करेंगें।

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की ग़ैबत(परोक्ष हो जाना)

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की ग़ैबत दो भागों मे विभाजित है।

(1)ग़ैबते सुग़रा

अर्थात कम समय की ग़ैबत यह ग़ैबत सन् 260 हिजरी क़मरी मे आरम्भ हुई और329 हिजरी मे समाप्त हुई। इस ग़ैबत की समय सीमा मे इमाम केवल मुख्य व्यक्तियों से भेंट करते थे।

(2)ग़ैबत कुबरा

अर्थात दीर्घ समय की ग़ैबत यह ग़ैबत सन् 329 हिजरी मे आरम्भ हुई व जब तक अल्लाह चाहेगा यह ग़ैबत चलती रहेगी। जब अल्लाह का आदेश होगा उस समय आप ज़ाहिर(प्रत्यक्ष) होंगे वह संसार मे न्याय व शांति स्थापित करेंगें।

नुव्वाबे अरबा

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम ने अपनी 69 वर्षीय ग़ैबते सुग़रा के समय मे आम जनता से सम्बन्ध स्थापित करने लिए बारी बारी चार व्यक्तियों को अपना प्रतिनिधि बनाया। यह प्रतिनिधि इमाम व जनता की मध्यस्था करते थे। यह प्रतिनिधि जनता के प्रश्नो को इमाम तक पहुँचाते व इमाम से उत्तर प्राप्त करके उनको जनता को वापस करते थे। इन चारों प्रतिनिधियो को इतिहास मे “नुव्वाबे अरबा ” कहा जाता है। यह चारों क्रमशः इस प्रकार हैं।

(1)उस्मान पुत्र सईद ऊमरी यह पाँच वर्षों तक इमाम की सेवा मे रहे।

(2)मुहम्मद पुत्र उस्मान ऊमरी यह चालीस वर्ष तक इमाम की सेवा मे रहे।

(3)हुसैन पुत्र रूह नो बखती यह इक्कीस वर्षों तक इमाम की सेवा मे रहे।

(4)अली पुत्र मुहम्मद समरी यह तीन वर्षों तक इमाम की सेवा मे रहे। इसके बाद से ग़ैबते सुग़रा समाप्त हो गई व इमाम ग़ैबते कुबरा मे चले गये।

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम सुन्नी विद्वानों की दृष्टि मे

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम मे केवल शिया सम्प्रदाय ही आस्था नही रखता है। अपितु सुन्नी सम्प्रदाय के विद्वान भी हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम को स्वीकार करते है। परन्तु हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के सम्बन्ध मे उनके विचारों मे विभिन्नता पाई जाती है। कुछ विद्वानो का विचार यह है कि हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम अभी पैदा नही हुए है व कुछ विद्वानो का विचार है कि वह पैदा हो चुके हैं और ग़ैबत मे(परोक्ष रूप से) जीवन यापन कर रहे हैं।

सुन्नी सम्प्रदाय के विभिन्न विद्वान अपने मतों को इस प्रकार प्रकट करते है।

(1)शबरावी शाफ़ाई अपनी किताब अल इत्तेहाफ़ मे इस प्रकार लिखते हैं कि शिया महदी मऊद के बारे मे विश्वास रखते हैं वह (हज़रत इमाम) हसन अस्करी के पुत्र हैं और अन्तिम समय मे प्रकट होगे। उनके सम्बन्ध मे सही हादीसे मिलती है। परन्तु सही यह है कि वह अभी पैदा नही हुए हैं और भविषय मे पैदा होगें तथा वह अहलेबैत मे से होंगें।

(2)इब्ने अबिल हदीद मोताज़ली शरहे नहजुल बलाग़ा मे इस प्रकार लिखते हैं कि अधिकतर मोहद्देसीन का विश्वास है कि महदी मऊद हज़रत फ़ातिमा के वंश से हैं।मोतेज़ला समप्रदाय के बुज़ुरगों ने उनको स्वीकार किया है तथा अपनी किताबों मे उनके नाम की व्याख्या की है। परन्तु हमारा विश्वास यह है कि वह अभी पैदा नही हुए हैं और बाद मे पैदा होंगें।

(3)इज़्ज़ुद्दीन पुत्र असीर 260 हिजरी क़मरी की घटनाओ का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि अबु मुहम्मदअस्करी (इमामे अस्करी) 232 हिजरी क़मरी मे पैदा हुए और 260 हिजरी क़मरी मे स्वर्गवासी हुए। वह मुहम्मद के पिता हैं जिनको शिया मुनतज़र कहते हैं।

(4)इमादुद्दीन अबुल फ़िदा इस्माईल पुत्र नूरूद्दीन शाफ़ई कहते है इमाम हादी का सन् 254 हिजरी क़मरी मे स्वर्गवास हुआ। वह इमाम हसन अस्करी के पिता थे। इमाम अस्करी बारह इमामों मे से ग्यारहवे इमाम हैं वह उन इमामे मुन्तज़र के पिता हैं जो 255 हिजरी क़मरी मे पैदा हुए।

(5)इब्ने हजरे हीतमी मक्की शाफ़ई अपनी किताब अस्सवाइक़ुल मोहर्रेक़ाह मे लिखते हैं कि इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम सामर्रा मे स्वर्गवासी हुए उनकी आयु 28 वर्ष थी। कहा जाता है कि उनको विष दिया गया। उन्होने केवल एक पुत्र छोड़ा जिनको अबुलक़ासिम मुहम्मद व हुज्जत कहा जाता है। पिता के स्वर्ग वास के समय उनकी आयु पाँच वर्ष थी । लेकिन अल्लाह ने उनको इस अल्पायु मे ही इमामत प्रदान की वह क़ाइमे मुन्तज़र कहलाये जाते हैं।

(6)नूरूद्दीन अली पुत्र मुहम्मद पुत्र सब्बाग़ मालकी अपनी किताब मे लिखते है कि इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम की इमामत दो वर्ष दो वर्ष थी ।उन्होने अपने बाद हुज्जत क़ाइम नामक एक बेटे को छोड़ा। जिनका सत्य पर आधारित शासन की स्थापना के लिए इंतिज़ार( प्रतीक्षा) किया जायेगा। उनके पिता ने लोगों से गुप्त रख कर उनका पालन पोषण किया। तथा ऐसा अब्बासी शासक के अत्याचार से बचने के लिए किया गया था। ,,

(7)अबुल अब्बास अहम पुत्र यूसुफ़ दमिश्क़ी क़रमानी अपनी किताब अखबारूद्दुवल वा आसारूल उवल की ग्यारहवी फ़स्ल मे लिखते हैं कि खलफ़े सालेह इमाम अबुल क़ासिम मुहम्मद इमाम अस्करी के बेटे हैं। जिनकी आयु उनके पिता के स्वर्गवास के समय केवल पाँच वर्ष थी। परन्तु अल्लाह ने उनको हज़रत याहिय की तरह बचपन मे ही हिकमत प्रदान की। वह मध्य क़द सुन्दर बाल सुन्दर नाक व चोड़े माथे वाले हैं।

इस से ज्ञात होता है कि इस सुन्नी विद्वान को हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के जन्म पर पूर्ण विश्वास था यहाँ तक कि उन्होने आपके शारीरिक विवरण का भी उल्लेख किया है। और खलफ़े सालेह की उपाधि के साथ उनका वर्णन किया है।

(8)हाफ़िज़ अबु अब्दुल्लाह मुहम्मद पुत्र य़ूसुफ़ कन्जी शाफ़ई अपनी किताब किफ़ायातुत तालिब के अन्तिम भाग मे लिखते हैं कि इमाम अस्करी सन् 260 हिजरी मे रबी उल अव्वल मास की आठवी तिथि को स्वर्गवासी हुए व उन्होने एक पुत्र छोड़ा जो इमामे मुन्तज़र हैं। ,,

(9)ख़वाजा पारसा हनफ़ी अपनी किताब फ़ज़लुल ख़िताब मे इस प्रकार लिखते हैं कि “अबु मुहम्द हसन अस्करी ने अबुल क़ासिम मुहम्मद मुँतज़र नामक केवल एक बेटे को अपने बाद इस संसार मे छोड़ा जो हुज्जत क़ाइम व साहिबुज़्ज़मान से प्रसिद्ध हैं। वह 255 हिजरी क़मरी मे शाबान मास की 15 वी तिथि को पैदा हुए व उनकी माता नरजिस थीं। ,,

