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इस्लाम मे शादी का तात्पर्य सेक्सी इच्छा की पूर्ती के साथ-साथ सदैव नेक और सही व पूर्ण संतान को द्रष्टीगत रखना भी है। इसी लिऐ इमामो ने सेक्स के लिऐ महीना, तारीख, दिन, समय और जगह को द्रष्टीगत रखते हुऐ अलग-अलग प्रकार बताऐ है। जिसका प्रभाव बच्चे पर पड़ता है। कमर दर अकरब और तहतुश शुआ (अर्थातः चाँद के महीने के वो दो या तीन दिन जब चाँद इतना बारीक होता है कि दिखाई नही देता) मे सेक्स करना घ्रणित है।

 

तहतुश शुआ मे सेक्स करने पर बच्चे पर पड़ने वाले प्रभाव से संबंधित इमाम मूसा काज़िम अ.स. ने इरशाद फरमाया है कि जो व्यक्ति अपनी औरत से तहतुश शुआ मे सेक्स करे वह पहले अपने दिल मे ये सोच ले कि गर्भ पूर्ण होने से पहले गिर जाऐगा।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 108)

 

दिनाँक से संबंधित इमाम सादिक़ अ.स. ने फरमाया कि महीने के आरम्भ, बीच और अंत मे सेक्स न करो क्यो कि इन मोक़ो मे सेक्स करना गर्भ के गिर जाने का कारण होता है और अगर सन्तान हो भी जाऐ तो ज़रूरी है कि वो पागल या मिर्गी का मरीज़ होगा।


क्या तुम नही देखते कि जिस व्यक्ति को मिर्गी की बीमारी होती है, या उसे महीने के शूरू मे दौरा पड़ता है या बीच मे या आखिर मे।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 108)

 

दिनो के हिसाब से बुधवार की रात मे सेक्स करना घ्रणित बताया गया है।

 

इमाम जाफरे सादिक़ अ.स. का इरशाद है कि बुधवार की शाम को सेक्स करना उचित नही है।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 109)

 

जहाँ तक समय का संबंध है उसके लिऐ जवाल और सूर्यास्त के समय, सुबह शूरू होने के समय से सूर्योदय तक के अलावा पहली घड़ी मे सेक्स नही करना चाहिऐ। क्योकि अगर बच्चा पैदा हुआ तो शायद जादूगर हो और दुनिया को आखेरत पर हैसीयत दे।

 

ये बात रसूले खुदा (स.अ.व.व) ने हज़रत अली (अ.स) को वसीयत करते हुऐ इरशाद फरमाया कि ऐ अली रात की पहली घड़ी (पहर) मे सम्भोग न करना क्योकि अगर बच्चा पैदा हुआ तो शायद जादूगर हो और दुनिया को आखेरत पर इख्तियार करे। ऐ अली ये वसीयते मुझ से सीख लो जिस तरह मैने जिब्रईल से सीखी है।

 

वास्तव मे रसूले खुदा की ये वसीयत केवल हजरत अली से नही है बल्कि पूरी उम्मत से है।

 

इसी वसीयत मे रसूले खुदा ने मकरूहो की सूची इस तरह गिनाई हैः

 

ऐ अली, दुलहन को सात दिन दूध, सीरका, धनीया और खट्टे सेब न खाने देना।

 

हजरत अली (अ.स.) ने कहा कि या रसूल अल्लाह इसका क्या कारण है।

 

फरमाया कि इन चीज़ो के खाने से औरत का गर्भ ठंडा पड़ जाता है और वो बांझ हो जाती है और उसके संतान पैदा नही होती।

 

ऐ अली जो बोरी घर के किसी कोने मे पड़ी हो उस औरत से अच्छा है कि जिसके संतान न होती हो।

 

फिर फरमायाः

 

अली, अपनी बीवी से महीने के शूरू, बीच, आखिर मे सेक्स न किया करो कि उसको और उसके बच्चे को पागलपन, बालखोर (एक बीमारी), कोढ़, दिमाग़ी खराबी होने का डर रहता है।

 

ऐ अली, ज़ोहर की नमाज़ के बाद सेक्स न करना क्योकि बच्चा जो पैदा होगा परेशानहाल होगा।

 

ऐ अली, सेक्स के समय बाते न करना अगर बच्चा पैदा होगा तो इसमे शक नही कि वो गूंगा हो।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 113)

 

और कोई व्यक्ति अपनी औरत की योनी की तरफ न देखे बल्कि इस हालत मे आँखे बंद रखे। क्योकि उस समय योनी की तरफ देखना संतान के अंधे होने का कारण होता है।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 109)

 

अली, जब किसी और औरत के देखने से सेक्स की इच्छा पैदा हो तो अपनी औरत से सेक्स न करना क्योकि बच्चा जो पैदा होगा नपुंसक या दीवाना होगा।

 

अली, जो व्यक्ति जनाबत की हालत मे (वीर्य निकलने के बाद) अपनी बीवी के बिस्तर पर लेटा हो उस पर लाज़िम है कि कुरआने मजीद न पढ़े। क्योकि मुझे डर है कि आसमान से आग बरसे और दोनो को जला दे।

 

ऐ अली, सेक्स करने से पहले एक रूमाल अपने लिऐ और एक अपनी बीवी के लिऐ ले लेना। ऐसा न हो कि तुम दोनो एक ही रूमाल प्रयोग करो कि उस से पहले तो दुश्मनी पैदा होगी और आखिर मे जुदाई तक हो जाऐगी।

 

ऐ अली, अपनी औरत से खड़े खड़े सेक्स न करना कि ये काम गधो का सा है। अगर बच्चा पैदा होगा तो वह गधे की तरह बिछोने पर पीशाब किया करेगा।

 

ऐ अली, ईदुल फित्र की रात को सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो उसे बहुत सी बीमारीया प्रकट होगी।

 

ऐ अली, ईदे कुरबान की रात मे सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो उसके हाथ मे छः उंगलीया होगी या चार।

 

ऐ अली, फलदार पेड़ के नीचे सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो या कातिल व जल्लाद होगा या ज़ालिमो का लीडर।

 

अली, सूरज के सामने सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो मरते दम तक बराबर बुरी हालत और परेशानी मे रहेगा। (लेकिन परदा डाल कर सेक्स कर सकते है।)

 

ऐ अली, अज़ान व अक़ामत के बीच सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो उसकू प्रव्रत्ती खून बहाने की ओर होगी।

 

ऐ अली, जब तुम्हारी बीवी गर्भवती हो तो बिना वुज़ु के सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो कंजूस होगा।

 

अली, 15 शाबान को सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो लुटेरा और ज़ुल्म को दोस्त रखता होगा और उसके हाथ से बहुत से आदमी मारे जाऐगें।

 

ऐ अली, छत पर सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो मुनाफिक और दगाबाज़ होगा।

 

अली, जब तुम किसी यात्रा पर जाओ तो उस रात को सेक्स न करना कि अगर बच्चा पैदा होगा तो नाहक़ माल खर्च करेगा और बेजा खर्च करने वाले लोग शैतान के भाई है और अगर कोई ऐसे सफर मे जाऐ जहाँ तीन दिन का रास्ता हो तो सेक्स न करे वरना अगर बच्चा पैदा हुआ तो अत्याचारी होगा।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 111-112)

 

जहा रसूले खुदा ने उपरोक्त बाते इरशाद फरमाई है वही किसी मौक़े पर इरशाद फरमायाः उस खुदा की कसम जिसके कब्ज़े मे मेरी जान है अगर कोई व्यक्ति अपनी औरत से ऐसे मकान मे सेक्स करे जिसमे कोई जागता हो और वो उनको देखे या उनकी बात या साँस की आवाज़ सुने तो संतान तो उस सेक्स से पैदा होगी उसे कामयाबी हासिल न होगी।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 110)

 

इसी तरह की बात इमाम जाफर सादिक़ (अ.स.) ने इरशाद फरमाया कि मर्द को उस मकान मे जिसमे कोई बच्चा हो अपनी औरत या कनीज़ से सेक्स नही करना चाहिऐ वरना वह बच्चा बलात्कारी होगा।
(तहज़ीबुल इस्लाम पेज न. 110)

 

۰ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 07 May 16 ، 02:06
Mesam Naqvi

उम्र, शारीरिक व आत्मिक उतार- चढ़ाव और प्रगति की बहार है। जवानी वह समय है जब शक्ति, भावना और एहसास और आकांक्षा आदि इंसान पर हावी होते हैं और ऐसे समय में जो चीज़ इंसान को सही रास्ता दिखा सकती है वे ईश्वरीय क़ानून हैं यानी पवित्र कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम तथा उनके पवित्र परिजनों के कथन। आज के कार्यक्रम में हम इस बात की समीक्षा करेंगे कि अगर किसी जवान का दिल ईश्वरीय ग्रंथ पवित्र कुरआन से लग जाये तो उसके क्या लाभ हैं। पवित्र कुरआन वह आसमानी किताब है जो जवान को परिपूर्णता के शिखर पर पहुंचा देती है।

 

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युवा के अंदर धार्मिक रुझान पाया जाता है। धर्म, आध्यात्म और परिज्ञान के बारे में जवानों के पास बहुत प्रश्न होते हैं। इस आधार पर जवानों के धर्म से परिचित होने का अधिक महत्व है। क्योंकि धार्मिक रुझान के साथ ही जीवन में सफलता के शिखर पर पहुंचना संभव है।

 

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युवा के मार्गदर्शन में जिस तरह उसके रुझानों व रुचियों पर ध्यान देना आवश्यक है उसी तरह ईश्वर की पहचान के संबंध में उसकी आत्मिक प्यास पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये। क्योंकि युवाओं का पवित्र हृदय वास्तविकताओं को स्वीकार करने के लिए तैयार होता है इसलिए जवानों का सही मार्गदर्शन आवश्यक होता है। जवानों के अंदर धर्म की प्यास उस समय बुझेगी जब वे जीवन के समृद्ध व वास्तविक स्रोतों से अवगत होंगे।

 

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पवित्र कुरआन जीवन और वास्तविकताओं को स्पष्ट करने वाला वह स्रोत है जिसे महान ईश्वर ने पैग़म्गबरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम पर उतारा है। पवित्र कुरआन की आयतें इंसान की पवित्र और अच्छी प्रवृत्ति को अपनी ओर आकर्षित करती हैं और वे सोच -विचार, चिंतन- मनन करने और वर्तमान एवं अतीत की घटनाओं से पाठ लेने के लिए इंसान का आह्वान करता है। पवित्र कुरआन मार्गदर्शन की किताब है और इंसान ऐसा प्राणी है जिसके पास सोच- विचार की शक्ति है और उसे मार्गदर्शक की आवश्यकता है।

 

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पवित्र कुरआन महान ईश्वर का बहुत बड़ा चमत्कार है। वह चमकते सूरज की भांति है जो भी उसके प्रकाश से लाभ उठायेगा वह हरा- भरा व प्रफुल्लित हो जायेगा। इसी आधार पर धर्म पर आस्था रखने वाला इंसान पवित्र कुरआन का अध्ययन करके नयी वास्तविकताओं को प्राप्त करता है और वह अपनी सोच व बुद्धि का प्रयोग करके सही गलत में अंतर करता है।

 