(10)इब्ने तलहा कमालुद्दीन शाफ़ई अपनी किताब मतालिबुस्सऊल फ़ी मनाक़िबिर रसूल मे लिखते हैं कि “अबु मुहम्मद अस्करी के मनाक़िब (स्तुति या प्रशंसा) के बारे इतना कहना ही अधिक है कि अल्लाह ने उनको महदी मऊद का पिता बनाकर सबसे बड़ी श्रेष्ठता प्रदान की हैं। वह आगे लिखते हैं कि महदी मऊद का नाम मुहम्मद व उनकी माता का नाम सैक़ल है। महदी मऊद की अन्य उपाधियाँ हुज्जत खलफ़े सालेह व मुँतज़र हैं। ,,

(11)शम्सुद्दीन अबुल मुज़फ़्फ़र सिब्ते इब्ने जोज़ी अपनी प्रसिद्ध किताब तज़किरातुल ख़वास मे लिखते हैं “कि मुहम्मद पुत्र हसन पुत्र अली पुत्र मुहम्मद पुत्र अली पुत्र मूसा पुत्र जाअफ़र पुत्र मुहम्मद पुत्र अली पुत्र हुसैन पुत्र अली इब्ने अबी तालिब की कुन्नियत अबुल क़ासिम व अबु अबदुल्लाह है। वह खलफ़े सालेह ,हुज्जत ,साहिबुज्जमान ,क़ाइम ,मुन्तज़र व अन्तिम इमाम हैं।अब्दुल अज़ीज़ पुत्र महमूद पुत्र बज़्ज़ाज़ ने हमको सूचना दी है कि इब्ने उमर ने कहा कि हज़रत पैगम्बर ने कहा कि अन्तिम समय मे मेरे वंश से एक पुरूष आयेगा जिसका नाम मेरे नाम के समान होगा व उसकी कुन्नियत मेरी कुन्नियत के समान होगी। वह संसार से अत्याचार समाप्त करके न्याय व शाँति की स्थापना करेगा। यही वह महदी हैं। ,,

(12)अबदुल वहाब शेरानी शाफ़ई मिस्री अपनी प्रसिद्ध किताब अल यवाक़ीत वल जवाहिर मे हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के सम्बन्ध मे लिखते हैं कि वह इमाम हसन की संतान है उनका जन्म सन् 255 हिजरी क़मरी मे शाबान मास की 15वी तिथि को हुआ। वह ईसा पुत्र मरीयम से भेँट करेगें व जीवित रहेगें। हमारे समय (किताब लिखने का समय) मे कि अब 958 हिजरी क़मरी है उनकी आयु 706 वर्ष हो चुकी है।

हज़रत हुज्जत (अ.स.) के कथन

१. मेरा वुजूद (अस्तित्व) ग़ैबत में भी लोगों के लिए ऐसा ही मुफ़ीद (लाभकारी) है जैसे आफ़ताब (सूर्य) बादलों के ओट (पीछे) से।

२. मैं ही महदी हूँ मैं ही क़ायमे ज़माना हूँ।

३. मैं ज़मीन को अद्ल (न्याय) व इन्साफ़ से इस तरह भर दूँगा जिस तरह वह ज़ुल्म व जौरर से भर गई है।

४. जो चीज़ तुम्हारे लिये मुफ़िद (लाभकारी) न हो उसके लिये सवाल (प्रशन) मत करो।

५. ज़ुहूर (प्रकटता) में ताजील (शिघ्रता) के लिये दुआ (प्रथना) माँगों क्योंकि उसी में तुम्हारी भलाई है।

६. जो लोग हमारे अमवाल (अमल का बहु वचन) को मुशतबा और मख़लूत (मिलाये हुए) किये हुए हैं जो कोई भी उसमें से ज़र्रा बराबर बिला इस्तहक़ाक (बग़ैर हक़ के) खोयेगा गोया उसने आग से अपना शिकम पुर किया ( पेट भर लिया) ।

७. मैं अहले ज़मीन (धरती पर रहने वालों) के लिये उसी तरह बायसे अमान (शान्ति का कारण) हूँ जिस तरह सितारे अहले आसमान (आसमान पर रहने वालों) के लिये।

८. हमारा इल्म तुम्हारे सारे हालात पर मोहीत (घेरे हुए) है और तुम्हारी कोई चीज़ हम से पोशीदा (छीपी) हुई नहीं।

९. हम तुम्हारी ख़बरगीरी (देखरेख) से ग़ाफ़िल (बेपरवाह) नहीं और न तुम्हारी याद को अपने दिल से निकाल सकते हैं।

१०. हर वह काम करो जो तुम्हें हम से नज़दीक (क़रीब) करे और हर उस अमल से परहेज़ करो (बचो) जो हमारे लिये बारे ख़ातिर और नाराज़गी का सबब हो।

११. तुममे से जो कोई तक़वा ए इलाही (ईशवर का भय) इख़्तेयार (अपनायेगा) करेगा और मुस्तहक़ (हक़दार) तक उसके हुक़ूक़ (हक़ का बहु वचन) पहुँचायेगा वह आने वाले फ़ित्नों (झगड़ों) से महफ़ूज़ रहेगा (बचा रहेगा) ।

१२. अगर हमारे चाहने वाले अपने अहद व पैमान की वफ़ा करते तो हमारी मुलाक़ात में ताख़ीर (देर) न होती और हमारी ज़ियारत उन्हें जल्द नसीब होती.

१३. हमें तुमसे कोई चीज़ दूर नहीं करती मगर वह जो हमें नागवार और नापसन्द है।

१४. हम तुम्हारे अमवाल (माल का बहु वचन ,यह ख़ुम्स की ओर इशारा है) को सिर्फ़ इसलिए क़ुबूल (स्वीकार) करते हैं के तुम पाक हो जाओ हमें जिसका जो चाहे अदा करे जो चाहे अदा न करे क्योंकि जो कुछ ख़ुदावन्दे आलम ने हमें अता फ़रमाया (दिया) है वह उससे बेहतर है जो तुम्हें दिया है।

१५. नमाज़ शैतान को रूसवा (निंदित) कर देती है। नमाज़ पढ़ो और शैतान को रूसवा करो।

१६. जो मेरा इन्कार करे वह मुझसे नहीं और उसका अन्जाम पिसरे नूह (नूह जो नबी थे उनका पुत्र) का अन्जाम है।

१७. मसाएल में हमारे रावियों की तरफ़ रूजु करो क्योंकि वह मेरी तरफ़ से तुम पर हुज्जत (तर्क ,दलील) हैं।

१८. ताज्जुब है उन लोगों की नमाज़ कैसे क़ुबूल होती है जो इन्ना अन्ज़ल्ना की तिलावत नहीं करते (नहीं पढ़ते)।

१९. नमाज़ के लिये जिन सूरतों के फ़ज़ाएल बयान किये गये हैं वह अपनी जगह पर अलबत्ता अगर कोई शख़्स सूरा ए इन्ना अन्ज़लना और सुरा ए क़ुल हो वल्लाह की तिलावत करे तो उसे इन सूरतों का सवाब भी मिलेगा और जिन सूरतों के बदले पढ़ेगा उसका भी।

२०. मलऊन है मलऊन है वह शख़्स जो नमाज़े मग़रिब में इतनी ताख़ीर (देर) करे के तारे ख़ूब खिल जायें।

२१. हमारे अलावा जिसने अपनी हक़्क़ानियत (सच्चाई) का दावा किया वह झूठा है।

२२. क्या लोग यह बात नहीं जानते के नबी (अ.स.) के बाद उनकी हिदायत (मार्ग दर्शन) के लिये आइम्मा (अ.स.) का इन्तेज़ाम (प्रबन्ध) किया गया है।

२३. यह लोग कैसे फ़ित्ने (झगड़े) में घिर गये हैं क्या उन्होंने अपने दीन को छोड़ दिया है।

२४. यह लोग हक़ से क्यों अनाद (दुश्मनी) रखते हैं क्या हक़ को पहचानने के बाद उसे भुला दिया है।

२५. क्या तुम नहीं जानते के ज़मीन कभी हुज्जते ख़ुदा (ईशवरीय तर्क ,दलील) से ख़ाली नहीं रहती।

२६. तमाम (सभी) लोग यह बात समझ लें के हक़ हमारे साथ है और हम में है।

२७. मैं रूए ज़मीन पर बक़िय्यतुल्लाह (ईशवरीय चिन्ह) हूँ और दुश्मनाने ख़ुदा (ईशवर के शत्रु) से इन्तेक़ाम (बदला) लूँगा।

२८. जो लोग मेरे ज़ुहूर (प्रकटता) के लिये वक़्त (समय) मोअय्यन (निर्धारित) करते हैं वह झूठे हैं.