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पवित्र कुरआन जीवनदायक अपनी शिक्षाओं के माध्यम से इंसानों के दिलों को अपनी ओर आकर्षित करता है और इंसानों का मार्गदर्शन जीवन की सही शैली की ओर करता है। पवित्र कुरआन का उद्देश्य यह है कि मानव समाज में ईमान, न्याय, शांति, प्रेम, दोस्ती और भाई- चारा आदि प्रचलित हो। इसी परिप्रेक्ष्य में पवित्र कुरआन इंसानों का आह्वान करता है कि वे दूसरों पर अन्याय करने से दूरी करें और न्याय और एकेश्वरवाद को अपने जीवन का आदर्श करार दें। पवित्र कुरआन को याद करने का बेहतरीन समय जवानी एवं नौजवानी है जो चीज़ इस उम्र में याद कर ली जाती है वह सदैव बाक़ी रहती है। पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं जो जवानी में ज्ञान अर्जित करता है उसका उदाहरण पत्थर पर लिखी लकीर की भांति है और जो बुढ़ापे में ज्ञान अर्जित करता है वह पानी पर लिखने की भांति है।

 

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पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजन समस्त लोगों विशेषकर युवाओं का पवित्र कुरआन को पढ़ने और उसे समझने का आह्वान करते थे ताकि वे इस किताब की जीवनदायक शिक्षाओं से लाभान्वित हो सकें। जवान जितना अधिक पवित्र कुरआन से लाभ उठायेगा उतनी ही उसके  आध्यात्म में वृद्धि होगी और पापों से दूरी करता चलता जायेगा।

 

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जवानों को चाहिये कि वे पवित्र कुरआन को महत्व दें और उसे अपना बेहतरीन साथी करार दें। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम जवानों के बेहतरीन साथी के बारे में फरमाते हैंअगर दुनिया के पूरब और पश्चिम के समस्त लोग चले जायें तो भी मैं अकेलेपन से कदापि नहीं डरूंगा जब कुरआन हमारे साथ हो।

 

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पवित्र कुरआन अपनी आयतों में जवानों के लिए योग्य व भले जवानों का उदाहरण पेश करता है ताकि वे अपने जीवन में पवित्र कुरआन की शिक्षाओं को व्यवहारिक बनायें और परिपूर्णता की ओर क़दम बढायें। पवित्र कुरआन में जवानों के एक उदाहरण हज़रत युसुफ पैग़म्बर हैं। जब वह युवा हो गये तो उन्होंने अपने जीवन की एक कड़ी परीक्षा दी और उसमें वह सफल हो गये। वह परीक्षा उनकी पवित्रता व पाकदामनी की थी। हज़रत युसुफ अपने पालनहार से दुआ करते हुए कहते हैं हे पालनहार! मेरी नज़र में कारावास उस चीज़ से बेहतर है जिसकी ओर ये महिलाएं मुझे बुला रही हैं और अगर तू इनकी चालों को उनकी ओर नहीं लौटायेगा तो मेरा दिल उनकी ओर झुक हो जायेगा और मैं अज्ञानी लोंगों में से हो जाऊंगा।

 

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महान ईश्वर ने भी हज़रत युसुफ को अकेला नहीं छोड़ा और महिलाओं की चाल को उनकी ओर पलटा दिया परिणाम स्वरूप हज़रत युसुफ की पवित्रता और मिस्र के राजा की पत्नी की धूर्तता सिद्ध हो गयी। हज़रत यूसुफ़ की कहानी से हमारे जवानों को पाठ मिलता है कि जवानों को चाहिये कि वे पूरी तरह और सही अर्थों में महान ईश्वर पर भरोसा करें न कि अपनी शक्ति और अपने ईमान पर।

 

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समाज में शिक्षा -प्रशिक्षा के ज़िम्मेदारों का दायित्व है कि वे जवानों एवं नौजवानों को पवित्र कुरआन से परिचित करायें और उनकी सोच- विचार को पवित्र कुरआन की शिक्षाओं के अनुरुप बनायें और इस प्रकार वे पवित्र कुरआन को अलग- थलग की स्थिति से बाहर निकालें। अगर जवान पवित्र कुरआन से प्रेम करने लगें और उसकी आयतों की तिलावत करें और उसमें चिंतन- मनन करें तो उनके हृदय प्रकाशमयी हो जायेंगे।

 

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हज़रत इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम फरमाते हैं जो ईमानदार जवान पवित्र कुरआन की तिलावत करे तो कुरआन उसके मांस और खून में मिश्रित हो जायेगा।

 

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ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई जवानों के मध्य पवित्र कुरआन की शिक्षाओं के प्रचार- प्रसार पर विशेष ध्यान देते हैं। वरिष्ठ नेता जवानों को संबोधित करते हुए कहते हैं मेरे प्रिय जवानो! कुरआन की तिलावत एक बहुत बड़ी विशेषता है और वह एक पुण्य है परंतु यह तिलावत ज्ञान तक पहुंचने का साधन है। यह कुरआन एक महासागर है। जितना आगे बढ़ोगे उतना अधिक प्यासे होते जाओगे कुरआन के प्रति आपका प्रेम बढ़ता जायेगा और आपका दिल प्रकाशमयी होता जायेगा। कुरआन में चिंतन- मनन करना चाहिये। मैं फिर आप जवानों का आह्वान करता हूं कि कुरआन के अर्थों से रूचि पैदा करो और कुरआन के अनुवाद को समझो। मैंने बारम्बार इस चीज़ का आह्वान जवानों से किया है और बहुत से जवानों ने इस दिशा में क़दम भी बढाया है। जिस कुरआन की प्रतिदिन तिलावत करते हो, जितना तिलावत किया है। उसके अनुवाद को भी देखो। इन अर्थों को जवानों के ज़ेहनों में बैठ जाने दो उस समय वह चिंतन- मनन का अवसर प्राप्त कर लेगा।

 

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पवित्र कुरआन व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्त मामलों में जवानों का मार्गदर्शक है। आत्म निर्माण, परिवार के साथ व्यवहार, कार्य और सरकार चलाने आदि के नियम पवित्र कुरआन में मौजूद हैं। दूसरे शब्दों में व्यक्ति एवं सामाजिक जीवन के समस्त क़ानून इस आसमानी किताब में मौजूद हैं।

 

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KEVIN  COMBES  नामक युवा ने ईश्वरीय धर्म इस्लाम की अच्छाईयां समझ जाने के बाद इस धर्म को स्वीकार कर लिया और उसने अपना नाम अब्दुल्लाह इस्लाम रख लिया। वह अमेरिकी जवान है। वह पवित्र कुरआन को मार्गदर्शक पुस्तक समझता है और वह जीवन शैली को पवित्र कुरआन से सीखता है। वह इस किताब की सुन्दरता को इस प्रकार बयान करता है जब मैं कुरआन से परिचित हुआ तो देखा कि दुनिया में मैंने जितनी भी बातें सुनी हैं वह उन सबमें सबसे सुन्दर है मैं कुरआन के अर्थों को नहीं समझता था केवल इतना समझता था कि वह बहुत सुन्दर वाणी है। जब मैंने कुरआन का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ कर जो महसूस करता हूं उसे शब्दों में नहीं बयान कर सकता। कुरआन में कोई विरोधाभास दिखाई नहीं पड़ता। यह आसमानी किताब जिन्दगी की किताब है।

 

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पवित्र कुरआन सदैव बाक़ी  रहने वाली पूंजी है और वह कभी भी समाप्त नहीं होगी। इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम फरमाते हैं जो भी जवानी के समय में कुरआन पढ़े और बा ईमान हो तो कुरआन उसके मांस और खून में मिश्रित हो जायेगा। ईश्वर उसके साथ संदेश ले जाने वाले फरिश्तों जैसा अच्छा व्यवहार करेगा और प्रलय के दिन कुरआन नरक की आग के समक्ष बाधा बन जायेगा और कहेगा पालनहार! मेरे श्रमिक के अलावा हर श्रमिक को उसकी मज़दूरी मिल गयी। तो तू अपनी बेहतरीन पारितोषिक को उसे प्रदान कर। तो ईश्वर स्वर्ग से उसे दो वस्त्र पहनायेगा और उसके सिर पर प्रतिष्ठा का मुकुट रखेगा। उसके बाद कुरआन से कहा जायेगा क्या हमने इस व्यक्ति के बारे में तुम्हें प्रसन्न कर दिया? कुरआन कहेगा पालनहार! मैं उसके बारे में इससे बेहतर चाहता था तो उसके बाद नरक की आग से सुरक्षा का पत्र उसके दाहिने हाथ में दिया जायेगा और सदैव स्वर्ग में रहने का पत्र उसके बायें हाथ में दिया जायेगा और वह स्वर्ग में दाखिल हो जायेगा। उसके बाद उससे कहा जायेगा कुरआन पढ़ो और एक दर्जा ऊपर जाओ। उस समय कुरआन से कहा जायेगा क्या तुम जो चाहते थे उस तक मैंने तुम्हें पहुंचा दिया और तुम्हें प्रसन्न कर दिया? वह व्यक्ति कहेगा हां तो इमाम ने फरमाया जो कुरआन को बहुत अधिक पढ़ेगा इसके बावजूद कि उसका याद करना उसके लिए कठिन हो वह उसे अपने ज़ेहन में सुरक्षित और याद कर ले तो ईश्वर उसे दोबारा इसका बदला देगा।

۰ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 28 April 16 ، 12:55
Mesam Naqvi

बेअसते पैग़म्बरे अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी की आधिकारिक घोषणा का दिन है। इस दिन ईश्वर ने अपनी कृपा व दया के अथाह सागर के माध्यम से मनुष्य को निश्चेतना और पथभ्रष्टता के अंधकार से निकाला।

पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम को यह भारी ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी की आधिकारिक घोषणा मानव इतिहास की बहुत ही निर्णायक घटना है। ऐसी महान घटना जिसके घटने से अंतिम ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही सल्लम के पवित्र मुख से पवित्र क़ुरआन की आयतें जारी हुईं और पवित्र क़ुरआन ने इस महान घटना को महान उपकार और अनुकंपा की संज्ञा दी।

पवित्र क़ुरआन के सूरए आले इमरान की आयत संख्या 164 में आया है कि निःसन्देह, ईश्वर ने ईमान वालों पर उपकार किया उस समय जब उसने उन्हीं में से एक को पैग़म्बर बनाकर भेजा ताकि वह उन्हें ईश्वर की आयतें पढ़कर सुनाए और उन्हें (बुराइयों से) पवित्र करे तथा उन्हें किताब व तत्वदर्शिता की शिक्षा दे। निःसन्देह इससे पूर्व वे खुली हुई पथभ्रष्टता में थे।

मित्रो हम ईश्वर का आभार व्यक्त करते हैं कि उसने हमारे मार्गदर्शन के लिए ऐसा दूत भेजा जिसने मनुष्य की प्रवृति को जागरूक और उसकी आत्मा को पवित्र ईश्वरीय शिक्षाओं से अवगत कराया। उस ईश्वर का आभार जिसने अपनी अनुकंपाएं वहि अर्थात ईश्वरीय आदेश और उसके मार्गदर्शन के माध्यम से समस्त लोगों को प्रदान कीं। इस सुखद अवसर पर हम आपकी सेवा में हार्दिक बधाईयां प्रस्तुत करते हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही सल्लम की पैग़म्बरी की आधिकारिक घोषणा मानव इतिहास में नया अध्ययन है जिसे उस समय की महा क्रांति की संज्ञा दी जा सकती है। पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी की आधारिक घोषणा के समय विश्व में जारी परिवर्तनों से अवगत होने से उनकी पैग़म्बरी का महत्त्व अधिक स्पष्ट हो जाता है।

बेअसते पैग़म्बर के समय विश्व पतन का शिकार और संकटग्रस्त था। अज्ञानता, लूटपाट, अत्याचार, कमज़ोरों और वंचितों के अधिकारों की अनदेखी, पथभ्रष्टता, भेदभाव, अन्याय और मानवता और शिष्टाचार से दूरी, उस समय के समाजों में फैला हुआ था। इसी मध्य अरब प्रायद्वीप विशेषकर पवित्र नगर मक्का की स्थिति, सांस्कृतिक, राजनैतिक व सामाजिक दृष्टि से सबसे बुरी व सबसे विषम थी। अज्ञानी अरब हाथ से बनाई लकड़ी व मिट्टी की मूर्ति के आगे नतमस्तक होते थे और इन बे जान मूर्ति को प्रसन्न करने के लिए बलि चढ़ाते थे और उनसे सहायता मांगते थे और हर समझदार व बुद्धिमान व्यक्ति को आश्चर्य व खेदप्रकट करने पर विवश कर देते थे।