२९. छींक का आना मौत से कम से कम 3दिन की ज़मानत है।

३०. मैं ख़ातिमुल औलिया हूँ और मेरे ज़रिये ख़ुदावन्दे आलम मेरे चाहने वालों को बलाओं से निजात (मुक्ति) देगा।

३१. ख़ुदावन्दे आलम ने यह दुनिया बेकार नहीं पैदा की है।

३२. ख़ुदावन्दे आलम ने जिन्हें हिदायत (निर्देश) का ज़रिया बनाया है उनको फ़ज़ीलत भी दी है।

३३. ख़ालिके कायनात (संसार को पैदा करने वाला) ने अपने औलिया (वली का बहु वचन) के ज़रिये दीन को ज़िन्दा किया।

३४. आइम्मा (अ.स.) को हर गुनाह (प्रत्येक पाप) से पाक और हर बुराई से दूर रखा है।

३५. औलिया इल्म के ख़ज़ाने और हिकमत (दानाई) का मअदन (खान) हैं।

३६. जो इमामत के झूठे दावेदार होंगे उनका नक़्स (कीना) बहुत जल्द मालूम हो जायेगा।

३७. जब हुक्मे ख़ुदा होगा हक़ ज़ाहिर होगा और बातिल मिट जायेगा।

३८. (दादी) फ़ातिमा ज़हरा (स 0)की ज़िन्दगी हमारे लिये नमूना है।

३९. ख़ुदा हम सब का वली (सहायक) है।

४०. जिसने हमारे नुमायन्दे को रद किया उसने गोया मुझे रद्द किया।

।।अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद व अज्जिल फ़राजहुम।।

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Mesam Naqvi
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Mesam Naqvi

رسول اکرم صلى الله علیه و آله
لا تَزالُ اُمَّتى بِخَیرٍ ما تَحابّوا وَ اَقامُوا الصَّلاةَ و َآتَوُا الزَکاةَ و َقَروا الضَّیفَ... ؛

1.    रसूले अकरम (स.अ.व.व)
हमेशा मेरे उम्मती खैरो बरकत को देखेंगे जब तक की एक दूसरे से मौहब्बत करते रहे, नमाज पढ़ते रहे, जकात देते रहे और मेहमान की इज़्ज़त करते रहे।
(अमाली शेख तूसी पेज न. 647 हदीस न. 1340)

 

رسول اکرم صلى الله علیه و آله 

الدّعاء مفتاح الرّحمة و الوضوء مفتاح الصّلاة و الصّلاة مفتاح الجنّة

2.    रसूले अकरम (स.अ.व.व)
दुआ रहमत की चाबी है। और वुज़ु नमाज़ की चाबी और नमाज़ जन्नत की चाबी है।
(नहजुल फसाहा पेज न. 485 हदीस न. 1588)

 

رسول اکرم صلى الله علیه و آله
 أَوَّلُ الْوَقْتِ رِضْوَانُ اللَّهِ وَ آخِرُهُ عَفْوُ اللَّه

3.    रसूले अकरम (स.अ.व.व)
अव्वले वक्त मे नमाज़ पढ़ना खुशनूदीऐ खुदा और आखिरे वक्त मे नमाज़ पढ़ना बखशिशे खुदा है।
(मनला यहज़रोहुल फक़ीह जिल्द 1 पेज न. 217 हदीस न. 651)

 

امام على علیه السلام
لَو یَعلَمُ المُصَلّى ما یَغشاهُ مِنَ الرَّحمَةِ لَما رَفَعَ رَأسَهُ مِنَ السُّجودِ

4.    इमाम अली (अ.स)
अगर नमाज़ पढ़ने वाला जान ले कि नमाज़ पढ़ते वक्त उस पर कितनी रहमते खुदा बरस रही है तो हरगिज़ सजदे से सर नही उठाऐगा।
(गुरारूल हिकम पेज न. 175 हदीस न.  3347)

 

امام على علیه السلام
اُنظُر فیما تُصَلّى و َعَلى ما تُصَلّى اِن لَم یَکُن مِن وَجهِهِ و َحِلِّهِ فَلا قَبولَ


5.    इमाम अली (अ.स)
देखो कि तुम किस लिबास मे और किस चीज़ पर नमाज़ पढ़ रहे हो अगर हलाल माल से खरीदे हुऐ नही है तो नमाज़ कुबुल नही होगी।
(तोहफुल उक़ूल पेज न.  174)

 

امام صادق علیه السلام
مَن قَبِلَ اللّه مِنهُ صَلاةً واحِدَةً لَم یُعَذِّبهُ و َمَن قَبِلَ مِنهُ حَسَنَهً لَم یُعَذِّبهُ

6.    इमाम सादिक़ (अ.स)
परवरदिगारे आलम जिस की एक नमाज़ को कुबुल कर लेगा या उसकी एक नेकी को कुबुल कर लेगा तो उसको कभी अज़ाब नही करेगा।
(उसूले काफी जिल्द न. 3 पेज न. 266 हदीस न.  11)

 

 امام صادق علیه السلام
یُعرَفُ مَن یَصِفُ الحَقَّ بِثَلاثِ خِصالٍ: یُنظَرُ اِلى اَصحابِهِ مَن هُم؟ و َاِلى صَلاتِهِ کَیفَ هىَ؟ و َفى اَىِّ وَقتٍ یُصَلّیها

7.    इमाम सादिक़ (अ.स)
जो शख्स भी अपनी हक्कानियत का दम भरता हो तो उसकी पहचान के तीन तरीक़े हैः
1.    देखो कि उसके दोस्त कैसे लोग है।
2.    उसकी नमाज़ कैसी है।
3.    और वो किस वक्त नमाज़ पढ़ता है।
(महासिन पेज न. 254 हदीस न. 281)

 

امام صادق علیه السلام
أَقرَبُ ما یَکُونُ العَبدُ إلَی اللهِ وَ هُوَ ساجِدٌ

8.    इमाम सादिक़ (अ.स)
बंदे को परवरदिगार के सबसे ज्यादा नजदीक कर देने वाली हालत, हालते सजदा है।
(उसूले काफी जिल्द 3 पेज न. 324 हदीस 11)

 

 امام صادق علیه السلام
أَثَافِیُّ الْإِسْلَامِ ثَلَاثَةٌ الصَّلَاةُ وَ الزَّکَاةُ وَ الْوَلَایَةُ لَا تَصِحُّ وَاحِدَةٌ مِنْهُنَّ إِلَّا بِصَاحِبَتَیْهَا
.

9.    इमाम सादिक़ (अ.स)
इस्लाम की बुनयाद तीन चीज़ो पर हैः
1)    नमाज़
2)    ज़कात
3)    और विलायत
और उनमे से कोई एक भी दूसरे के बग़ैर सही नही है।
(काफी जिल्द न. 2 पेज न. 18 हदीस न. 4)

 

 امام صادق علیه السلام
اِنَّ مِن تَمامِ الصَّومِ اِعطاءُ الزَّکاةِ یَعنى الفِطرَة کَما اَنَّ الصَّلَاةَ عَلَى النَّبِى (صلی الله علیه و آله و سلم) مِن تَمامِ الصَّلَاةِ

10.    इमाम सादिक़ (अ.स)
रोज़े की तकमील फितरा अदा करना है इसी तरह नमाज़ की तकमील नबी पर सलवात भेजना है।
(मनला यहज़रोहुल फक़ीह जिल्द 2 पेज न. 183 हदीस न. 2085)

 

امام کاظم علیه السلام
اَفضَلُ ما یَتَقَرَّبُ به العَبدُ اِلی اللهِ بَعدِ المَعرِفَةِ به، الصَلاةُ

11.    इमाम काज़िम (अ.स)
मारेफते खुदा के बाद अफज़लतरीन चीज़ के जो बंदे को खुदा के क़रीब करती है, नमाज़ है।
(तोहफुल उक़ूल पेज न. 391)

 

 امام علی علیه السلام
لِکُلِّ شَیءٍ وَجهٌ وَ وَجهُ دینِکم الصَّلاةُ؛

12.     इमाम अली (अ.स)
हर चीज का एक चेहरा है और तुम्हारे दीन का चेहरा नमाज़ है।
(उसूले काफी जिल्द न. 3 पेज न. 270 हदीस न. 16)

 

رسول اکرم صلى الله علیه و آله
لا یَنالُ شَفاعَتی مَن اَخَّرَ الصَّلاةَ بَعدَ وَقتِها

13.     रसूले अकरम (स.अ.व.व)
जो शख्स भी नमाज़ को उस वक्त के बाद पढ़ेगा उसे हमारी शफाअत नसीब नही होगी।
(बिहारूल अनवार जिल्द न. 80 पेज न. 20, हदीस न. 35)

 

امام علی علیه السلام
مَن صَلّی رَکعَتَینِ یَعلَمُ مایَقولُ فِیهما اِنصَرَفَ وَ لَیسَ بَینَه وَ بَینَ اللهِ - عَزَّ وَ جَلَّ - ذَنبٌ

14.     इमाम अली (अ.स)
जो शख्स भी दो रकअत नमाज़ इस हाल मे पढ़े कि जानता हो (और समझता हो) कि क्या कह रहा है। और इसी हाल मे नमाज़ को खत्म करे तो उसके और खुदा के दरमियान कोई गुनाह बाकि नही है।
(यानी उसके तमाम गुनाह जो खुदा से ताल्लुक़ रखते थे माफ कर दिये गऐ।)
(मकारिमुल अखलाक़ पेज न. 300)

 

امام صادق علیه السلام
لا یَنالُ شَفاعَتَنا مَن استَخَفَّ بِالصَّلاة

15.    इमाम सादिक़ (अ.स)
जिसने नमाज़ को हल्का समझा उसे हमारी शिफाअत नसीब नही होगी।
(उसूले काफी जिल्द 3 पेज न. 270, हदीस न. 15)

 

امام علی علیه السلام
الصَّلاةُ حِصنٌ مِن سَطَواتِ الشَّیطانِ

16.     इमाम अली (अ.स)
नमाज़ एक मज़बूत किला है कि जो बंदे को शैतान के हमलो से बचाता है।
(गुरारूल हिकम पेज. न. 175 हदीस न. 3343)

 

 حضرت زهرا سلام الله علیها
فَجَعلَ اللهُ الایمانَ تَطهیراً لَکم مِنَ الشِّرکِ ، وَ الصَّلاةَ تَنزیهاً لَکم عَن الکِبرِ

17.    जनाबे फातेमा ज़हरा (सलामुल्लाहे अलैहा)
खुदा वंदे आलम ने ईमान को शिर्क से पाकीज़गी और नमाज़ को तकब्बुर से दूर रखने के लिऐ करार दिया है।
(अहतेजाजे तबरसी जिल्द न. 1 पेज न. 99)

 

پیامبراکرم صلی الله علیه و آله
اَحَبُّ الاعمالِ اِلَی اللهِ الصَّلاةُ لِوَقتِها ثُمَّ بِرُّ الوالِدَین ثُمَّ الجِهادُ فی سَبیلِ اللهِ

18.     रसूले अकरम (स.अ.व.व)
खुदा वंदे आलम के नज़दीक सबसे महबूब तरीन अमल नमाज़ को उसके वक्त पर पढ़ना है उसके बाद माँ-बाप से नेकी करना और खुदा की राह मे जंग करना है।
(नहजुल फसाहा, पेज न. 167, हदीस न. 70)

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नाम व लक़ब (उपाधी)

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम का नाम अली व आपकी मुख्य उपाधि रिज़ा है।

 

माता पिता

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत नजमा थीं। आपकी माता को समाना, तुकतम, व ताहिराह भी कहा जाता था।

 

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 148 हिजरी क़मरी मे ज़ीक़ादाह मास की ग्यारहवी तिथि को पवित्र शहर मदीने मे हुआ था।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ज़माने के राजनीतिक हालात का वर्णन

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की इमामत वाला जीवन बीस साल का था जिसको हम तीन भागों में बांट सकते हैं।

1. पहले दस साल हारून के ज़माने में

 

2. दूसरे पाँच साल अमीन की ख़िलाफ़त के ज़माने में

 

3. आपकी इमामत के अन्तिम पाँच साल मामून की ख़िलाफ़त के साथ थे।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का कुछ जीवन हारून रशीद की ख़िलाफ़त के साथ था, इसी ज़माने में अपकी पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत हुई, इस ज़माने में हारून शहीद को बहुत अधिक भड़काया गया ताकि इमाम रज़ा को वह क़त्ल कर दे और अन्त में उसने आपको क़त्ल करने का मन बना लिया, लेकिन वह अपने जीवन में यह कार्य नहीं कर सका, हारून शरीद के निधन के बाद उसका बेटा अमीन ख़लीफ़ा हुआ, लेकिन चूँकि हारून की अभी अभी मौत हुई थी और अमीन स्वंय सदैव शराब और शबाब में लगा रहता था इसलिए हुकुमत अस्थिर हो गई थी और इसीलिए वह और सरकारी अमला इमाम पर अधिक ध्यान नहीं दे सका, इसी कारण हम यह कह सकते हैं कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन का यह दौर काफ़ी हद तक शांतिपूर्ण था।

लेकिन अन्तः मामून ने अपने भाई अमीन की हत्या कर दी और स्वंय ख़लीफ़ा बन बैठा और उसने विद्रोहियों का दमन करके इस्लामी देशों के कोने कोने में अपना अदेश चला दिया, उसने इराक़ की हुकूमत को अपने एक गवर्नर के हवाले की और स्वंय मर्व में आकर रहने लगा, और राजनीति में दक्ष फ़ज़्ल बिन सहल को अपना वज़ीर और सलाहकार बनाया।

लेकिन अलवी शिया उसकी हुकूमत के लिए एक बहुत बड़ा ख़तरा थे क्योंकि वह अहलेबैत के परिवार वालों को ख़िलाफ़त का वास्तविक हक़दार मसझते थे और, सालों यातना, हत्या पीड़ा सहने के बाद अब हुकूमत की कमज़ोरी के कारण इस स्थिति में थे कि वह हुकूमत के विरुद्ध उठ खड़े हों और अब्बासी हुकूमत का तख़्ता पलट दें और यह इसमें काफ़ी हद तक कामियाब भी रहे थे, और इसकी सबसे बड़ी दलील यह है कि जिस भी स्थान से अलवी विद्रोह करते थे वहां की जनता उनका साथ देती थी और वह भी हुकूमत के विरुद्ध उठ खड़ी होती थी।  और यह दिखा रहा था कि उस समय की जनता हुकूमत के अत्याचारों से कितनी त्रस्त थी।

और चूँकि मामून ने इस ख़तरे को भांप लिया था इसलिए उसने अलवियों के इस ख़तरे से निपटने के लिए और हुकूमत को कमज़ोर करने वालों कारणों से निपटने के लिये कदम उठाने का संकल्प लिया उसने सोच लिया था कि अपनी हुकूमत को शक्तिशाली करेगा और इसीलिये उसने अवी वज़ीर फ़ज़्ल से सलाह ली और फ़ैसला किया कि अब धोखे बाज़ी से काम लेगा, उसने तै किया कि ख़िलाफ़ को इमाम रज़ा को देने का आहवान करेगा और ख़ुद ख़िलाफ़त से अलग हो जाएगा।

उसको पता था कि ख़िलाफ़ इमाम रज़ा के दिये जाने का आहवान का दो में से कोई एक नतीजा अवश्य निकलेगा, या इमाम ख़िलाफ़त स्वीकार कर लेंगे, या स्वीकार नहीं करेंगे, और दोनों सूरतों में उसकी और अब्बासियों की ख़िलाफ़त की जीत होगी।