ईश्वर पवित्र क़ुरआन की कुछ आयतों में उस काल में प्रचलित कुछ अमानवीय संस्कारों और बुराइयों की ओर संकेत करते हुए अज्ञानता की काल में प्रचलित अमानवीय परंपराओं की पोल खोलता है। पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के हवाले से अरब जगत में उस काल की अनुचित स्थिति के बारे में आया है कि एक दिन क़ैस बिन आसिम पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के पास आया और कहता है कि या रसूल अल्लाह, मैंने अज्ञानता के काल में अपनी आठ जीवित लड़कियों को जीवित ज़मीन में गाड़ दिया। जब आसिम इब्ने क़ैस अपनी आठ जीवित लड़कियों को जीवित ज़मीन में गाड़ने की घटना बयान कर रहा था तो पैग़म्बरे इस्लाम के चेहरे पर परिवर्तन आया और तेज़ी से उनकी आंखों से आंसू जारी हो गये और उन्होंने अपने निकट बैठे लोगों से कहा कि यह निर्दयता है और जो दूसरों पर दया नहीं करेगा, ईश्वर की दया का पात्र नहीं हो सकता।

उस काल में अरब में जितनी पथभ्रष्टता फैली हुई थी शायद विश्व के किसी अन्य स्थान पर उस तरह पथभ्रष्टता फैली हो। यही कारण है कि इस्लाम धर्म के उदय होने से पूर्व उस काल को अज्ञानता का काल कहते हैं और उस समय के लोगों को बद्दू अरब कहा जाता है। उस काल के अरब न केवल पढ़ते लिखते नहीं थे बल्कि हर प्रकार के ज्ञान व तकनीक से दूर थे और बुद्धि व तर्क से परे भविष्यवाणी करते थे और कुरीतियों का अनुसरण करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम ऐसे ही लोगों को सुधारने के लिए भेजे गये थे ताकि न केवल उस धरती पर बल्कि पूरे इतिहास में पूरी दुनिया के लिए मुक्ति की नौका हों। अब जब हम पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के संदेश से थोड़ी सा परिचित हो गये तो हमारे लिए यह वास्तविकता स्पष्ट हो जाती है कि उनका निमंत्रण आरंभ से ही बुद्धि और तर्क पर आधारित रहा था। पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम ने सभी से यह मांग की है कि चिंतन मनन करें और उसी को स्वीकार करें जिसकी बुद्धि व तर्क पुष्टि करें।

इस बात के दृष्टिगत कि पैग़म्बरे इस्लाम उस जाति के मध्य जीवन व्यतीत कर रहे थे जिनका जीवन कुरीतियों से भरा हुआ था किन्तु पैग़म्बरे इस्लाम के लिए सबसे गौरव की बात भी यही थी कि उन्होंने भ्रांतियों और कुरीतियों से संघर्ष किया क्योकि एकेश्वरवाद की विचार के फैलने के लिए आवश्यक था कि बुद्धि और तर्क की छत्रछाया में अज्ञानता से संघर्ष किया था। निसंदेह पैग़म्बरे इस्लाम के लक्ष्यों में से एक कुरीतियों का विरोध और तर्क व बुद्धि को प्रचलित करना था।

पैग़म्बरे इस्लाम ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी ताकि लोग वास्तविकता के उपासक हो न कि भ्रांति और कुरीतियों के। इतिहास में उल्लेख है कि उनके एक मात्र पुत्र हज़रत इब्राहीम का जब स्वर्गवास हुआ तो वह बहुत रोये। उनके स्वर्गवास के दिन सूरज ग्रहण लग गया और कुरीतियों का शिकार लोग इस घटना को दुख की महान निशानी समझ बैठे और उन्होंने कहा कि पैग़म्बरे इस्लाम के पुत्र के निधन के कारण सूरज ग्रहण लगा है। जब पैग़म्बरे इस्लाम ने यह बातें सुनी तो मिंबर पर आये और कहने लगे कि सूर्य और चंद्रमा दोनों ही ईश्वर की महान निशानियां हैं और उसके आदेशों का कहना मानते हैं और कभी भी किसी के जीने या मरने से इनको ग्रहण नहीं लगता।

यद्यपि यह घटना, पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी के हवाले से लोगों की आस्थाओं को सुदृढ़ करती किन्तु वे कदपि इस बात से राज़ी नहीं हुए कि उनकी स्थिति कुरीतियों के माध्यम से लोगों के दिलों में मज़बूत हो। पैग़म्बरे इस्लाम नहीं चाहते थे कि लोगों की कुरीतियों सहित उनकी कमज़ोरियों से उनके मार्गदर्शन के लिए लाभ उठाएं बल्कि वे चाहते थे कि वे पूरी जागरूकता और पूरे ज्ञान से इस्लाम धर्म को स्वीकार करें क्योंकि ईश्वर पवित्र क़ुरआन में पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहता है कि लोगों को तत्वदर्शिता और उपदेश के माध्यम से ईश्वर की ओर बुलाओ।

चिंतन मनन उन विषयों में से था जिस पर पैग़म्बरे इस्लाम ने बहुत अधिक बल दिया था। वे कहते थे कि ईश्वर ने अपने बंदों को बुद्धि से बढ़कर कोई चीज़ प्रदान नहीं की है।

सैद्धांतिक रूप से हर वैचारिक व्यवस्था में बुद्धि की सहायता ली जानी चाहिए। यदि हम ईश्वर के अनन्य होने, ईश्वरीय दूतों के अस्तित्व, वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश और इन जैसे विषयों को सिद्ध करना चाहें तो हमें बौद्धिक तर्कों की सहायता लेनी पड़ेंगी। ग़लत आस्था से सही आस्था को पहचानने के लिए बुद्धि ही है जो मनुष्य की सहायता करती है धार्मिक शिक्षाओं की छत्रछाया में वास्तविकता तथा भ्रांति के मध्य सीमा को निर्धारित करती है। पवित्र क़ुरआन के प्रसिद्ध व्याख्याकर्ता सैयद अल्लामा तबातबाई पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं में बुद्धि के स्थान के महत्त्व के बारे में कहते हैं कि यदि ईश्वरीय पुस्तक में संपूर्ण चिंतन मनन करें और उसकी आयतों को ध्यानपूर्वक पढ़ें तो हमें तीन सौ से अधिक आयतें मिलेंगी जो लोगों को चिंतन मनन और बुद्धि के प्रयोग का निमंत्रण देती हैं, या ईश्वरीय दूतों को वे तर्क सिखाएं हैं जिससे सत्य को सिद्ध करने और असत्य को समाप्त करने के लिए प्रयोग किया गया है। ईश्वर ने पवित्र क़ुरआन की एक भी आयत में अपने बंदों को यह आदेश नहीं दिया है कि बिना समझे ईश्वर या उसकी ओर से आई हर चीज़ पर ईमान लाओ या आंखें बंद करके आगे बढ़ते रहें।

चिंतन मनन के निमंत्रण के सथ पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम ने ज्ञान प्राप्ति पर बहुत अधिक बल दिया है। उनका कहना था कि ज्ञान प्राप्त करो चाहे तुम्हें चीन ही क्यों न जाना पड़े। वे ज्ञान की प्राप्ति पर इतना अधिक बल देते थे कि उनके हवाले से बयान हुआ है कि एक युद्ध में उन्होंने अनकेश्वरवादी बंदियों की स्वतंत्रता के लिए यह शर्त रखी कि वे मुसलमानों को शिक्षा दें। वर्तमान समय में यह बहुत ही आश्चर्य ही बात है कि आज कुछ पथभ्रष्ट लोग इस्लाम धर्म के नाम पर और पैग़म्बरे इस्लाम की परंपराओं को जीवित करने के बहाने कुछ शिक्षण संस्थाओं पर आक्रमण करते हैं और इस्लाम के नाम पर घिनौने अपराध करते हैं। हाल ही में नाइजेरिया के चरमपंथी संगठन बोको हराम ने छात्राओं के एक बोर्डिंग स्कूल पर धावा बोलकर ढाई सौ से अधिक छात्राओं का अपहरण कर लिया। इन लड़कियों का केवल यह अपराध है कि ये छात्रा हैं। दुनिया का कौन व्यक्ति या कौन सी बुद्धि उनके इस घृणित कार्य को इस्लाम धर्म और पैग़म्बरे इस्लाम का अनुसरण कह सकती हैं। इस खेदजनक घटना से इस्लाम धर्म का कुछ लेना देना नहीं है बल्कि यह इस्लाम धर्म के झूठे दावेदारों की पोल खोल देते हैं।

मुसलमानों के लिए यह गर्व की बात है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने जीवन के हर पवित्र क्षण, लोगों के कल्याण और उनके विकास के लिए ज्ञान संबंधी प्रयास और उनके अज्ञानता के अंधकार से निकालने पर व्यतीत किए।

एकेश्वरवाद का निमंत्रण, भ्रांतियों से दूरी, स्वतंत्रता का निमंत्रण, न्याय की स्थापना के लिए प्रयास, दास प्रथा व बंदी प्रभा से संघर्ष, अत्याचारियों से संघर्ष, अत्याचारग्रस्त लोगों का समर्थन, ज्ञान व तकनीक की ओर प्रेरित करना, मानवीय प्रतिष्ठा और उसके नैतिक मूल्यों पर ध्यान देना, बुद्धि का सम्मान, मतभेद व अज्ञानता का विरोध, पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम की व्यापक शिक्षाओं के भाग हैं जिनमें मुसलममानों और दुनिया के अन्य राष्ट्रों के लिए मूल्यवान बिन्दु निहित हैं। यह शिक्षाएं परिपूर्ण हैं और मनुष्य के लिए सीधा रास्ता है जो उसको कल्याण की ओर ले जाता है।

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Mesam Naqvi

सूरए फ़त्ह पवित्र क़ुरआन का 48वां सूरा है। यह सूरा मदीने में उतरा।  इसमें 29 आयतें है। इस सूरे के नाम से ही स्पष्ट है कि यह विजय और सफलता का संदेश दे रहा है। अरबी भाषा में फ़त्ह, सफलता या विजय को कहते हैं। शत्रुओं पर विजय, स्पष्ट व उल्लेखनीय सफलता।

इस सूरे में निम्न लिखित बातों पर चर्चा हुई है। विजय व फ़त्ह की शुभ सूचना, हुदैबिया नामक संधि से संबंधित घटनाएं, मोमिनों के दिलों पर शांति छाना, बैअत रिज़वान नामक संधि की घटना, पैग़म्बरे इस्लाम(अ) और उनका सर्वोच्च लक्ष्य, मिथ्याचारियों की भूमिका। उनके उल्लंघन और उनकी अनुचित मांगें, वे लोग जिनपर जेहाद ज़रूरी नहीं है, मक्के में प्रविष्ट होने के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम के सपने का साकार होना , उमरा अंजाम देना और पैग़म्बरे इस्लाम के अनुयाइयों की विशेषताएं इत्यादि।