क्योंकि अगर इमाम ने स्वीकार कर लिया तो मामून की शर्त के अनुसार वह इमाम का वलीअह्द या उत्तराधिकारी होता, और यह उसकी ख़िलाफ़त की वैधता की निशानी होता और इमाम के बाद उसकी ख़िलाफ़त को सभी को स्वीकार करना होता। और यह स्पष्ट है कि जब वह इमाम का उत्तराधिकारी हो जाता तो वह इमाम को रास्ते से हटा देता और शरई एवं क़ानूनी तौर पर हुकूमत फिर उसको मिल जाती, और इस सूरत में अलवी और शिया लोग उसकी हुकूमत को शरई एवं क़ानूनी समझते और उसको इमाम के ख़लीफ़ा के तौर पर स्वीकार कर लेते, और दूसरी तरफ़ चूँकि लोग यह देखते कि यह हुकूमत इमाम की तरफ़ से वैध है इसलिये जो भी इसके विरुद्ध उठता उसकी वैधता समाप्त हो जाती।

उसने सोंच लिया था (और उसको पता था कि इमाम को उसकी चालों के बारे में पता होगा) कि अगर इमाम ने ख़िलाफ़त के स्वीकार नहीं किया तो वह इमाम को अपना उत्तराधिकारी बनने पर विवश कर देगा, और इस सूरत में भी यह कार्य शियों की नज़रों में उसकी हुकूमत के लिए औचित्य बन जाएगा, और फ़िर अब्बासियों द्वारा ख़िलाफ़त को छीनने के बहाने से होने वाले एतेराज़ और विद्रोह समाप्त हो जाएगे, और फिर किसी विद्रोही का लोग साथ नहीं देंगे।

और दूसरी तरफ़ उत्तराधिकारी बनाने के बाद वह इमाम को अपनी नज़रों के सामने रख सकता था और इमाम या उनके शियों की तरफ़ से होने वाले किसी भी विद्रोह का दमन कर सकता था, और उसने यह भी सोंच रखा थी कि जब इमाम ख़िलाफ़त को लेने से इन्कार कर देंगे तो शिया और उसने दूसरे अनुयायी उनके इस कार्य की निंदा करेंगे और इस प्रकार दोस्तों और शियों के बीच उनका सम्मान कम हो जाएगा।

मामून ने सारे कार्य किये ताकि अपनी हुकूमत को वैध दर्शा सके और लोगों के विद्रोहों का दमन कर सके, और लोगों के बीच इमाम और इमामत के स्थान को नीचा कर सके लेकिन कहते हैं न कि अगर इन्सान सूरज की तरफ़ थूकने का प्रयत्न करता है तो वह स्वंय उसके मुंह पर ही गिरता है और यही मामून के साथ हुआ, इमाम ने विवशता में उत्तराधिकारी बनना स्वीकार तो कर लिया लेकिन यह कह दिया कि मैं हुकूमत के किसी कार्य में दख़ल नहीं दूँगा, और इस प्रकार लोगों को बता दिया कि मैं उत्तराधिकारी मजबूरी में बना हूँ वरना अगर मैं सच्चा उत्तराधिकारी होता तो हुकूमत के कार्यों में हस्तक्षेप भी अवश्य करता। और इस प्रकार मामून की सारी चालें धरी की धरी रह गईं

 

हज़रत इमाम रिज़ा की ईरान यात्रा

अब्बासी खलीफ़ा हारून रशीद के समय मे उसका बेटा मामून रशीद खुरासान(ईरान) नामक प्रान्त का गवर्नर था। अपने पिता की मृत्यु के बाद उसने अपने भाई अमीन से खिलाफ़त पद हेतु युद्ध किया जिसमे अमीन की मृत्यु हो गयी। अतः मामून ने खिलाफ़त पद प्राप्त किया व अपनी राजधीनी को बग़दाद से मरू (ईरान का एक पुराना शहर) मे स्थान्तरित किया। खिलाफ़त पद पर आसीन होने के बाद मामून के सम्मुख दो समस्याऐं थी। एक तो यह कि उसके दरबार मे कोई उच्च कोटी का आध्यात्मिक विद्वान न था। दूसरी समस्या यह थी कि मुख्य रूप से हज़रत अली के अनुयायी शासन की बाग डोर इमाम के हाथों मे सौंपने का प्रयास कर रहे थे, जिनको रोकना उसके लिए आवश्यक था। अतः उसने इन दोनो समस्याओं के समाधान हेतू बल पूर्वक हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम को मदीने से मरू (ईरान ) बुला लिया। तथा घोषणा की कि मेरे बाद हज़रत इमाम रिज़ा मेरे उत्तरा धिकारी के रूप मे शासक होंगे। इससे मामून का अभिप्राय यह था कि हज़रत इमाम रिज़ा के रूप मे संसार के सर्व श्रेष्ठ विद्वान के अस्तित्व से उसका दरबार शुशोभित होगा। तथा दूसरे यह कि इमाम के उत्तराधिकारी होने की घोषणा से शियों का खिलाफ़त आन्दोलन लगभग समाप्त हो जायेगा या धीमा पड़ जायेगा।

 

इमाम रज़ा अ.स. ने मामून की वली अहदी क्यु क़ुबूल की?

अकसर लोगों के दरमियान सवाल उठता है कि अगर अब्बासी खि़लाफ़त एक ग़ासिब हुकूमत थी तो आखि़र हमारे आठवें इमाम ने इस हुकूमत में मामून रशीद ख़लिफ़ा की वली अहदी या या उत्तरधिकारिता क्यूं कु़बूल की?

इस सवाल के जवाब में हम यहां चन्द बातें पेश करतें हैं कि जिनके पढ़ने के बाद हमारे सामने यह बातें इस तरह साफ़ हो जायेगी जैसे हाथ की पांच उंगलियों की गिनती ।

जनाब मेहदी पेशवाई अपनी किताब सीमाये पीशवायान में इमाम रज़ा के मामून के उत्तराधिकारी बनने के कारण इस तरह लिखते हैः

1. इमाम रज़ा ने मामून के उत्तराधिकारी बनने को उस समय कु़बूल किया कि जब देखा कि अगर आप मामून की बात न मानेंगे तो ख़ुद अपनी जान से भी हाथ धो बैठेगें और साथ ही साथ शियों की जान भी ख़तरे में पड़ जायेगी अब इमाम ने अपने उपर लाज़िम समझा कि ख़तरे को ख़ुद और अपने शियों से दूर करे।

2. इमाम रज़ा का उत्तराधिकारी बनाया जाना भी एक तरह से अब्बासियों का यह मानना भी था कि अलवी (शिया) भी हुकूमत में एक बड़ा हिस्सा रखते हैं।

3. उत्तराधिकारीता क़ुबूल करने की दलीलों में से एक यह भी है लोग ख़ानदाने पैग़म्बर को सियासत के मैदान में हाज़िर समझे और यह गुमान न करे कि ख़ानदानें पैग़म्बर सिर्फ़ उलेमा व फ़ोक़हा है और यह लोग सियासत के मैदान में बिल्कुल नहीं है।

शायद इमाम रज़ा ने इब्ने अरफ़ा के सवाल के जवाब में इसी मतलब की तरफ़ इशारा किया है कि जब इब्ने अरफ़ा ने इमाम से पूछा कि ऐ रसूले ख़ुदा के बेटे आप किस कारण से मामून के उत्तराधिकारी बनें?

तो इमाम ने जवाब दियाः उसी कारण से कि जिसने मेरे जद अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) को शूरा में दाखि़ल किया था।

4. इमाम ने अपने उत्तराधिकारीता के दिनों में मामून का असली चेहरा तमाम लोगों के सामने बेनक़ाब कर दिया था और उसकी नियत व मक़सद को उन कामों से कि जिन्हें वो अन्जाम दे रहा था, सब के सामने ला कर लोगों के दिलों से हर शक व शुब्हे को निकाल दिया था। (सीमाये पीशवायान)

 

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम और ईद की नमाज़

मामून ने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से ईद की नमाज़ पढ़ाने के लिए कहा। इसके पीछे मामून का लक्ष्य यह था कि लोग इमाम रज़ा के महत्व को पहचानें और उनके दिल शांत हो जायें परंतु आरंभ में इमाम ने ईद की नमाज़ पढ़ाने हेतु मामून की बात स्वीकार नहीं की पंरतु जब मामून ने बहुत अधिक आग्रह किया तो इमाम ने उसकी बात एक शर्त के साथ स्वीकार कर ली। इमाम की शर्त यह थी कि वह पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शैली में ईद की नमाज़ पढ़ायेंगे। मामून ने भी इमाम के उत्तर में कहा कि आप स्वतंत्र हैं आप जिस तरह से चाहें नमाज़ पढ़ा सकते हैं।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे इस्लाम की भांति नंगे पैर घर से बाहर निकले और उनके हाथ में छड़ी थी। जब मामून के सैनिकों एवं प्रमुखों ने देखा कि इमाम नंगे पैर पूरी विनम्रता के साथ घर से बाहर निकले हैं तो वे भी घोड़े से उतर गये और जूतों को उतार कर वे भी नंगे पैर हो गये और इमाम के पीछे पीछे चलने लगे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम हर १० क़दम पर रुक कर तीन बार अल्लाहो अकबर कहते थे। इमाम के साथ दूसरे लोग भी तीन बार अल्लाहो अकबर की तकबीर कहते थे। मामून इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के इस रोब व वैभव को देखकर डर गया और उसने इमाम को ईद की नमाज़ पढ़ाने से रोक दिया। इस प्रकार वह स्वयं अपमानित हो गया।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का ज्ञान

मामून जो कि इमाम की तरफ़ लोगो की बढ़ती हुई मोहब्बत और लोगों के बीच आपके सम्मान को देख रहा था और आपके इस सम्मान को कम करने और लोगों के प्रेम में ख़लल डालने के लिए उसने बहुत से कार्य किये और उन्हीं कार्यों में से एक इमाम रज़ा और विभिन्न विषयों के ज्ञानियों के बीच मुनाज़ेरा और इल्मी बहसों की बैठकों का जायोजन है, ताकि यह लोग इमाम से बहस करें और अगर वह किसी भी प्रकार से इमाम को अपनी बातों से हरा दें तो यह मामून की बहुत बड़ी जीत होगी और इस प्रकार लोगों के बीच आपकी बढ़ती हुई लोकप्रियता को कम किया जा सकता था, इस लेख में हम आपके सामने इन्हीं बैठकों में से एक के बारे में बयान करेंगे और इमाम रज़ा (अ) के उच्च कोटि के ज्ञान को आपके सामने प्रस्तुत करेंगे।

मामून ने एक मुनाज़रे के लिए अपने वज़ीर फ़ज़्ल बिन सहल को आदेश दिया कि संसार के कोने कोने से कलाम और हिकमत के विद्वानों को एकत्र किया जाए ताकि वह इमाम से बहस करें।

फ़ज़्ल ने यहूदियों के सबसे बड़े विद्वान उसक़ुफ़ आज़मे नसारी, सबईयों ज़रतुश्तियों के विद्वान और दूसरे मुतकल्लिमों को निमंत्रण भेजा, मामून ने इस सबको अपने दरबार में बुलाया और उनसे कहाः मैं चाहता हूँ कि आप लोग मेरे चचा ज़ाद (मामून पैग़म्बरे इस्लाम के चचा अब्बास की नस्ल से था जिस कारण वह इमाम रज़ा (अ) को अपना चचाज़ाद कहता था) से जो मदीने आया है बहस करो।

दूसरे दिन बैठक आयोजित की गई और एक व्यक्ति को इमाम रज़ा (अ) को बुलाने के लिये भेजा, आपने उसके निमंत्रण को स्वीकार कर लिया और उस व्यक्ति से कहाः क्या जानना चाहते को कि मामून अपने इस कार्य पर कब लज्जित होगा? उसने कहाः हाँ। इमाम ने फ़रमायाः जब मैं तौरैत के मानने वालों को तौरैत से इंजील के मानने वालों को इंजील से ज़बूर के मानने वालों को ज़बूर से साबईयों को उनकी भाषा में ज़रतुश्तियों को फ़ारसी भाषा में और रूमियों को उनकी भाषा में उत्तर दूँगा, और जब वह देखेगा कि मैं हर एक की बात को ग़लत साबित करूंगा और सब मेरी बात मान लेंगे उस समय मामून को समझ में आएगा कि वह जो कार्य करना चाहता है वह उसके बस की बात नहीं है और वह लज्जित होगा

फिर आप मामून की बैठक में पहुँचे, मामून ने आपका सबसे परिचय कराया और फिर कहने लगाः मैं चाहता हूँ कि आप लोग इनसे इल्मी बहस करें, आपने भी उस तमाम लोगों को उनकी ही किताबों से उत्तर दिया, फिर आपने फ़रमायाः अगर तुम में से कोई इस्लाम का विरोधी है तो वह बिना झिझक प्रश्न कर सकता है। इमरान साबी जो कि एक मुतकल्लिम था उसने इमाम से बहुत से प्रश्न किये और आपने उसे हर प्रश्न का उत्तर दिया और उसको लाजवाब कर दिया, उसने जब इमाम से अपने प्रश्नों का उत्तर सुना तो वह कलमा पढ़ने लगा और इस्लाम स्वीकार कर लिया, और इस प्रकार इमाम की जीत के साथ बैठक समाप्त हुई।

रजा इब्ने ज़हाक जो मामून की तरफ़ से इमाम को मदीने से मर्व की तरफ़ जाने के लिये नियुक्त था कहता हैः इमाम किसी भी शहर में प्रवेश नहीं करते थे मगर यह कि लोग हर तरफ़ से आपकी तरफ़ दौड़ते थे और अपने दीनी मसअलों को इमाम से पूछते थे, आप भी लोगों को उत्तर देते थे, और पैग़म्बर की बहुत सी हदीसों को बयान फ़रमाते थे। वह कहता है कि जब मैं इस यात्रा से वापस आया और मामून के पास पहुंचा तो उसने इस यात्रा में इमाम के व्यवहार के बारे में प्रश्न किया मैंने जो कुछ देखा था उसको बता दिया। तो मामून कहता हैः हां हे ज़हाक के बेटे, आप (इमाम रज़ा) ज़मीन पर बसने वाले लोगों में सबसे बेहतरीन, सबसे ज्ञानी और इबादत करने वाले हैं

 

हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के कथन

१. जब लोग नये नये गुनाहों का इरतेकाब (करना) शुरू कर देंगे तो ख़ुदावन्दे आलम (ईशवर) भी उन्हें नई नई बलाओं (आपत्तियों) में मुबतला करेगा (डालेगा) ।

२. माँ बाप को मोहब्बत भरी निगाहों से देखना इबादत (तपस्या) है।

३. ख़ुशबख़्त वह शख़्स है जो दूसरों की सरगुज़श्त (गुज़रा हुआ) से इब्रत (वह मानसिक खेद जो किसी आदमी को बुरी अवस्था में देखकर होता है) हासिल करे।

४. तुम्हारे अच्छे काम वह हैं जो आख़ेरत (परलोक) को सँवारें।

५. बेहतरीन कारे ख़ैर (अच्छा कार्य) वह है जो दाएमी (हमेशा) हो अगरचे कम हो।

६. जो किसी हाजत मन्द (माँगने वालों) की हाजत रवा (पूरा) करे ख़ुदावन्दे आलम उसके दुनिया व आख़ेरत (परलोक) दोनों आसान करेगा।

७. नेक ओमूर (अच्छे काम) में जल्दी करो ताकि कामयाब रहो (याद रखो) नेक कामों से उम्र (आयु) में बरकत होती है।

८. जो बुज़ुर्गों का एहतेराम (आदर) और ख़ुर्दों (छोटो) पर रहम न करे वह मुझ से नहीं।

९. बख़ील (कंजूस) लोगों की हमनशीनी (संगत) मत इख़्तेयार (ग्रहण) करो क्योंकि जब तुम उनके मोहताज होगे (तो) वह तुम से दूर भागेगा।

१०. जो तकब्बुर (घमण्ड) करेगा वह बेतुका फ़ख़्र करेगा उसे ज़िल्लत के सिवा कुछ और हासिल न होगा।