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सूरए फ़त्ह के उतरने के बारे में कहा जाता है कि छठी हिजरी क़मरी में पैग़म्बरे इस्लाम ने उमरे का संस्कार अंजाम देने के लिए मक्के की ओर जाने का इरादा किया और मुसलमानों को इस यात्रा में शामिल होने की ओर प्रोत्साहित किया। उन्होंने मुसलमानों को बताया कि मैंने सपने में देखा है कि मैं अपने साथियों के साथ मस्जिदुल हराम में प्रविष्ट हुआ और उमरा कर रहा हूं। पैग़म्बरे इस्लाम के साथ उनके कुछ साथी इस यात्रा में उनके साथ हो लिए। उनकी संख्या एक हज़ार चालीस थी। पैग़म्बरे इस्लाम ने सबसे कहा कि एहराम बांध लें और क़ुरबानी के ऊंट के अतिरिक्त अपने पास कोई रास्त्र न रखें ताकि क़ुरैश को यह विश्वास हो जाए कि इस यात्रा का उद्देश्य, काबे का दर्शन और उमरा अंजाम देना है।

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पैग़म्बरे इस्लाम हुदैबिया नामक स्थान पर पहुंचे। हुदैबिया मक्के के निकट एक क़स्बे का नाम था। वहां पर क़ुरैश को इसकी सूचना मिलती और उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम का रास्ता रोक लिया और उन्हें मक्के में प्रविष्ट होने की अनुमति नहीं दी।

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पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने एक प्रतिनिधि को मक्के भेजा और इस प्रकार कई बार दोनों पक्षों के प्रतिनिधि इधर उधर आये गये। अंततः बहुत अधिक बातचीत के बाद पैग़म्बरे इस्लाम और मक्के के अनेकेश्वरवादियों के मध्य एक समझौता हुआ। हुदैबिया नामक संधि वास्तव में एक ऐसी संधि थी जिसमें कहा गया था कि कोई भी पक्ष दूसरे पक्ष पर हमला नहीं करेगा और इस प्रकार से मुसलमानों और मक्के के अनेकेश्वरवादियों के मध्य जारी निरंतर झड़पें अस्थाई रूप से रुक गयीं।

 

समझौते की विषय वस्तु के बारे में अनेकेश्वरवादियों और पैग़म्बरे इस्लाम के अनुयाइयों के मध्य भीषण मतभेद पाया जाता था किन्तु अंत में दोनों पक्षों की सहमति से समझौता तैयार हुआ।

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हुदैबिया संधि का एक विषय यह था कि मुहम्मद अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम इस वर्ष लौट जाएं और मक्के में प्रविष्ट न हों किन्तु अगले वर्ष मुसलमान मक्के आ सकते हैं इस शर्त के साथ कि वे तीन दिन से अधिक समय तक मक्के में न रहें और इस अवधि में उमरा अंजाम दें और अपने घर लौट जाएं। इस समझौते में कई अन्य विषय भी थे जिनमें से एक यह था कि वह मुसलमान जो मदीने से मुक्के में दाख़िल होंगे उनकी जान व माल की सुरक्षा की गैरेंटी दी जाएगी। इसी प्रकार यह भी तै पाया हुआ कि दस वर्षों तक मुसलमानों और मक्के के अनेकेश्वरवादियों के बीच कोई युद्ध नहीं होगा । इसी प्रकार समझौते के अनुसार में मौजूद मुसलमानों को धार्मिक संस्कारों को अंजाम देने में पूरी स्वतंत्रता दी जाएगी।

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उसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने मुसलमानों को अपने क़ुरबानी के ऊंटों को वहीं ज़िब्ह करने का आदेश दिया और अपने सिरों को मुडवाने और एहराम उतारने का आदेश दिया। इस बात से कुछ मुसलमान नाराज़ हो गये क्योंकि उनके लिए उमरा अंजाम दिए बिना एहराम उताराना असंभव था किन्तु सबसे पहले पैग़म्बरे इस्लाम आगे बढ़े और उन्होंने अपना एहराम उतारा, सिर मुंडवाया और अपने क़ुरबानी के जानवर की ज़िब्ह किया। मुसलमानों ने भी पैग़म्बरे इस्लाम का अनुसरण किया और उन्होंने एहराम उतार दिए और वे सबके सब मदीने की ओर रवाना हो गये। जब पैग़म्बरे इस्लाम मदीने की ओर लौट रहे थे, अचानक उनके चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी और उसके बाद ही सूरए फ़त्ह उतरा। निसंदेह हमने आपको खुली हुई विजय प्रदान की है। इस सूरए की पहली ही आयत में पैग़म्बरे इस्लाम को महाशुभसूचना दी गई है। ऐसी शुभसूचना जो कुछ रिवायतों और कथनों के अनुसार, पूरी दुनिया में पैग़म्बरे इस्लाम के लिए सबसे लोकप्रिय थी। जिसमें कहा गया है कि हमने आपको खुली हुई विजयी प्रदान की। यह एक ऐसी बड़ी विजय थी जिसका प्रभाव दीर्घावधि और लंबे समय में इस्लाम की प्रगति और मुसलमानों की ज़िंदगी पर पड़ेगा, इस्लाम के इतिहास में अद्वितीय विजय।

 

 

 

हुदैबिया संधि के बाद पूरे अरब प्रायद्वीप में इस्लाम के फैलने का मार्ग प्रशस्त हो गया और पैग़म्बरे इस्लाम की शांतिप्रेमी आवाज़ ने उन जातियों को जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम और इस्लाम धर्म से ग़लत विचार  लिए, अपने दृष्टिकोणों पर पुनर्विचार करने पर विवश कर दिया। अनेकेश्वरवादियों ने बड़ी सरलता से मुसलमानों से संपर्क बना लिया और धीरेधीरे गुटों में इस्लाम धर्म स्वीकार करते रहे। इस प्रकार मुसलमानों की संख्या ग़ैर महसूस तरीक़े से बढ़ती गयी। वास्तव में हुदैबिया संधि ने बाद की सफलताओं का मार्ग प्रशस्त किया और यह मुसलमानों की एक बड़ी विजय थी।

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सूरए फ़त्ह की दूसरी और तीसरी आयत के कुछ भागों में फ़त्हे मुबीन अर्थात खुली हुई विजय के बारे में विवरण दिया गया है। इन आयतों में आया है कि ताकि ईश्वर आपके अगले पिछले समस्त आरोपों को समाप्त कर दे और आप पर पुरानी अनुकंपाओं को ख़त्म कर दे और आपको सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन कर दे और ज़बरदस्त तरीक़े से आपकी सहायता करे।

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इस विजय की छत्रछाया में पैग़म्बरे इस्लाम को बड़ी अनुकंपाएं प्रदान की गयीं। हुदैबिया संधि ने स्पष्ट हुआ कि पैग़म्बरे इस्लाम के संस्कार क्षत्र के विचारों के विपरीत प्रगतिशालि एवं ईश्वरीय संस्कार हैं। क़ुरआन की आयतें, मनुष्यों के विकास और उनके निखार का कारण बनती हैं और वे रक्तपात, युद्ध व अत्याचारों को समाप्त करने वाली हैं। इसी प्रकार सिद्ध हो गया कि पैग़म्बरे इस्लाम तार्किक हैं जो अपने वचनों पर कटिबद्ध रहने वाले हैं और यदि शत्रु उन पर युद्ध न थोपें तो वह सदैव शांति व सुलह का निमंत्रण देते हैं। इस प्रकार से इस्लाम धर्म की भव्य शिक्षाएं पहले से अधिक स्पष्ट हो गयीं और ईश्वरीय अनुकंपाएं पूरी हो गयीं। उन्होंने इसके द्वारा बड़ी सफलताओं का मार्ग प्रशस्त किया। अलबत्ता दो साल बाद अर्थात आठ हिजरी क़मरी को जब अनेकेश्वरवादियों ने संधि का उल्लंघन किया तो मुसलमान दस हज़ार की सेना के साथ मक्के की ओर रवाना हो गये ताकि उनके उल्लंघन का ठोस जवाब दें। इसके बाद मुसलमान सेना ने बिना किसी झड़प के अनेकेश्वरवादियों के केन्द्र मक्के पर विजय प्राप्त कर ली और यह भी हुदैबिया संधि के व्यापक व विस्तृत प्रभाव की एक निशानी थी।

 

 

 

रिज़वान नामक आज्ञापालन की घटना, हुदैबिया संधि से जुड़ी एक अन्य घटना है। जैसा कि हमने आपको बताया था कि इस घटना में इधर के प्रतिनिधि उधर और उधर के प्रतिनिधि इधर आते जाते थे। पैग़म्बरे इस्लाम(स) ने उसमान बिन अफ़वान को अपना प्रतिनिधि बनाकर अनेकेश्वरवादियों के पास मक्के भेजा ताकि वे उन्हें बताएं कि मुसलमान युद्ध करने के लिए मक्के नहीं आये हैं किन्तु क़ुरैश ने उस्मान को रोक लिया और उसके बाद मुसलमानों में यह अफ़वाह फैल गयी कि उस्मान बिन अफ़वान मारे गये। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि मैं यहां से तब तक नहीं हिलूंगा जब तक मेरी उनसे संधि है। उसके बाद वे एक वृक्ष के नीचे गये और उन्होंने लोगों से एक बार फिर अपने आज्ञापालन का वचन लिया। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने साथियों से इच्छा व्यक्त की कि अनेकेश्वरवादियों के साथ हुई संधि की अनदेखी न करें और रणक्षेत्र छोड़कर ने भागें। इस आज्ञापालन को इतिहास में बैअते रिज़वान का नाम दिया गया अर्थात ईश्वरीय प्रसन्नता का आज्ञापालन। इसका लक्ष्य मुसलमानों के आत्मविश्वास और उनके बलिदान के स्तर को परखना था। क़ुरैश के सरदार इस आज्ञापालन से अवगत हो गये और उनपर भय छा गया और उन्होंने उस्मान बिन अफ़वान को स्वतंत्र कर दिया।

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सूरए फ़त्ह की आयत संख्या 18 में आया है कि निश्चित रूप से ईश्वर ईमान वालों से उस समय राज़ी हो गया जब वह वृक्ष के नीचे आपके आज्ञा पालन का वचन दे रहे थे फिर उसने वह सब कुछ देख लिया जो उनके दिलों में था तो उन पर शांति उतारी और उन्हें इसके बदले निकट विजय प्रदान कर दी।

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सूरए फ़त्ह की 27वीं आयत में पैग़म्बरे इस्लाम के सपने और मस्जिदुल हराम में अपने साथियों के साथ उनके प्रविष्ट होने के वादे के व्यवहारिक होने की ओर संकेत किया गया है। ईश्वर कहता है कि निसंदेह ईश्वर ने अपने पैग़म्बर को बिल्कुल सच्चा सपना दिखाया था कि ईश्वर ने चाहा तो तुम लोग मस्जिदुल हराम में शांति के साथ सिर के बाल मुंडा कर और थोड़े से बाल काट कर प्रविष्ट हो गये और तुम्हें किसी भी प्रकार का भय न होगा तो उसे वह भी मालूम था जो तुम्हें नहीं मालूम था तो उसने मक्के पर विजय से पहले एक निकट विजय क़रार दे दी।

 

यह आयत उस समय उतरी जब पैग़म्बरे इस्लाम मदीने की ओर लौट रहे थे। इस आयत में इस बात पर बल देते हुए कि पैग़म्बरे इस्लाम ने जो सपना देखा था वह सच्चा था, बिना रक्तपात और युद्ध के मुसलमानों के मक्के में प्रविष्ट होने और अंततः शांति के साथ उमरा अंजाम देने की सूचना दी गयी है।

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हुदैबिया संधि के ठीक एक साल बाद अर्थात सातवीं हिजरी क़मरी के ज़ीक़ादा महीने में पैग़म्बरे इस्लाम अपने साथियों की सहमति से उमरा करने मक्का गये। उन्होंने एहराम पहना और तलवारों को मियान में रख लिया और उसके बाद मक्के में प्रविष्ट हुए।

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मक्के के सरदार शहर से बाहर निकल गये ताकि वह मुसलमानों के मक्के में दाख़िल होने के दृश्य को न देख सकें जो उनके लिए बहुत कष्टदायक था किन्तु मक्के के अन्य निवासी जिनमें महिलाएं, पुरुष और बच्चे भी थे शहर ही में रुके रहे ताकि वह मुसलमानों उमरा करते देख सकें।

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पैग़म्बरे इस्लाम मक्के में प्रविष्ट हुए। उन्होंने बड़े ही आदरभाव और प्रेम के साथ मक्केवासियों के साथ व्यवहार किया और उन्होंने मुसलमानों को आदेश किया कि जल्दी से काबे की परिक्रमा करें। उस समय होने वाला उमरा एक प्रकार की उपासना भी थी और शक्ति का प्रदर्शन भी। यह कहा जा सकता है कि आठवीं हिजरी क़मरी में मक्के की विजय का जो बीज बोया गया था उसने इस्लाम के सामने समस्त मक्केवासियों के नतमस्तक होने की भूमिका प्रशस्त कर दी। मुसलमानों ने पूरी शांति के साथ उमरा अंजाम दिया और तीन दिन के बाद मक्के को छोड़ दिया।

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सूरए फ़त्ह की अंतिम आयत में बहुत ही रोचक उदाहरण पेश किया गया है और इसमें बयान किया गया है कि पैग़म्बरे इस्लाम के मोमिन साथियों की विशेषताएं क्या थीं और उन्होंने इस्लाम के विकास और उसके फैलाव में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 

सूरए फ़त्ह की 29वीं आयत में आया है कि मुहम्मद (स) अल्लाह के पैग़म्बर हैं और जो लोग उनके साथ हैं वे अनेकेश्वरवादियों के लिए बहुत कठोर व सख़्त और आपस में बहुत दयालु हैं। तुम उन्हें देखोगे कि ईश्वर के दरबार में सिर झुकाए सजदे में हैं और अपने ईश्वर से कृपा और उसकी दाय तथा उसकी प्रसन्नता की मांग कर रहे हैं। अधिक सजदा करने के कारण उनके चेहरों पर सजदे के निशान पाये जाते हैं, उनका उदाहरण तौरैत में है और यही उनकी विशेषता और गुण इंजील में भी है जैसे कोई खेती हो जो पहले अंकुर निकाले फिर उसे मज़बूत बनाये फिर वह मोटी हो जाए और फिर अपने पैरों पर खड़ी हो जाए कि किसानों को प्रसन्न करने लगे ताकि उनके माध्यम से अनेकेश्वरवादियों को जलाया जाए और ईश्वर ने ईमान वालों और नेक काम करने वालों को क्षमा याचना और भव्य पारितोषिक का वचन दिया है।

 

۰ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 27 April 16 ، 18:10
Mesam Naqvi

इस बारे में कि पैगम्बर किस सीमा तक पापों से दूर हैं, मुसलमानें के विभिन्न समुदायों के मध्य मतभेद हैः
बारह इमामों को मानने वाले शिओं का मानना है कि पैगम्बर अर्थात र्इश्वरीय दूत,जन्म से मृत्यु तक छोटे बड़े हर प्रकार के पापो से पवित्र होता है बल्कि गलत व भूल से भी वह पाप नही कर सकता।

किंतु कुछ अन्य गुट,पैगम्बरों को केवल, बडे पापों से ही पवित्र मानते है और कुछ लोगों का मानना है कि युवा होने के बाद वे पापों से पवित्र होते है और अन्य का मानना है कि जब उन्हे औपचारिक रुप से पैगम्बरी दी जाती है तब और कुछ अन्य लोग इस प्रकार की पवित्रता का ही इन्कार करते है और यह मानते है कि र्इश्वरीय दूतों से भी पाप हो सकता है यहाँ तक कि वह जानबूझकर भी पाप कर सकते हैं। पैगम्बरों की पापों से दूरी के विषय को प्रमाणित करने से पहले कुछ बातो की ओर संकेत करना उचित होगा

पहली बात तो यह कि पैगम्बरों या कुछ लोगों के पवित्र होने का आशय, केवल पाप न करना ही नही है क्योकि संभव है, एक साधारण व्यक्ति भी पाप न करे विशेषकर उस स्थिति में जब उस की आयु छोटी हो। बल्कि इस का अर्थ यह है कि उन मे ऐसी शक्ति हो कि कठिन से कठिन परिस्थितियों मे भी उन्हे पापों से रोके, एक ऐसी शक्ति जो पापो कि बुरार्इ के प्रति पूर्ण ज्ञान और आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण के लिए सुदृढ इरादे द्वारा प्राप्त होती है। और चूँकि इस प्रकार कि शक्ति र्इश्वर की विशेष कृपा द्वारा प्राप्त होती है इस लिए उसे र्इश्वर से संबंधित बताया जाता है।
किंतु ऐसा नही है कि र्इश्वर, पापों से पवित्र लोगों को, बलपूर्वक पापों से दुर रखता है और उससे अधिकार व चयन शक्ति छीन लेता है। बल्कि पैगम्बरों और इमामों की पापों से पवित्रता का अर्थ यह होता है कि र्इश्वर ने उनकी पवित्रता की ज़मानत ली है।


दूसरी बात यह कि किसी भी व्यक्ति के पापों के पवित्र होने का अर्थ, उन कामों का छोडना है जिन का करना इस के लिए वर्जित हो जैसे वह पाप जिन का करना सभी धर्म मे गलत समझा जाता है और वह काम उसके धर्म मे वर्जित हो।इस आधार पर किसी पैगम्बर की पवित्रता वह काम करने से जो स्वंय उसके धर्म मे वैध हो और उससे पूर्व के र्इश्वरीय धर्म के वर्जित हो, या बाद मे वर्जित हो जाए, भगं नही होती।


तीसरी बात यह कि पाप, जिससे पवित्र व्यक्ति दूर होता है, उस काम को कहते है जिसे इस्लामी शिक्षाओं मे हराम कहा जाता है और इसी प्रकार पाप उन कामों के न करने को भी कहा जाता है और जिन का करना आवश्यक हो और जिसे इस्लामी शिक्षाओं मे वाजिब कहा जाता है। किंतु पाप के अतिरिक्त अवज्ञा व बुरार्इ आदि के जो शब्द है उनके अर्थ अधिक व्यापक होते है और उनमे श्रेष्ठ कार्य को छोडना भी होता है और इस प्रकार के काम पवित्रता को भंग नही करते ।।।।          
 


۰ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 07 March 16 ، 18:06
Mesam Naqvi

مَن قَتَلَ نَفْسًا بِغَیْرِ نَفْسٍ أَوْ فَسَادٍ فِی الأَرْضِ فَکَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِیعًا وَمَنْ أَحْیَاهَا فَکَأَنَّمَا أَحْیَا النَّاسَ جَمِیعًا

मायदा-32

कुरआन कहता है कि अगर कोई किसी को जुर्म किये बिना क़त्ल कर दे तो ऐसा ही है से इसने सभी को क़त्ल कर दिया हो और अगर कोई ज़िन्दा करदे तो ऐसा ही है जैसे उसने सभी को ज़िन्दा कर दिया।

ईरान में इस्लामी क्रान्ति के सफल होने के बाद इस्लाम के दुश्मन इसको ख़त्म करने के लिऐ जमा हो गये ताकि इस्लाम को मिटा दों इसके लिऐ उन्होंने ईरान को भी निशाना बनाया क्योंकि यह क्रान्ति ईरान में आई थी। इसके लिऐ पहला काम तो ये किया की ईरान के विरूध जंग छेड़ दी दूसरा काम ये किया कि ईरान को आतंकवाद का गढ़ बता कर क्षेत्र में ख़ौफ पैदा कर दिया। जिससे लोग इस क्रान्ति से दूर रहें परन्तु ऐसा हो न सका और दुश्मन को इसमें सफलता न मिल सकी।

दुश्मन को जब इसमें सफलता न मिल सकी तो उसने मुसलमानो को कमज़ोर करने के लिऐ मुसलमानो में फूट डाल कर एक दूसरे से अलग कर दिया, अब एक मुसलमान को दूसरे की ख़बर नही है वो किस हालत में है, एक देश को दूसरे की ख़बर नही है वो किन कठिनाईयों का सामना कर रहा है जबकि हज़रत मुहम्मद (स) की हदीस है आप फरमाते हैः

من سمع مسلما ینادی یا للمسلمین فلم یجبه فلیس بمسلم

अगर कोई मुसलमान किसी दूसरे मुसलमान भाई की आवाज़ सुने कि वो उसको सहायता के लिऐ बुला रहा है और वो उसकी सहायता न करे तो वो मुसलमान नही  है।

इस हदीस में तो मुसलमान आया है कि अगर एक मुस लमान सहायता के लिए बुलाये और वो उसकी सहायता न करे तो वो मुसलमान नही है। दूसरी हदीस में तो ये है कि अगर बुलाने वाला मुसलमान न भी हो तब भी अगर एक मुसलमान उसकी सहायता न करे तब भी वो मुसलमान नही है। हज़रत मुहम्मद (स) फरमाते हैः

من سمع رجلاً ینادی یا للمسلمین فلم یجبه فلیس بمسلم

इस हदीस से ये बात समझ में आती है कि मुसलमान वही है जो दूसरो कि सहायता करता है, यहीं से ये बात भी समझ में आती है कि मुसलमान किसी को नुक़सान नही पहुँचाता, अब अगर कोई किसी को नुक़सान पहुँचाकर ये समझता रहे कि वो मुसलमान है तो ये ग़लत है, इस हदीस के आधार पर वो मुसलमान नहीं हो सकता।

यहीं से ये बात भी समझ में आती है कि कोई भी मुसलमान आतंकवादी नहीं होता, अगर कोई आतंक फैला रहा हो वो कुछ भी हो मुसलमान नही है, वो इस्लाम और मुसलमानो को बदनाम करना चाहता है। आतंकवाद का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है, आज जो लोग मुसलमानों को आतंकवादी कह रहे हैं उन्हें इस्लाम के बारे में पढ़ना चाहिये फिर फैसला करें कि कौन आतंकवादी है।

मुसलमानों ने कभी भी कोई युध आरम्भ नहीं किया, संसार में जितने भी युध हुऐ हैं चाहे किसी भी युध को लेंलें उससे इस्लाम और मुसलमानों का कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी मुसलमानों को बदनाम किया जा रहा है, जबकि वो लोग जो एक दूसरे पर चढ़ाई करके हज़ारो और लाखों लोगों का सामूहिक नरसंहार कर देते हैं उन्हें कोई कुछ नही कहता, विनाशकारी हथियार बनाने वालों को कोई कुछ नहीं कहता, मुसलमानों को एक जुट हो कर इसका सामना करना होगा।

अगर मुसलमान एक जुट हो जाऐ तो इस बदनामी से निपटा जा सकता है परन्तु आज मुसलमान फूट का शिकार होकर आपस में लड़ रहे हैं, एक दूसरे को काफिर कह रहे हैं, एक दूसरे को क़त्ल कर रहे हैं, मुसलमान, अपने मुसलमान भाई का सिर काट कर ख़ुश हो रहा है, जबकि इस्लाम ये नही सिखाता, हदीस तो ये कहती है कि अगर कोई मुसलमान किसी दूसरे मुसलमान भाई को सहायता के लिऐ बुला रहा है तो हर मुसलमान का कर्तव्य है कि उसकी सहायता करे अगर उसकी सहायता न करे तो वो मुसलमान कहलाने का हक़दार नही है।

आज फिलिस्तीन से ले कर सिरिया, यमन, ईराक़ अफग़ानिस्तान, पाकिस्तान.... .............में मुसलमान, मुसलमान से लड़ रहा है और यह नहीं समझ रहे कि ये दुश्मन की चाल है, दुश्मन यही तो चाहता है कि हम आपस ही में लड़ते रहे और वो अपना काम आराम से करते रहें।  