११. अपने राज़ को सिर्फ़ क़ाबिले ऐतमाद (भरोसेमन्द) लोगों से बताओ।

१२. इल्म से बेहतर कोई ख़ज़ाना नहीं और बुर्दबारी से बेहतर कोई इज़्ज़त नहीं।

१३. अपने दोस्तों और दुश्मनों सबके मामेलात में इन्साफ़ (न्याय) का ख़्याल ज़रूर रखना।

१४. नेक काम अन्जाम दो ताकि क़यामत के दिन नेक जज़ा (इनाम) मिले ।

१५. दुनिया की गुज़रगाह से अपने दाएमी घर (आख़ेरत)के लिए तोशा (सामग्री) लेते चलो ।

१६. किसी भी काम के लिए अव्वले वक़्त नमाज़ तर्क ना करो।

१७. जो अक़्लमन्दों से मश्विरा (परामर्श) करता है गुमराह (ईश्वरीय मार्ग से भटकना) नहीं होता।

१८. ख़ुदावन्दे आलम (ईश्वर) नें गुनाहों (पापों) और बुराईयों पर क़ुफ़्ल (तालें) लगा दिये हैं और उनकी कुँजी शराब और झूट उससे भी बदतर है ।

१९. ख़ानदान वालों से राब्ता (सम्बन्ध) हमेशा (सदैव) ताज़ा रख़ो अगरचे सिर्फ़ सलाम ही से हो ।

२०. माँ बाप को नाराज़ करने से उम्र (आयु) कोताह (कम) हो जाती है ।

२१. कभी अपने दीनी भाई से जेदाल (लड़ाई) या (हद से ज़्यादा) मेज़ाह (मज़ाक़) न करो और उनसे झूठे वादे मत करो ।

२२. नियाज़ मन्दी और हाजत (ऐसी बला है कि) होशियार से होशियार आदमी को भी दलील व बुर्हान (सुबूत) से रोक देती है ।

२३. अमानत (धरोहर) को अपने मालिक की तरफ़ वापिस करो चाहे वो नेक हो या बद ।

२४. हमेंशा अपनी ज़बान और अपनें हाथों से अम्र बिल मारूफ़ (अच्छाई का आदेश) व नहीं अनिल मुन्कर (बुराई से रोकना) करते रहो और अपने छोटे से छोटे गुनाह (पाप) कम ना समझो ।

२५. आज जबकि तुम्हारा क़द व क़ामत सलामत ,ख़ून गर्म और दिल बेदार हे तो आने वाली सख़्तियों के लिए ख़ूब फ़िक्र (सोच विचार) कर लो ।

२६. अच्छे अख़्लाक़ वाला इन्सान वह है जिससे किसी का दिल न दुखा हो ।

२७. हर शख़्स का दोस्त उसका इल्म (ज्ञान) है दुश्मन उसकी जेहालत (अज्ञानता) ।

२८. मुझे वह दस्तरख़्वान पसन्द नहीं जिस पर सब्ज़ी न हो ।

२९. जो ज़ुबान से अस्तग़फ़ार (प्रायश्चित) करे और दिल से अपने गुनाहों से पशेमान (शर्मिन्दगी) न हो वह गोया अपने साथ मज़ाक़ कर रहा है ।

३०. ज़रुरी है कि तुम हमेशा मोहज़्जब (सभ्य) लोगों से इरतेबात (सम्बन्ध) रखो ।

३१. ज़माना तुम्हारी ज़िन्दगी की डायरी है इसलिए इसमें नेक आमाल (अच्छे कार्य) दर्ज करो (लिखो)।

३२. आलिम (ज्ञानी) मरने के बाद (म्रत्यु पश्चात) भी ज़िन्दा (जिवित) रहता है जाहिल (अज्ञानी) ज़िन्दगी ही में मुर्दा है।

३३. बुरे कामों से बचना नेक कामों की अन्जाम देही (के करने) से बेहतर है।

३४. जब तक भूक न हो दस्तरख़ान पर मत बैठो और शिकम (पेट) सेर होने (भरने) से पहले दस्तरख़ान छोड़ दो।

३५. बीमारों को जब उनका दिल माएल (मन न चाहे) न हो ज़बर्दस्ती ग़िज़ा (खाना) मत दो।

३६. मसर्रत (ख़ुशी) व शादमानी तीन चीज़ों से हासिल होती है , 1.मुवाफ़िक़ शरीके हयात (अपने मिजाज़ की पत्नि) , 2.नेक औलाद , 3.अच्छे दोस्त।

३७. आरज़ू (इच्छा) ख़त्म होने वाली चीज़ नहीं और मौत को भी भुलाये रखती है।

३८. सूद बदतरीन महसूल (जो प्राप्त हुआ हो) है और माले यतीम (जिसके पिता न हों) खाना बदतरीन ग़िज़ा है।

३९. ख़ुदावन्दे आलम सख़ी (बाँटने वाला) है और सख़ी (ईशवरीय इच्छा हेतु बाँटना) को पसन्द करता है।

४०. वाजेबात (जो कार्य ईशवर हेतु अवश्य करना होता है) के बाद ख़ुदावन्दे आलम के नज़दीक़ बेहतरीन काम लोगों को मसर्रत (ख़ुश करना) पहुँचाना है।

 

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 203 हिजरी क़मरी मे सफर मास की अन्तिम तिथि को हुई। जिस दिन इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम शहीद होने वाले थे उस दिन उन्होंने सुबह की नमाज़ नए वस्त्र पहन कर पढ़ी और उसी स्थान पर बैठे रहे मानो उन्हे किसी अप्रिय घटना के होने का आभास हो गया था। उस दिन उनका चेहरा हर दिन से अधिक दमक रहा था। उनकी आंखे ईश्वर के प्रति अथाह श्रृद्धा का पता दे रही थीं कि अचानक मामून का संदेशवाहक घर के द्वार पर पहुंचा और उसने कहा कि मामून ख़लीफ़ा ने अबुल हसन को बुलाया है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उसके साथ चल पड़े। मामून इमाम के स्वागत के लिए निकला और इमाम को अपने विशेष स्थान की ओर ले गया और दोनों लोग आमने सामने बैठ गए किन्तु मामून की आंखें कुछ और ही कह रहीं थीं। उसकी दुस्साहस भरी दृष्टि इस बात का पता दे रही थी कि वह इस समय क्या करना चाह रहा है। मामून जानता था कि उसके समस्त हत्कण्डे, इमाम के प्रति लोगों की श्रृद्धा को न कम कर सके और न ही उसकी सरकार के लिए लाभदायक सिद्ध हुए। वह इस बात से भलिभांति अवगत था कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम, अत्याचार और आत्महित को स्वीकार नहीं करेंगे और जब तक सूर्य की भांति इमाम का अस्तित्व अपनी ज्योति बिखेरता रहेगा उस समय तक ख़लीफ़ा के रूप में लोगों के निकट उसका कोई महत्व नहीं होगा। अपने आपसे कहने लगा, सबसे अच्छा समाधान यह है कि अबल हसन को अपने मार्ग से हटा दें। मामून बिना कुछ कहे आगे बढ़ा और एक बड़े से बर्तन से उसने अंगूर का एक गुच्छा उठाया और उसमें से अंगूर का कुछ दाना खाया और फिर आगे बढ़कर उसने इमाम के माथे को चूमा और अंगूर का एक गुच्छा इमाम की ओर बढ़ाते हुए बोला हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र इनसे अच्छे अंगूर मैंने आज तक नहीं देखे। इमाम ने अपनी बोलती हुई आंखों स उत्तर दिया कि स्वर्ग का अंगूर इससे भी अच्छा है। मामून ने फिर कहा अंगूर खाइये।