इस्लाम के दुश्मनों ने जब देखा कि जब मुसलमान आपस में लड़ रहे हैं तो उन्होंने भी इससे लाभ उठाया और हथियारों की सप्लाई आरम्भ कर दी, जिससे उन्हें आर्थिक लाभ भी हुआ और मुसलमान भी कमज़ोर होते रहे, अगर मुसलमानों की अब भी आँख नही खुली तो भविष्य में भी कमज़ोर होते रहेंगे।

 इस्लाम के दुश्मनों ने इस्लाम को मिटाने के लिऐ अलग अलग तरीकों नये नये हमले किये उन्होंने इस्लामी कानून को बदलना आरम्भ कर दिया जिससे इस्लाम का चेहरा बदला जा सके जैसे कि जिहाद का अर्थ ही बदल डाला, इस कार्य में कुछ अनपढ़ मुसलमानों ने उन का साथ भी दिया जिससे उनका कार्य और भी आसान हो गया, तालिबान, अलक़ायदा और आज के समय में वहाबियत इसका उदाहरण हैं जिन्होंने उनका काम और भी आसान कर दिया। इन लोगों ने इस्लाम का मुखौटा लगा कर इस्लाम को नुक़सान पहुँचाया है, आज इस्लामी देशो में क्या कुछ नहीं हो रहा, आज फिलिस्तीन, मिस्र, सिरिया, यमन, ईराक़ अफग़ानिस्तान और पाकिस्तान इसी का शिकार हैं।

पहले तो यह था कि हम केवल सुनते थे कि इन्होंने वहाँ पर ऐसा कर दिया, वहाँ पर ऐसा कर दिया, इनके फत्वे भी बड़े अजीब ग़रीब होते हैं, परन्तु आज हम देख भी रहे हैं, बात फत्वों की नहीं है आज इन पर अमल भी किया जा रहा है, सिरिया में पाक सहाबा का मज़ार उड़ा दिया गया

ईराक़ में धार्मिक स्थलों को बम से उड़ाया गया, एक मुसलमान अल्लाहो अकबर कह कर दूसरे मुसलमान का सिर काट रहा है, उसका सीना चाक करके उसका कलेजा चबा रहा है जैसे कि हुज़ूर (स) के चचा हज़रत हमज़ा का कलेजा चबाया गया था।


क्या ऐसे लोग मुसलमान हो सकते हैं ? कभी नहीं, इनके कार्यों को देख कर हर व्यक्ति दाँतों में उगंली दबा लेगा, ये लोग इन्सान नहीं हैं।

अजीब बात यह है कि यह लोग अपना ख़ौफलाक चेहरा स्वयँ दूसरों को सामने पेश कर रहे हैं अपने अमानवीय कार्यों के वीडियो क्लिप स्वयँ ही इन्टरनेट पर डाल रहे हैं जो की अगर कोई दूसरा व्यक्ति यह कार्य करना चाहता तो अरबो डालर ख़र्च करके भी नहीं कर सकता था जो इन्होंने स्वयँ कर दिया।

शायद इनके ऐसे कार्यों को देख कर ही इमाम ख़ुमैनी ने कहा था कि हम अमेरिका और सद्दाम को तो माफ कर सकते हैं आले सऊद को नहीं, जबकि सद्दाम ने ईरान पर हमला किया था और अमेरिका ने उसको हथियार दिये थे और ईरान के एक जहाज़ को बम से उड़ा कर 250 से अधिक लोगों को मार दिया था, फिर भी इनको माफ किया जा सकता है तो आले सऊद को क्यों नही ? वो इसलिऐ कि इन्होंने इस्लाम के क़ानूनों को अपने पैरों से रौंध डाला है, हज में हाजियों को क़त्ल कर डाला जहाँ पर एक चींटी को मारने की भी आज्ञा नहीं है।   


ऐसे कार्यों को जब कोई दूसरा देखेगा तो इस्लाम से नफरत करने लगेगा यह लोग कार्य ही ऐसे कर रहे हैं اللہ اکبر और لا الھ الا اللہ कह कर मुसलमान का सिर काट रहे हैं, यह क्लिप जब कोई दूसरा देखेगा तो इस्लाम से नफरत करेगा, मुसलमानों को आतंकवादी हा कहेगा।

जब इस्राईल ने देखा कि उसका नील से फरात तक का सपना चकनाचूर हो गया तो उसने मुसलमानों को आपस में लड़ा दिया, वहाबियों के द्वारा सिरिया और मिस्र में नाअमनी फैला दी, इसी से पता चलता है कि वहाबियों का लिंक किससे है,  किसने इनको पाला है।

बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि वो लोग जो अपने आप को इस्लाम का धर्म प्रचारक कहते हैं और न जाने कितना पैसा इस्लाम के प्रचार पर ख़र्च करते हैं वही लोग इस्लाम को सबसे अधिक नुक़सान पहुँचा रहे हैं, यही लोग ऐकेश्वरवाद की जगह बहुईश्वर वाद लोगो तक पहुँचा रहे हैं, सहाबा का अपमान भी यही लोग कर रहे हैं, सिरिया और मिस्र में यह लोग क्या कुछ नही कर रहे जबकि वहाँ पर कुछ नही करना चाहिये था, फिलिस्तीन के लिऐ कुछ नहीं किया जबकि वहाँ पर कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिये था।

इनके सामने एक एक मुसलमान को खड़ा होना चाहिऐ बात शियों तक सिमित नही यह लोग सहाबा का अपमान कर रहे हैं अगर इनको ना रोका गया तो कल जो भी इनकी बात नहीं मानेगा उसको क़त्ल कर देंगे, यह लोग पैसों के लिऐ काम करते हैं।

रिवायतों में है कि जब सुफयानी आयेगा तो वो शियों को क़त्ल करने के लिऐ इनाम रखेगा कि जो कोई भी एक शिया का सिर काट कर लायेगा उसको इनाम दिया जायेगा, इसमें पहले तो शिया ही मारे जायेंगे परन्तु बाद में दूसरे लोग भी नही बच पायेंगे पैसों के लिऐ उनका सिर काटा जायेगा और कहा यह जायेगा कि यह भी शिया थे जो तक़इय्या कर रहे थे, इनका बस चले तो यह लोग हुज़ुर (स) का मज़ार भी तोड़ डालें क्योंकि यह लोग हुज़ुर (स) के मज़ार की ज़ियारत करने को शिर्क समझते हैं, उसको चूमने को शिर्क समझते हैं, वहाँ मन्नत माँगने को शिर्क समझते हैं।

मिस्र में इन्होंने हसन शहाता को शहीद कर दिया जबकि हसन शहाता एक सच्चे मुसलमान ही नही बल्कि आप मिस्र के अल-अज़हर विश्वविद्दालय के बड़े विद्धानो में से थे, उन पर 2000 से अधिक लोगों ने हमला करके शहीद कर दिया, आपके शव का भी अपमान किया गया उसको रस्सी में बाँध कर गलियों में खींचा गया, इसको देख कर करबला याद आ जाती है, करबला में भी यही कुछ हुआ था वहाँ पर भी लाशों का अपमान किया गया था वहाँ पर एक नही बल्कि 72 शव थे जिनका अपमान किया गया था।

सिरिया में  " हलब " शहर के उत्तरी उपनगर में  शिया आबादी वाले दो गांव "नबल"  और  " अल-ज़हरा " पर इन्होंने हमला करके घेर लिया है, नबल और अल-ज़हरा लगभग 10 महीनों से आतंकवादियों के घेरे में हैं और इस घेरे के चालू रहने से वहाँ के नागरिकों के लिऐ इस क्षेत्र में जीवन व्यतीत करना कठिन हो गया है क्योंकि इन दोनों गावों में दवा और खाद्द सामग्री का नामोनिशान तक नही है, वहाँ के लोग खाने और पानी के लिऐ तरस रहे हैं, यह मानव त्रासदी नही तो और क्या है।

यह लोग एक बच्चे के हाथ में तलवार देकर कहते हैं कि इसका सिर काट दे, यह बच्चा आगे चल कर एक क्रूर व्यक्ति के सिवा ।।क्या बन सकता है

एक 3 या 4 वर्ष के बच्चे के सामने उसके माता पिता को मार देते हैं उस बच्चे का क्या होगा

 यह लोग ना बच्चों पर रहम खाते हैं ना बड़ों पर, ना औरतों पर रहम खाते हैं ना किसी और पर, इन्होंने एक 3 वर्ष के बच्चे को फाँसी पर चढ़ा दिया ,एक बच्चे को दज्जाल कह कर मार डाला,  यह लोग सिरिया में हुज़ुर (स) की नवासी हज़रत ज़ैनब (स) के मज़ार को उड़ाने की धमकी दे चुके हैं।

इन सब चीज़ों को देखते हुए हर व्यक्ति इनसे नफरत करने लगा है, इन्होंने जिहादे निकाह के नाम पर स्त्रीयों का शोषण किया और अभी तक हो भी रहा है, इन्होंने जिहादे निकाह के नाम पर विश्व के सारे आवारा स्त्री पुरूष सिरिया में जमा कर दिये है।
यही कारण है कि ट्यूनीशिया की कुछ स्त्रीयों ने जब इनके इन करतूतों को देखा कि यह लोग किस प्रकार स्त्रीयों का शोषण कर रहे हैं तो उन्होंने स्त्रीयों की एक फोर्स बनाई जो नंगी रहती हैं जो हर प्रकार से इस्लाम धर्म का अपमान करती है??????
उनके इस कार्य का उत्तरदायी कौन होगा
सिरिया में फौज के हाथों पकड़ा गया एक आतंकी कहता है कि हमें एक शिया का सिर काटने के लिऐ 700 डालर दिये जाते थे।
इन सब बातों को देखते हुऐ हर मुसलमान का कर्तव्य है कि वो इनके विरूध आवाज़ उठायेः   
               आतंकवादियो के विरूध

              उलटे सीधे फतवे देने वाले मुफतियों के विरूध

              जो इन आतंकवादियो की सहायता कर रहे हैं उनके विरूध              

अन्त में हम इमामे ज़माना के ज़ूहुर के लिऐ अल्लाह से दुआ और प्रार्थना करते हैं कि आपका ज़ूहुर शीघ्र हो जाऐ जिससे सभी लोग चैन की साँस ले सकें।

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Mesam Naqvi

* ( म.न. 1- ) हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि वह ऊसूले दीन को अक़्ल के ज़रिये समझे क्योंकि ऊसूले दीन में किसी भी हालत में तक़लीद नही की जासकती यानी यह नही हो सकता कि कोई इंसान ऊसूले दीन में किसी की बात सिर्फ़ इस लिए माने कि वह ऊसूले दीन को जानता है। लेकिन अगर कोई इंसान इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों पर यक़ीन रख़ता हो और उनको ज़ाहिर भी करता हो तो चाहे उसका यह इज़हार उसकी बसीरत की वजह से न हो तब भी वह मुसलमान और मोमिन है। लिहाज़ा इस मुसलमान पर इस्लाम और ईमान के तमाम अहकाम जारी होंगे। लेकिन “मुसल्लमाते दीन”[2] को छोड़ कर दीन के बाक़ी अहकाम में ज़रूरी है कि या तो इंसान ख़ुद मुजतहिद हो, (यानी अहकाम को दलील के ज़रिये ख़ुद हासिल करे) या किसी मुजतहिद की तक़लीद करे या फ़िर एहतियात के ज़रिये इस तरह अमल करे कि उसे यह यक़ीन हासिल हो जाये कि उसने अपनी शरई ज़िम्मेदारी को पूरा कर दिया है। मसलन अगर चन्द मुजतहिद किसी काम को हराम क़रार दें और चन्द दूसरे मुजतहिद कहें कि हराम नही है तो उस काम को अंजाम न दे, और अगर कुछ मुजतहिद किसी काम को वाजिब और कुछ मुसतहब माने तो उस काम को अंजाम दे। लिहाज़ा जो शख़्स न तो ख़ुद मुजतहिद हो और न ही एहतियात पर अमल कर सकता हो उस पर वाजिब है कि किसी मुजतहिद की तक़लीद करे।

(म.न. 2) दीनी अहकाम में तक़लीद का मतलब यह है कि किसी मुजतहिद के फ़तवे पर अमल किया जाये। और यह भी ज़रूरी है कि जिस मुजतहिद की तक़लीद की जाये वह मर्द, आक़िल, बालिग़, शिया इस्ना अशरी, हलाल ज़ादा, ज़िन्दा और आदिल हो। आदिल उस शख़्स को कहा जाता है जो तमाम वाजिब कामों अंजाम देता हो और तमाम हराम कामों को तर्क करता हो और आदिल होने की निशानी यह है कि वह ज़ाहेरन एक अच्छा शख़्स हो और अगर उसके महल्ले वालों या पड़ौसीयो या उसके साथ उठने बैठने वालों से उसके बारे में पूछा जाये तो वह उसकी अचछाई की तसदीक़ करें।

अगर इस बात का थोड़ा सा भी इल्म हो कि दर पेश मसाइल में मुजतहिदों के फ़तवे एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ हैं तो ज़रूरी है कि उस मुजतहिद की तक़लीद की जाये जो “आलम” हो यानी अपने ज़माने के दूसरे मुजतहिदों के मुक़ाबले में अहकामें इलाही को समझने की ज़्यादा सलाहियत रख़ता हो। से

(म.न. 3)मुजतहिद और आलम की पहचान के तीन तरीक़े हैं।

क- इंसान ख़ुद साहिबे इल्म हो और मुजतहिद व आलम को पहचान ने की सलाहियत रखता हो।

ख- दो ऐसे शख़्स जो आलिम व आदिल हों और मुजतहिद व आलम के पहचान ने का मलका भी रख़ते हों अगर किसी के आलम व मुजतहिद होने की तस्दीक़ करें इस शर्त के साथ कि दूसरे दो आलिम व आदिल शख़्स उनकी बात की काट न करे। और किसी का आलम व मुजतहिद होना एक क़ाबिले एतेमाद शख़्स की गवाही से भी साबित हो जाता है।

ग- कुछ आलिम अफ़राद (अहले ख़ुबरा) जो मुजतहिद और आलम को पहचान ने की सलाहियत रखते हों, किसी के आलम व मुजतहिद होने की तसदीक़ करें और उनकी तसदीक़ से इंसान मुतमइन हो जाये।

* (म.न. 4) अगर दर पेश मसाइल में दो या दो से ज़्यादा मुजतहिदों के इख़्तलाफ़ी फ़तवे मुख़तसर तौर पर मालूम हों और बाज़ के मुक़ाबिल बाज़ का आलम होना भी इल्म में हो लेकिन अगर आलम की पहचान आसान न हो तो अहवत[3] यह है कि इंसान तमाम मसाइल में उनके फ़तवों जितना हो सके एहतियात करे। (यह मसला बहुत तफ़सीली है और यह इसके बयान का मक़ाम नही है।) और इस ऐसी सूरत में जबकि एहतियात मुमकिन न हो तो ज़रूरी है कि उस मुजतहिद के फ़तवे के मुताबिक़ अमल करे जिसके आलम होने का एहतेमाल दूसरे के मुक़ाबले में ज़्यादा हो। और अगर दोनों के आलम होने का एहतेमाल बराबर है तो फ़िर इख़्तियार है। (जिसके फ़तवे पर चाहे अमल करे।)

(म.न. 5) किसी मुजतहिद के फ़तवे को जान ने के चार तरीक़े हैं।

क- ख़ुद मुजतहिद से उनका फ़तवा सुने।

ख- दो ऐसे आदिल अशख़ास से सुनना जो मुजतहिद का फ़तवा बयान करें।

ग- मुजतहिद के फ़तवे को किसी ऐसे शख़्स से सुनना जिस की बात पर इतमिनान हो।

घ- मुजतहिद की किताब (मसलन तौज़ीहुल मसाइल) में पढ़ना एस शर्त के साथ कि उस किताब के सही होने के बारे में इतमिनान हो।

(म.न. 6) जब तक इंसान को मुजतहिद के फ़तवे के बदले जाने का यक़ीन न हो जाये किताब में लिखे फ़तवे पर अमल कर सकता है और अगर फ़तवे के बदले जाने का एहतेमाल पाया जाता हो तो छान बीन करना ज़रूरी नही है।

(म.न. 7) अगर मुजतहिदे आलम कोई फ़तवा दे तो उनका मुक़ल्लिद[4] इस मसले के बारे में किसी दूसरे मुजतहिद के फ़तवे पर अमल नही कर सकता। जब तक वह मुजतहिदेव आलम फ़तवा न दे बल्कि यह न कहे कि एहतियात इसमें है कि यूँ अमल किया जाये मसलन एहतियात[5] इसमें है कि नमाज़ की पहली और दूसरी रकअत में सूरए अलहम्द के बाद एक और पूरी सूरत पढ़े, तो मुक़ल्लिद को चाहिए कि या तो इस एहतियात पर जिसे एहतियाते वाजिब[6] कहते है अमल करे या किसी दूसरे ऐसे मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करे जिसकी तक़लीद जायज़ हो। बस अगर वह (दूसरा मुजतहिद) फ़क़त सूरए अलहम्द को काफ़ी समझता है हो तो दूसरे सूरह को छोड़ सकता है। जब मुजतहिदे आलम किसी मसले के बारे में कहे कि महल्ले ताम्मुल[7] या महल्ले इशकाल[8] है तो उसका हुक्म भी यही है।

(म.न. 8) अगर मुजतहिदे आलम किसी मसले के बारे में फ़तवा देने के बाद या इस से पहले एहतियात लगाये मसलन यह कहे कि नजिस बरतन कुर पीनी में एक मर्तबा धोने से पाक हो जाता है अगरचे एहतियात यह है कि तीन बार धोया जाये तो मुक़ल्लिद ऐसी एहतियात को छोड़ सकता है। इस क़िस्म की एहतियात को एहतियाते मुस्तहब[9] कहते हैं।

* (म.न. 9)इंसान जिस मुजतहिद की तक़लीद करता है अगर वह मर जाये तो जो हुक्म उसकी ज़िन्दगी में था वही हुक्म उसके मरने के बाद भी है। इस बिना पर अगर मरहूम मुजतहिद, ज़िन्दा मुजतहिद के मुक़ाबिल में आलम था तो वह शख़्स जिसे दर पेश मसाइल में दोनों मुजतहिदों के दरमियान के इख़तलाफ़ का अगर इजमाली तौर पर भी इल्म हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि मरहूम मुजतहिद की तक़लीद पर बाक़ी रहे। और अगर ज़िन्दा मुजतहिद आलम हो तो फिर जिन्दा मुजतहिद की तरफ़ रुजूअ करना जरूरी है। इस मसले में तक़लीद से मुराद मुऐयन मुजतहिद के फ़तवे की पैरवी करने (क़स्दे रुजूअ) को सिर्फ़ अपने लिए लाज़िम क़रार देना है न कि उसके हुक्म के मुताबिक़ अमल करना।

(म.न. 10) अगर कोई शख़्स किसी मसले में एक मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करे, फिर उस मुजतहिद के मर जाने के बाद वह उसी में ज़िन्दा मुजतहिद के फ़तवे पर अमल कर ले तो अब उसे इस बात की इजाज़त नही है कि वह दुबारा मरहूम मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करे।

(म.न. 11) जो मसाइल इंसान को अक्सर पेश आते हैं उनको याद करना वाजिब है।

* (म.न. 12) अगर किसी शख़्स के सामने कोई ऐल़सा मसला पेश आजाये जिसका हुक्म उसे मालूम न हो तो उसके लिए लाज़िम है कि एहतियात करे या उन शर्तों के साथ तक़लीद करे जिन ज़िक्र ऊपर हो चुका है। लेकिन अगर उसे इस मसले में आलम के फ़तवे का इल्म न हो और आलम व ग़ैरे आलम की राय के मुख़्तलिफ़ होने का थोड़ा इल्म भी हो तो ग़ैरे आलम की तक़लीद जायज़ है।

*(म.न. 13) अगर कोई शख़्स किसी मुजतहिद का फ़तवा किसी दूसरे शख़्स को बताये और इसके बाद मुजतहिद अपने फ़तवे को बदल दे तो उसके लिए ज़रूरी नही है कि वह उस शख़्स को फ़तवे के बदले जाने के बारे में आगाह करे। लेकिन अगर फ़तवा बताने के बाद यह महसूस करे कि (शायद फ़तवा बताने में) ग़लती हो गई है और अगर इस बात का अंदेशा हो कि इस इत्तला की बिना पर वह शख़्स अपनी शरई ज़िम्मेदारी के ख़िलाफ़ अमल अंजाम देगा तो एहतियाते लाज़िम[10] की बिना पर जहाँ तक हो सके उस ग़लती को दूर करे। तो

(म.न. 14) अगर कोई मुकल्लफ़[11] एक मुद्दत तक किसी की तक़लीद किये बिना आमाल अंजाम देता रहे लेकिन बाद में किसी मुजतहिद की तक़लीद कर ले तो इस सूरत में अगर मुजतहिद उसके गुज़िश्ता आमाल के बारे में हुक्म लगाये कि वह सही है तो वह सही तसव्वुर किये जायेंगे वरना बातिल शुमार होंगे।

[1] किसी मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करना।

[2] वह ज़रूरी और क़तई अमूर जो दीने इस्लाम के ऐसे जुज़ हैं जिनको अलग नही किया जाकता और जिन्हे तमाम मुसलमान दीन का लीज़मी जुज़ मानते हैं जैसे नमाज़, रोज़े का फ़र्ज़ और उनका वाजिब होना। इन अमूर को ज़रूरियाते दीन और क़तईयाते दीन भी कहते है। क्योंकि यह वह अमूर हैं जिनका तस्लीम करना दायर-ए- इस्लाम में रहने के लिए ज़रूरी है।

[3] एहतियात के मुताबिक़

[4] तक़लीद करने वाला

[5] अमल का वह तरीक़ा जिससे “अमल” के मुताबिक़े वाक़ेअ होने का यक़ीन हासिल हो जाये।

[6] वह हुक्म जो एहतियात के मुताबिक़ हो और फ़क़ीह ने उसके साथछ फ़तवा न दिया हो, ऐसे मसाइल में मुक़ल्लिद उस मुजतहिद की तक़लीद कर सकता है जो आलम के बाद इल्म में सबसे बढ़ कर हो।

[7] एहतियात करना चाहिए( मुक़ल्लिद इस मसले में दूसरे मुजतहिद की तरफ़ रुजूअ(सम्पर्क) कर सकता है इस शर्त के साथ कि मिजतहिद ने एहतियात के साथ फ़तवा न दिया हो।)

[8] इस में इश्काल है यानी इस अमल का सही और कामिल होना मुश्किल है। (मुक़ल्लिद इस मसले में किसी दूसरे मुजतहिद की तरफ़ रुजूअ कर सकता है। इस शर्त के साथ कि मुजतहिद ने फ़तवा न दिया हो)

[9] फ़तवे के अलावा एहतियात इस लिए इस पर अमल ज़रूरी नही होता।

[10] एहतियाते वाजिब का दूसरा नाम।

[11] वह शख़्स जिस पर शरई तकालीफ़ लागू हों।

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Mesam Naqvi

खलीफाऐ अव्वल अबुबकर बिन अबुक़हाफा एक रिवायत की बिना पर अपनी उम्र के आखरी लमहो मे तीन कामो के करने, तीन कामो के न करने, और पैग़म्बर से तीन सवालो के न पूछने से शरमिंदगी का इज़हार किया है।

 

 

इस रिवायत के बारे मे बहुत से सवाल किये जाते है कि ये रिवायत हदीस, तारीख और इल्मे रिजाल की किन शिया या सुन्नी किताबो मे आई है? इन किताबो का शिया या सुन्नी उलेमा के दरमियान क्या एतबार है ? क्या इस रिवायत की तमाम सनदे मोतबर है? इलमे रिजाल और तारीखदानो की इस रिवायत की सनद और मज़मून के बारे मे क्या नज़र है? इस रिवायत को सही मानने के नतीजे क्या होंगे?