इमाम ने मना कर दिया, लेकिन मामून ने अत्यधिक आग्रह करते हुए विषाक्त अंगूर इमाम को दिए। इमाम रज़ा के चेहरे पर कड़वी मुस्कुराहट की एक झलक उभरी। अचानक उनके चेहरे का रंग बदलने लगा और उनकी स्थिति बिगड़ने लगी। इमाम, गुच्छे को ज़मीन पर फेंक कर उसी पीड़ा के साथ चल पड़े। इमाम रज़ा के एक अच्छे साथी अबा सल्त ने जब इमाम को देखा तो उनके साथ हो लिए। वह इस महान हस्ती के प्रकाशमयी अस्तित्व से लाभ उठा रहे थे। वह इस बात पर प्रसन्न थे कि इस समय वह पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार की सबसे महत्वपूर्ण हस्ती के साथ चल रहे हैं। उनकी दृष्टि में इमाम, आतुर हृदय को प्रकाश तथा उन्हें जीवन प्रदान करने वाला है। उन्हें इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का वह कथन याद आ गया जिसमें इमाम ने कहा थाः इमाम धरती पर ईश्वर के अमानतदार उत्तराधिकारी हैं तथा उसके बंदों पर इमाम उसकी हुज्जत व प्रमाण होते हैं। ईश्वर के मार्ग पर चलने का निमंत्रण देने वाले और उसकी ओर से निर्धारित सीमा के रक्षक हैं। वह पापों से दूर और उनका व्यक्तिव दोष रहित है। वह ज्ञान से संपन्न तथा सहिष्णुता के लिए जाने जाते हैं। इमाम के अस्तित्व से धर्म में स्थिरता और मुसलमानों का गौरव व सम्मान है। अबा सल्त इसी विचार में लीन थे कि अचानक उनकी दृष्टि इमाम पर पड़ी, समझ गए कि मामून ने अपना अंतिम हत्कण्डा अपनाया। आह भरी और फूट फूट कर रोने लगे लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता था अधिक समय नही बीता कि इमाम शहीद हो गए। वह काला दिवस सफ़र महीने का अंतिम दिन वर्ष 203 हिजरी क़मरी था।

उच्च नैतिक मूल्य, व्यापक ज्ञान, ईश्वर पर अथाह व अटूट विश्वास तथा लोगों के साथ सहानुभूति वे विशेषताएं थीं जो इमाम को दूसरों से विशिष्ट करती थीं। वह आध्यात्मिक तथा उपासना सम्बन्धी मामलों पर विशेष ध्यान देते थे। मुसलमानों के मामलों की निरंतर देख रेख करते तथा लोगों की समस्याओं के निदान के लिए बहुत प्रयास करते थे। रोगियों से कुशल क्षेम पूछने तुरंत पहुंचते और बड़ी विनम्रता से आतिथ्य सत्कार करते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ज्ञान के अथाह सागर थे। इस्लामी जगत के दूर दूर से विद्वान व बुद्धिजीवी इमाम के पास पहुंच कर अपने ज्ञान की प्यास बुझाते थे। इमाम रज़ा ने अपनी इमामत के काल में बहुत से बुद्धिजीवियों के प्रशिक्षित किया और आज भी क़ुरआन की व्याख्या, हदीस, शिष्टाचार तथा इस्लामी चिकित्सा पद्धति पर इमाम की महत्वपूर्ण रचनाएं मौजूद हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम लोगों के सामने इस्लाम की मूल्यवान शिक्षा की व्याख्या करते किन्तु उनके व्यक्तिव का दूसरा आयाम उनका राजनैतिक संघर्ष था।

प्रथम हिजरी शताब्दी के दूसरे अर्ध में इस्लामी शासन ने राजशाही व्यवस्था तथा कुलीन वर्ग का रूप धारण कर लिया और अत्याचारी शासक सत्तासीन हो गए। इमामों ने जो पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों में से हैं, उसी समय से शासकों के भ्रष्टाचार के विरद्ध अपना संघर्ष आरंभ कर दिया था। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने भी अपने काल में अत्याचार से संघर्ष किया। इसके साथ ही उनके काल की परिस्थितियां कुछ सीमा तक भिन्न थीं। इमाम को एक बड़े एतिहासिक अनुभव तथा एक गुप्त राजनैतिक द्वद्वं का सामना था जिसमें सफलता या विफलता दोनों ही मुसलमानों के भविष्य के लिए निर्णायक थी। इस खींचतान में अब्बासी शासक मामून षड्यंत्र रच मैदान में आ गया। वह एक दिन इमाम रज़ा के निकट आया और उसने इमाम से कहाः हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र मैं आपके ज्ञान, नैतिक गुण और सच्चरित्रता से भलिभांति अवगत हूं और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आप इस्लामी नेतृत्व के लिए मुझसे अधिक योग्य हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ईश्वर की अराधना मेरे लिए गौरव की बात है, ईश्वर के प्रति भय द्वारा ईश्वरीय अनुकंपाओं तथा मोक्ष की आशा करता हूं तथा संसार में विनम्रता द्वारा ईश्वर के निकट उच्च स्थान की प्राप्ति चाहता हूं।

मामून ने कहाः मैंने सत्ता को छोड़ने और इसे आपके हवाले करने का निर्णय किया है।

इमाम रज़ा ने उसके उत्तर में कहाः अगर इस पर तेरा अधिकार है तो वह वस्त्र जिसे ईश्वर ने तुझे पहनाया है उसे उतार कर, तू दूसरे के हवाले करे यह तेरे लिए उचित नहीं है। लेकिन अगर यह ख़िलाफ़त अर्थात इस्लामी सरकार की बागडोर संभालना तेरा अधिकार नहीं है तो तुझे उस चीज़ के बारे में निर्णय करने का अधिकार नहीं है जिससे तेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। तू बेहतर जानता है कि कौन अधिक योग्य है। इमाम का यह दो टूक जवाब मामून के लिए कठोर था किन्तु उसने अपने क्रोध को छिपाने का प्रयास करते हुए कहाः तो फिर हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र आपको उत्तराधिकारी अवश्य बनना पड़ेगा।

इमाम रज़ा ने उत्तर दियाः मैं इसे स्वेच्छा से स्वीकार नहीं करूंगा।

मामून ने कहाः हे पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र आप उत्तराधिकारी बनने से इसलिए बचना चाह रहे हैं ताकि लोग आपके बारे में यह कहें कि आप को संसारिक मोह नहीं है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उत्तर दियाः मैं जानता हूं कि तुम्हारे यह कहने के पीछे यह उद्देश्य है कि लोग यह कहने लगें कि अलि बिन मूसर्रिज़ा संसारिक मोह माया से बचे नहीं और ख़िलाफ़त की लालच में उन्होंने अत्तराधिकारी बनना स्वीकार कर लिया।

अंततः मामून ने इमाम रज़ा को उत्तराधिकारी बनने के लिए विवश कर दिया किन्तु इमाम ने यह शर्त रखी कि वह सरकारी मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इस प्रकार इमाम रज़ा ने अपनी सूझ बूझ से लोगों को यह समझा दिया कि मामून की राजनैतिक कार्यवाहियों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है और सरकारी मामलों में उनकी कोई भूमिका नहीं है। इसके साथ ही इमाम की नई स्थिति से उनके सम्मान में और वृद्धि हो गई। इमाम रज़ा ने खुले राजनैतिक वातावरण में इतनी समझदारी से कार्य किया कि उनके उत्तराधिकार का काल शीया इतिहास के स्वर्णिम युगों का एक भाग बन गया तथा मुसलमानों की संघर्ष प्रक्रिया के लिए नया अवसर उपलब्ध हो गया। बहुत से लोग जिन्होंने केवल इमाम रज़ा का केवल नाम सुन रखा था उन्हें समाज के योग्य मार्गदर्शक के रूप में पहचानने तथा उनका सम्मान करने लगे कि जो ज्ञान, नैतिक गुणों, लोगों से सहानुभूति रखने तथा पैग़म्बर से निकट होने की दृष्टि से सबसे योग्य व श्रेष्ठ हैं।

अंततः मामून को यह ज्ञात हो गया कि जिस तीर से उसने इमाम की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने का लक्ष्य साधा था वह उसी की ओर पलट आया है इसलिए उसने भी वही शैली अपनाई जो उसके पूर्वज अपना चुके थे। उसने भी अपने काल के इमाम को विष देकर शहीद कर दिया।

 

समाधि

हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की समाधि पवित्र शहर मशहद मे है। जहाँ पर हर समय लाखो श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन व सलाम हेतू एकत्रित रहते हैं। यह शहर वर्तमान समय मे ईरान मे स्थित है।

 

।।अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद।।


۰ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 23 February 16 ، 18:38
Mesam Naqvi