 

जहा तक सवाल है इस बात का कि ये रिवायत शिया, सुन्नीयो की किन किताबो मे आई है तो इसका जवाब ये है कि शिया और सुन्नी दोनो के बहुत से मोहद्देसीन, तारीख़दान, मनाक़िब लिखने वाले, रिजालीयो, अदीबो, रावीयो और नाक़िलो ने इस रिवायत को चंद तरीक़ो से सिक़ह रावीयो और अलग अलग सनदो से लफ़्ज़ो और मज़मून के थोड़े बहुत फर्क़ से तीसरी सदी के पहले पचासे यानी वो ज़माना की जिसमे हदीस लिखने की शुरूआत हुई थी, से लिखा है यहां तक कि ये रिवायत मौजूदा ज़माने की रिजाल, हदीस, तारीख़ और अरबी अदब की किताबो मे भी मौजूद है।

 

और इस रिवायत का सही होना, इसकी सनद व पुरानी किताबो मे इसके होने से साबित है और इस रिवायत को सही और सच्ची मानने का नतीजा ये है कि हज़रत अबुबकर को अपनी हक़्क़ानियत और अपने सही होने पर शक था।

 

 

और क्यो कि ये रिवायत अहले सुन्नत भाईयो की किताबो मे थोड़ी बहुत कमी और ज़ियादती के साथ आई है इस लिऐ हम मजबूर है कि पूरी रिवायत को दो बड़े तारीख़दानो (तिबरी और अबुउबैद क़ासिम बिन सलाम) की किताबो से लाकर उनका तरजुमा आपके सामने पेश करे।

 

 

 

रिवायत का तरजुमा

 

 

अब्दुर रहमान बिन औफ़ कहता हैः मै अबुबकर की तबीअत पूछने गया (उस बीमारी के वक़्त कि जिसमे उन्होने इंतेक़ाल किया) मैने उन्हे सलाम किया और तबीअत पूछी (मुझे देखकर) वो उठकर बैठ गये

मैने कहा अलहम्दो लिल्लाह आप बेहतर हो गये। उन्होने कहाः क्या तुम मुझे बेहतर समझते हो? मैने कहाः जी फिर उन्होने कहाः तब भी मैं बीमार हुँ फिर कहाः मैने अपनी नज़र मे तुम मे से सबसे बेहतर को खिलाफत के लिऐ अपना जानशीन बनाया है और इसकी वजह से तुम सब के दिमाग़ो मे खुराफात पैदा होगी इस उम्मीद मे कि (काश) उसकी जगह तुम्हे ये क़ुदरत हासिल होती और तुम देखोगे कि (किस तरह) दुनिया तुम्हारी तरफ रूख़ करेगी चाहे अब न किया हो लेकिन जल्द ही तुम इसकी तरफ माएल हो जाओगे और जल्द ही तुम्हारे घर रेशमी परदो और नर्म तकीयो से आरास्ता होंगे। सादे गद्दे पर सोना तुम्हारे लिऐ इस तरह दुश्वार होगा जैसे कि तुम कांटो के बिस्तर पर सो रहे हो। खुदा की क़सम अगर बेगुनाह तुम्हे क़त्ल कर दिया जाए तो ये इससे से बेहतर है कि तुम दुनिया की लज़्ज़तो मे डूब जाओ। आने वाले ज़माने मे तुम उन अफराद मे सबसे पहले होंगे कि जो लोगो को गुमराह करेंगे और उन्हे सीधे रास्ते से उल्टी तरफ को दौड़ाऐंगे।

 

(और फिर अबुबकर ने सहाबा के हाल पर एक मिसाल दी) ऐ रहनुमा तुम खुद अंधेरो मे खो गऐ थोड़ा सब्र करो कि सुबह होने वाली है।

 

फिर अब्दुर रहमान कहता है कि ज़्यादा परेशान मत हो कि तुम्हारा हाल और खराब हो जाऐगा। तुम्हारे (खिलाफत मे जानशीन मुक़र्रर करने के) इरादे के बारे मे लोग दो हालतो से खाली नही हैं या तुम्हारे मुवाफिक़ है या मुखालिफ है जो मुवाफिक़ है वो तुम्हारे साथ है और जो तुम्हारे मुखालिफ है वो तुम्हे मशवरा देंगे। और जिसको तुमने अपने बाद ख़लीफा मुक़र्रर किया है ऐसा ही है कि जैसा तुम चाहते हो और हमने भी तुमसे खैर के अलावा कुछ नही देखा, इस दुनिया की किसी चीज़ के लिऐ ग़मजदा न हो खुदा की क़सम तुम हमेशा नेक और अच्छे कामो की हिदायत करने वाले रहे।

 

अबुबकर कहने लगेः हाँ मुझे इस दुनिया की किसी चीज़ का अफसोस नही है सिवाऐ तीन कामो के, कि जिन्हे मैने अंजाम दिया और बेहतर होता कि उन्हे अंजाम न देता और तीन कामो के, कि जिन्हे मैने अंजाम नही दिया और बेहतर होता कि उन्हे अंजाम देता और तीन सवालो के, कि चाहता था कि रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व) से उन्हे मालूम कर लेता।

 

और वो तीन काम कि जिन्हे मैने अंजाम दिया और चाहता था कि अंजाम न दुँ, चाहता था कि दरे फातेमा ज़हरा को किसी भी हाल मे न खुलवाता चाहे वो मुझ से जंग की नियत से ही क्यो न बंद किया गया होता और चाहता था कि फुजाआ सलमा1 को आग मे न जलाता या उसे क़त्ल कर देता या माफ कर देता और सक़ीफा बनी साएदा के दिन चाहता था कि ख़िलाफत को इन दोनो (उमर या अबुउबैदा) के गले मे डाल देता, वो अमीर होता और मैं वज़ीर।

 

और वो तीन काम कि जिन्हे मैने अंजाम नही दिया और चाहता था कि उन्हे अंजाम दूँ वो ये हैः मै चाहता था कि जब अशअस बिन कैस गिरफ्तार होकर मेरे पास लाया गया उसी रोज़ उसे क़त्ल कर दूँ क्यों कि मेरी नज़र मे वो जहा भी बुराई को देखेगा उसे मदद करेगा और चाहता था कि जिस दिन खालिद बिन वलीद को मुरतदीन की तरफ भेजा खुद ज़ुलक़िस्सा मे रूक जाता अगर मुसलमान जीत जाते कि जीत ही गये और अगर हार जाते तो उनकी मदद को जाता या उनके लिऐ मदद भेजता और चाहता था कि जिस दिन खालिद बिन वलीद को शाम भेजा उमर को इराक़ भेज देता और अपने दोनो हाथो को खुदा की राह मे खोल देता।

 

और वो तीन सवाल कि जिन्हे रसूल अल्लाह से पूछना चाहता था वो ये है चाहता था कि रसूल अल्लाह से सवाल करुं कि उनका जानशीन कौन है ताकि कोई इस बारे मे झगड़ा न करे और चाहता था कि मालूम कर चुका होता कि क्या खिलाफत मे अंसार का भी कोई हक़ है और चाहता था कि विरासत मे फूफी और भानजी का हक़ मालूम कर चुका होता, इस के बारे मे मुझे शक है।

 

इस रिवायत के अलग अलग जुमलो के नतीजे

 

''चाहता था कि दरे फातेमा ज़हरा को किसी भी हाल मे न खुलवाता चाहे वो मुझ से जंग की नियत से ही क्यो न बंद किया गया होता''  का नतीजा

 

1.   इस बात का इकरार कि अबूबकर ने जनाबे फातिमा ज़हरा (स.अ) के घर पर हमला किया और उनके घर की हुरमत को पामाल किया और घर के दरवाज़े को जनाबे फातेमा (स.अ) की इजाज़त के बग़ैर खोला।

2.   इस बात का इकरार की जनाबे फातिमा ज़हरा (स.अ) और मौला अली (अ.स) अबुबकर से नाराज़ थे। 

 

 

''क्या खिलाफत मे अंसार का भी कोई हक़ है'' का नतीजा

 

1.   इस बात का ऐतराफ की जो हदीस अबुबकर ने सकीफा मे अंसार पर ग़लबा पाने के लिए बयान की थी जो यह (आइम्मा कुरैश मे से होंगे) गलत है इस हदीस को सिर्फ अबुबकर ने नकल किया है और किसी ने इस हदीस को रसूल अल्लाह से निस्बत नही दी है। अबुबकर ने यह कह कर कि क्या अंसार का भी खिलाफत मे कोई हक़ है अपनी बयान की हुई हदीस (आइम्मा कुरैश मे से होंगे) के जाली और नकली होने का खुद इकरार किया है।

 

 

2.   इस जुमले से अबुबकर ने अपनी खिलाफत और हकुमत के गलत होने का ऐतराफ किया है और इस जुमले से मालूम होता कि वो अपनी खिलाफत, जानशीनी और हक़्क़ानियत मे शक रखता था इस बिना पर रसूले खुदा (स.अ.व.व.) के खलीफा बनने के अपने अमल के ग़लत होने का खुद इकरार किया और अंसार के हक़ मे ज़ुल्म करने औऱ उन्हे उनके हक़ से दूर करने का इकरार किया है।     

 

 

''आपके बाद खिलाफत किसका हक़ है''  का नतीजा

 

 

1.   अबुबकर का अपनी खिलाफत, हुकुमत के सही होने पर शक और खुद अपने और अपने साथीयो के आमाल के सही होने पर शक

2.   इस बात का इकरार (आइम्मा कुरैश मे से होंगे) गलत है और अबुबकर ने एक झूठ की निस्बत रसूले खुदा से दी थी और उसके खलिफा बनने पर कोई हदीस मौजूद नही है।

3.   अपनी हुकुमत के गलत होने और अपने जानशीन और साथीयो के आमाल के गलत होने का इकरार

4.   खिलाफत के हकदार से झगड़े और उसके हक को जिहालत और नफ्सपरस्ती की वजह से छीनने का इक़रार

5.   खिलाफत के हकदार पर ज़ुल्म और उसका हक़ छीनने का इक़रार

6.   इस बात का इकरार कि उसे रसूले खुदा ने खलीफा नही बनाया था और अबुबकर के पैरोकारो की बनाई गई वो तमाम हदीसे कि जो उसके रसूले खुदा के जानशीन बनाने के बारे मे है, नकली और जाली है।

 

 

 

1.  फुजाआ सलमाः एक आदमी का नाम था कि जिसने पैग़म्बरी का दावा किया था।

 

 [[ये आरटीकल डाँ. अल्लाहो अकबरी (सदस्य इतिहास विभाग, इमाम खुमैनी युनिवर्सिटी क़ुम ईरान) के फारसी आरटीकल ''हदीसे पशेमानी'' से लिया गया है ]]

 

۱ نظر موافقین ۰ مخالفین ۰ 07 March 16 ، 11:36
Mesam Naqvi